विवेक अग्निहोत्री की "द बंगाल फाइल्स" 5 सितंबर 2025 को रिलीज़ हुई, लेकिन यह बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप रही। 35-50 करोड़ रुपये के बजट वाली इस फिल्म ने पहले दस दिनों में भारत में मात्र 14.15 करोड़ रुपये कमाये। यह "द कश्मीर फाइल्स" (340 करोड़ कमाई) जैसी उनकी पिछली ब्लॉकबस्टर की तुलना में भारी नाकामी है। कश्मीर फाइल्स भी एक प्रोपेगैंडा फ़िल्म थी लेकिन जम्मू-कश्मीर के इतिहास से नावाक़िफ़ लोगों ने जिस आसानी से उसे स्वीकार किया, वैसा ‘द बंगाल फ़ाइल्स’ के साथ नहीं हो पाया। वैसे बीते दिनों आयी ज़्यादातर प्रोपेगैंडा फ़िल्में बॉक्स आफिस पर पिटी ही हैं जो बताता है कि दर्शकों ने इन फ़िल्मों के निर्माण के पीछे छिपी राजनीति को समझ लिया है।

'द बंगाल फ़ाइल्स’, 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के आह्वान और नोआखाली दंगों में हिंदुओं के मारे जाने पर बनायी गयी है। लेकिन विभाजन के समय जिस तरह का माहौल था, उसमें यह एकतरफा चित्रण करती है। नोआखाली में हिंदू मारे गये तो कलकत्ता में मुस्लिम मारे गये थे। फिल्म ब्रिटिश सरकार की शातिर भूमिका को नज़रअंदाज़ करती है और महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं का माखौल बनाती है।

झूठ का आलम ये है कि फिल्म में दावा किया गया कि गांधी ने हिंदू महिलाओं को बलात्कार से बचने के लिए "जीभ काटने" या "साँस रोकने" की सलाह दी। विवेक अग्निहोत्री ने फ़िल्म रिलीज़ के पहले इसे एक्स पर पोस्ट भी किया था जबकि गांधी ने 18 अक्टूबर 1946 को कहा था, "महिलाएँ अपमान सहने की बजाय विरोध करते हुए जान दे दें।” उन्होंने यह भी कहा था कि नाखून और दाँतों का इस्तेमाल करते हुए लड़ें। लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने बलात्कारियों के साथ "सहयोग" की सलाह बना दिया।
फिल्म का मकसद 2026 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना था। बीजेपी ने कोलकाता में फ़िल्म की रिलीज़ के लिए प्रदर्शन किये। विवेक ने दावा किया कि फिल्म को बंगाल में "बैन" किया गया। हालाँकि सरकार की ओर से कोई आधिकारिक बैन नहीं था; थिएटर मालिकों ने सांप्रदायिक बवाल के डर से इसे नहीं दिखाया। बंगाल के बाहर भी फिल्म फ्लॉप रही, जिससे साफ है कि दर्शक प्रोपेगैंडा को नकार रहे हैं।

गांधी और नोआखाली  

1946 के नोआखाली दंगों में 5,000 हिंदू मारे गए, और हजारों महिलाओं पर अत्याचार हुआ। गांधी 7 नवंबर 1946 से मार्च 1947 तक नोआखाली में रहे, 47 गाँवों में पैदल घूमे, और हिंदू-मुस्लिम एकता की अपील की। उनकी मौजूदगी ने हिंसा को कम किया, और बिहार दंगों (5,000 मुस्लिम मारे गये थे) को भी नियंत्रित किया। पंजाब में विभाजन के समय लाखों लोग मरे, जबकि बंगाल अपेक्षाकृत शांत रहा। 

वायसरॉय लार्ड माउंटबैटन ने गाँधी की प्रशंसा करते हुए कहा, "जहाँ कहीं गाँधी गये, दंगे रुक गए। उन्होंने चमत्कार किया... एक व्यक्ति के साहस और दृढ़ संकल्प से वह रुक गया, जो हजारों सैनिक नहीं रोक पाए।" लेकिन विवेक अग्निहोत्री फ़िल्म में गाँधी को एक कमज़ोर व्यक्ति के रूप में दिखाते हैं।

