भारत और रूस (पूर्व में सोवियत संघ) के बीच की दोस्ती दशकों से वैश्विक मंच पर एक मिसाल रही है। यह संबंध न केवल रणनीतिक और सैन्य सहयोग पर आधारित था, बल्कि वैचारिक एकता और आपसी विश्वास का भी प्रतीक था। लेकिन हाल के वर्षों में, खासकर ऑपरेशन सिंदूर के दौरान, रूस की तटस्थता ने कई सवाल खड़े किए हैं। क्या भारत का अमेरिका की ओर झुकाव इसका कारण है? क्या रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत की तटस्थता रूस को खल रही है? कहीं मोदी सरकार की नीतियाँ रूस को पाकिस्तान और चीन की ओर तो नहीं धकेल रही है?
ऑपरेशन सिंदूर: एक नया टकराव
22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 लोग मारे गए। भारत ने इसे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद माना और 7 मई 2025 को ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया। चार दिन तक चले इस ऑपरेशन में भारत ने पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर (PoK) में जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा, और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठनों के ठिकानों पर मिसाइल हमले किए। इस दौरान विश्व समुदाय चिंतित रहा, क्योंकि भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। 10 मई को दोनों देशों ने युद्धविराम की घोषणा की।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि उन्होंने व्यापार प्रतिबंधों की धमकी देकर युद्ध रुकवाया, लेकिन भारत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि युद्धविराम दोनों देशों के बीच सीधे समझौते का परिणाम था। इस टकराव में भारत को इसराइल और अफगानिस्तान (तालिबान) को छोड़कर किसी का खुला समर्थन नहीं मिला। सबसे हैरान करने वाली थी रूस की चुप्पी। वह रूस, जो अतीत में हर संकट में भारत के साथ खड़ा रहा, इस बार तटस्थ रहा। रूस ने पहलगाम हमले की निंदा तो की, लेकिन दोनों पक्षों से कूटनीति और संयम की सलाह दी।
रूसी S-400 की धमक
हालाँकि रूस ने कूटनीतिक रूप से तटस्थता अपनाई, लेकिन ऑपरेशन सिंदूर में उसकी सैन्य तकनीक भारत के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई। भारत ने S-400 ट्रायम्फ मिसाइल सिस्टम का उपयोग किया, जो रूस द्वारा विकसित दुनिया की सबसे उन्नत वायु रक्षा प्रणालियों में से एक है। यह प्रणाली हवाई ख़तरों जैसे लड़ाकू विमान, ड्रोन, क्रूज मिसाइलें, और बैलिस्टिक मिसाइलों को 400 किमी की दूरी तक नष्ट कर सकती है। भारत ने अक्टूबर 2018 में 5.43 बिलियन डॉलर में पांच S-400 रेजिमेंट खरीदने का सौदा किया था। 2025 तक तीन यूनिट्स भारत में तैनात हो चुकी हैं, जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तानी ड्रोन और मिसाइल हमलों को रोकने में अहम भूमिका निभाई।
ऑपरेशन सिंदूर में भले ही रूस ने खुलकर समर्थन नहीं किया, उसकी रक्षा तकनीक भारत की ताकत बनी रही। लेकिन रूस की चुप्पी का कारण क्या था? इसका जवाब हमें रूस-यूक्रेन युद्ध और भारत की बदलती विदेश नीति में मिलता है।
रूस-यूक्रेन युद्ध में तटस्थता
रूस और यूक्रेन के बीच तनाव 2014 से शुरू हुआ, लेकिन 24 फरवरी 2022 को रूस के पूर्ण पैमाने पर आक्रमण के साथ यह खुला युद्ध बन गया। भारत ने इस युद्ध में न तो रूस का खुलकर साथ दिया और न ही पश्चिमी देशों के साथ खड़ा हुआ। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ प्रस्तावों पर वोटिंग से परहेज किया और रियायती दरों पर रूसी तेल का आयात बढ़ाया। साथ ही, भारत ने यूक्रेन को मानवीय सहायता दी और शांति के लिए मध्यस्थता की पेशकश की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 में समरकंद SCO शिखर सम्मेलन में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से कहा, “यह युद्ध का समय नहीं है।” 2024 में उनकी यूक्रेन यात्रा और राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की से मुलाकात ने भारत की तटस्थता को और स्पष्ट किया। भारत की यह नीति राष्ट्रीय हितों और रणनीतिक संतुलन पर आधारित थी, लेकिन यह रूस के लिए खलने वाली बात थी। तो क्या रूस ने ऑपरेशन सिंदूर में तटस्थता अपनाकर भारत को उसी का जवाब दिया?