विवेक अग्निहोत्री का करियर

विवेक अग्निहोत्री ने 2005 में "चॉकलेट: डीप डार्क सीक्रेट्स" से शुरुआत की थी जो एक क्राइम थ्रिलर थी। इसके बाद उन्होंने हेट स्टोरी, ज़िद जैसी फ़िल्में बनायी थीं। क्राइम और रोमांस से भरपूर फ़िल्में बनाने वाले अग्निहोत्री ने 2014 के बाद ट्रैक बदला और 2016 में "बुद्धा इन ए ट्रैफिक जैम" (पॉलिटिकल ड्रामा) बनायी जिसने जेएनयू पर निशाना साधा था जो बीजेपी के भी निशाने पर थी। उसके बाद वे सीधे सीधे उन फ़िल्मों को बनाने में लग गये जो बीजेपी की राजनीति को बल देती थीं। इसके लिए उन्होंने तथ्यों की जगह अर्धसत्य, असत्य और कल्पना का भी जमकर इस्तेमाल किया। उन्होंने फ़िल्मों के ज़रिए फाइल खोलनी शुरू की और प्रोपेगैंडा के उस्ताद बन गये।
  • ताशकंद फाइल्स (2019): लाल बहादुर शास्त्री की मौत पर आधारित। बजट 10-15 करोड़, कलेक्शन 17.21 करोड़। सेमी-हिट।
  • कश्मीर फाइल्स (2022): कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर। बजट 15-25 करोड़, कलेक्शन 340.92 करोड़। ब्लॉकबस्टर, लेकिन प्रोपेगैंडा के लिए विवादास्पद।
  • बंगाल फाइल्स (2025): फ्लॉप।
इन फिल्मों का मकसद हिंदुत्व को बढ़ावा देना, मुसलमानों को विलेन बनाना, और कांग्रेस/गांधी/नेहरू को निशाना बनाना रहा। एक तरह से बीजेपी और आरएसएस के दुष्प्रचार का सिनेमाई रूप।

पिटती प्रोपेगैंडा फ़िल्में

द बंगाल फाइल्स ही नहीं पिछले कुछ वर्षों में कई प्रोपेगैंडा फिल्में फ्लॉप हुईं, जो दर्शकों की जागरूकता दिखाता है:
  • द वैक्सीन वॉर (2023): बजट 10-25 करोड़, फ्लॉप।
  • उदयपुर फाइल्स (2024): बजट ~20 करोड़, फ्लॉप।
  • द सबरमती रिपोर्ट (2024): बजट 50 करोड़, फ्लॉप।
  • स्वातंत्र्य वीर सावरकर (2024): बजट 20 करोड़, फ्लॉप।
  • बस्तर: द नक्सल स्टोरी (2024): बजट 15-20 करोड़, फ्लॉप।
  • पीएम नरेंद्र मोदी (2019, री-रिलीज़ 2024): बजट 20 करोड़, फ्लॉप।
इस सलिसिले में केवल "कश्मीर फाइल्स" और "द केरल स्टोरी" हिट रहीं। यह दिखाता है कि दर्शक प्रोपेगैंडा को ज्यादातर रिजेक्ट कर रहे हैं।

हिटलर की राह

फ़िल्मों का प्रोपेगैंडा के लिए इस्तेमाल कभी हिटलर ने भी किया था। नाज़ी जर्मनी में जोसेफ गोएबल्स की प्रोपेगैंडा मिनिस्ट्री ने फिल्मों का जमकर इस्तेमाल किया। "ट्रायम्फ ऑफ द विल" (1935) ने हिटलर को भगवान जैसा दिखाया, और "डेर सिग डेस ग्लॉबेंस" (1933) ने यहूदियों को शैतान बनाया। हिटलर ने कहा, "प्रोपेगैंडा को आर्टिस्टिक बनाओ ताकि लोग बिना शक स्वीकार करें।" इन फिल्मों को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बैन किया गया। विवेक की "फाइल्स" सीरीज उसी पैटर्न को फॉलो करती है – इतिहास को तोड़-मरोड़कर नफरत फैलाना। लेकिन अब जनता इसे नकार रही है।
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शिंडलर्स लिस्ट

ऐसा नहीं कि अतीत में हुए अत्याचारों पर फ़िल्में बनी नहीं, या बननी नहीं चाहिए। सवाल मक़सद का है। स्टीवन स्पीलबर्ग की "शिंडलर्स लिस्ट" (1993) हिटलर के होलोकॉस्ट पर आधारित है, जिसमें ऑस्कर शिंडलर ने 1,200 यहूदियों को बचाया। यह 7 ऑस्कर जीतने वाली मास्टरपीस है। फिल्म नाज़ी अत्याचार (क्राको गेटो, प्लास्ज़ोव कैंप) दिखाती है, लेकिन किसी समुदाय को टारगेट नहीं करती। यह नाज़ी विचारधारा की निंदा करती है, और मानवता को महत्वपूर्ण बताती है।

भारत के विभाजन में 10-12 लाख लोग मारे गए, और 1.5-2 करोड़ विस्थापित हुए। अगर हर समुदाय अपनी "फाइल्स" बनाने लगे तो देश का क्या बनेगा, समझा जा सकता है। इतिहास की ग़लतियों के पाठ का मतलब उससे सबक़ लेना है। विभाजन के समय जिस नफ़रत ने देश में आग लगाई थी, उसे "द बंगाल फाइल्स" जैसी फ़िल्में 2025 में फिर सुलगाना चाहती हैं। भारत की जनता अब इस प्रोपेगैंडा को समझने लगी है। फ़िल्म एक कला माध्यम है। कला का मक़सद मानवता पर विश्वास बढ़ाना है। जो कला नफ़रत फैलाये वह कला नहीं हो सकती। पर यह समझने के लिए वास्तव में जिस ‘विवेक’ की ज़रूरत है, वह विवेक अग्निहोत्री के पास नहीं है। नफ़रती फ़िल्मों का पिटना भारत में नफ़रती राजनीति के अंत के शुरुआत का भी संकेत है।