अमेरिका की ओर झुकाव
पिछले कुछ वर्षों में भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। भारत ने क्वाड (Quad: भारत, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया) और I2U2 (भारत, इजरायल, यूएई, अमेरिका) जैसे गठबंधनों में हिस्सा लिया, जो रूस-चीन गठजोड़ के खिलाफ माने जाते हैं। 2016-20 के बीच अमेरिका और फ्रांस से हथियार आयात बढ़ा। 2000 के दशक में भारत के हथियार आयात का 75% हिस्सा रूस का था, जो 2018 तक घटकर 58% रह गया।
अमेरिका को भारत के रूस से तेल आयात और S-400 सौदे पर आपत्ति रही है। अमेरिका ने CAATSA (Countering America's Adversaries Through Sanctions Act) के तहत भारत पर प्रतिबंध लगाने की बात की, लेकिन भारत ने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता का हवाला दिया। दूसरी ओर, रूस ने पाकिस्तान और चीन के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी बढ़ाई, जो भारत के लिए चिंता का विषय है।
संबंधों का ऐतिहासिक आधार
भारत और रूस (सोवियत संघ) के संबंध 1947 में औपचारिक रूप से शुरू हुए, जब भारत आजाद हुआ। उस समय विश्व दो ध्रुवों—अमेरिका और सोवियत संघ—में बंट रहा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई, लेकिन सोवियत संघ के साथ भारत की वैचारिक और रणनीतिक नजदीकी थी। सोवियत संघ ने भारत को आर्थिक और सैन्य सहायता दी, खासकर तब जब पश्चिमी देश पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे।
1917 की रूसी क्रांति ने भारत की आजादी की लड़ाई को गहराई से प्रभावित किया। व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में हुई इस क्रांति ने साम्राज्यवाद-विरोधी भावनाओं को बढ़ावा दिया। लेनिन ने कहा था कि “साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद की चरम अवस्था है,” जो भारतीय नेताओं और क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बना। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी लेनिन से प्रभावित थे और भारत में बोल्शेविक-शैली की क्रांति चाहते थे। 1930 में लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान भगत सिंह ने लेनिन दिवस पर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को तार भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा:
लेनिन दिवस के अवसर पर हम उन सभी को हार्दिक अभिनंदन भेजते हैं जो महान लेनिन के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ भी कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किए जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कामना करते हैं। सर्वहारा विजयी होगा। पूँजीवाद पराजित होगा। साम्राज्यवाद की मौत हो।
महात्मा गांधी हिंसा के ख़िलाफ़ थे लेकिन रूसी क्रांति के सामाजिक न्याय के लक्ष्य की सराहना की। नवंबर 1928 में यंग इंडिया में उन्होंने लिखा:
“यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हिंसा पर कोई भी स्थायी चीज नहीं बनाई जा सकती। फिर भी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बोल्शेविक आदर्श के पीछे अनगिनत पुरुषों और महिलाओं का बलिदान छिपा है… लेनिन जैसी आत्माओं के बलिदान से पवित्र किया गया आदर्श कभी व्यर्थ नहीं जा सकता।”
वहीं नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा:
“सोवियत क्रांति ने समाज को एक बड़ी छलांग के साथ आगे बढ़ाया। इसने एक ऐसी लौ जलाई जिसे बुझाया नहीं जा सकता।”
संयुक्त राष्ट्र में समर्थन
सोवियत संघ ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के हितों का पुरजोर समर्थन किया। खासकर कश्मीर मुद्दे पर, उसने 1957, 1962, और 1971 में तीन बार वीटो पावर का इस्तेमाल कर भारत के खिलाफ प्रस्तावों को रोका। इसके अलावा, सोवियत संघ ने भारत की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (NSG) में उम्मीदवारी का समर्थन किया।
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम
सोवियत संघ का सबसे बड़ा योगदान 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में देखा गया। भारत और सोवियत संघ ने 9 अगस्त 1971 को मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसने युद्ध की स्थिति में सोवियत सहायता को सुनिश्चित किया। जब अमेरिका ने अपने सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में भेजकर भारत पर दबाव बनाया, तो सोवियत संघ ने अपनी पैसिफिक फ्लीट से युद्धपोत और पनडुब्बियां तैनात कीं। सोवियत संघ ने भारत को T-55 और PT-76 टैंक, मिग-21 विमान, मिसाइल नौकाएं, और गोला-बारूद प्रदान किए, जिसने भारत की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बदलता वैश्विक परिदृश्य
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्व व्यवस्था बदल गई। समाजवाद का वैचारिक आधार कमजोर हुआ, और भारत ने अपनी विदेश नीति को नए सिरे से परिभाषित किया। मोदी सरकार के तहत भारत ने अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा दिया। नमस्ते ट्रम्प जैसे आयोजन, क्वाड में सक्रियता, और अमेरिका से बढ़ता हथियार आयात इसका प्रमाण है। ट्रम्प ने बार-बार दावा किया कि उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर में युद्धविराम करवाया, जिसका भारत ने खंडन नहीं किया। यह भारत की उस छवि के विपरीत है, जिसमें वह पाकिस्तान के खिलाफ अपने पराक्रम का दावा करता है।
अमेरिका को भारत के रूस से तेल आयात पर भी आपत्ति है। एक प्रस्तावित अमेरिकी बिल रूस से व्यापार करने वालों पर 500% टैक्स की बात करता है, जिसे ट्रम्प का समर्थन प्राप्त है।
दूसरी ओर, भारत BRICS और SCO जैसे मंचों पर रूस के साथ सक्रिय है। 2024 में PM मोदी की रूस यात्रा और पुतिन के साथ मुलाक़ात भी की लेकिन वैश्विक मंच पर भारत का पलड़ा अमेरिका की ओर झुकता दिख रहा है।
ऑपरेशन सिंदूर में रूस की तटस्थता ने भारत-रूस संबंधों पर सवाल उठा दिये हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत की तटस्थता, अमेरिका के साथ बढ़ती साझेदारी, और रूस की पाकिस्तान-चीन के साथ नजदीकी ने इस दोस्ती को जटिल बना दिया है। भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना चाहता है, लेकिन रूस जैसा पुराना दोस्त खोना विदेश नीति में बरसों की कमाई को गंवाने जैसा होगा।
अमेरिका के साथ भारत का रिश्ता स्वार्थ पर आधारित है, लेकिन रूस के साथ दोस्ती विश्वास और इतिहास की नींव पर टिकी थी। क्या भारत इस संतुलन को बनाए रख पाएगा? यह भविष्य के लिए एक बड़ा सवाल है।