नितिन और चेतन संदेसरा बंधुओं पर लगभग 14000 करोड़ रुपये (1.6 अरब डॉलर) की सरकारी बैंकों में ठगी का आरोप है। गुजरात स्थित उनकी कंपनी स्टर्लिंग बायोटेक लिमिटेड के जरिए इन्होंने बैलेंस शीट में हेराफेरी की, टर्नओवर को बढ़ाकर दिखाया और सैकड़ों शेल कंपनियों के माध्यम से कर्ज की राशि को निजी वैभव में बदल दिया। बॉलीवुड की शानदार पार्टियाँ, निजी जेट, विदेशी निवेश- सब कुछ बैंक के पैसों से।

सीबीआई और ईडी की जाँच बताती है कि 2004-2012 के बीच लोन को व्यवसाय विस्तार के नाम पर लिया गया, लेकिन उसे डायवर्ट कर दिया गया। यह कोई साधारण व्यापारिक गलती नहीं थी; यह सुनियोजित लूट थी जिसे नियामकीय अंधेरे ने संभव बनाया। 2017 में जब शिकंजा कसा, तो दोनों भाई अल्बानिया के पासपोर्ट (जिनके बारे में रिश्वत की बातें हैं) लेकर नाइजीरिया भाग गए। वहाँ उनकी कंपनी स्टर्लिंग ऑयल अब नाइजीरिया के कुल राजस्व का 2.5% देती है। यानी भारत में अपराध करके विदेश में राज करते हैं।

राजनीतिक संरक्षण : सत्ता और अपराध का घालमेल

संदेसरा बंधुओं की कहानी बिना राजनीतिक कनेक्शन के अधूरी है। यूपीए शासन में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल से उनके गहरे संबंध थे। ईडी ने 2020 में पटेल से कई बार पूछताछ की थी क्योंकि उनके परिवार को स्टर्लिंग कंपनियों से लोन और निवेश मिला था। कहा जाता है कि पटेल के प्रभाव से ही बैंकों ने आँखें मूंदकर बड़े-बड़े कर्ज मंजूर किए।

2014 के बाद भाइयों ने खुद को “राजनीतिक प्रताड़ना का शिकार” बताया और दावा किया कि मोदी सरकार उनके कांग्रेस कनेक्शन की वजह से बदला ले रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि गुजरात में 1995 से बीजेपी की ही सरकार है और शुरुआती कर्ज वहीं मंजूर हुए थे। राकेश अस्थाना जैसे विवादास्पद अधिकारियों से भी उनके तार जुड़े बताए जाते हैं। यानी दोनों पार्टियों के दौर में संरक्षण मिलता रहा। यह भारत के क्रोनी कैपिटलिज्म का क्लासिक उदाहरण है- नेता संरक्षण देते हैं, उद्योगपति चंदा देते हैं, और जनता का पैसा डूबता है।

2025 का सेटलमेंट : व्यावहारिकता या न्याय का मखौल?

23 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया: 5700 करोड़ रुपये (कुल बकाया का लगभग एक-तिहाई) दिसंबर 2025 तक जमा करने पर सारे आपराधिक मुकदमे खत्म हो जाएँगे और भाई भारत लौट सकेंगे। ईडी ने 14,521 करोड़ की संपत्ति कुर्क की थी- नाइजीरिया के तेल खदान से लेकर गल्फस्ट्रीम जेट तक।

समर्थक इसे 'व्यावहारिक समाधान' बता रहे हैं, लेकिन यह स्पष्ट रूप से चुनिंदा न्याय है। भगोड़ा आर्थिक अपराधी कानून (2018) में सेटलमेंट का प्रावधान है, लेकिन उसका मकसद अपराधी को सजा से पूरी तरह मुक्त करना नहीं था।

यह संदेश देता है कि भाग जाओ, विदेश में कारोबार खड़ा कर लो, फिर मोल-भाव करके साफ बच निकलो।

विजय माल्या को ऐसा मौका क्यों नहीं मिला?

विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस की कहानी भी यही है- 9000 करोड़ का डिफॉल्ट, पैसा डायवर्ट, 2016 में लंदन भागना। माल्या भी कहते हैं कि उन्होंने 14000 करोड़ से ज़्यादा की राशि वापस कर दी है। उन्होंने भी कई बार सेटलमेंट ऑफर दिया, लेकिन बैंकों ने ठुकरा दिया। ब्रिटेन की अदालत ने 2018-20 में प्रत्यर्पण को मंजूरी दी, लेकिन 2025 नवंबर तक माल्या जमानत पर हैं और एक “गोपनीय कानूनी प्रक्रिया” चल रही है (शायद शरण की अर्जी)।

अंतर कहाँ है?

  1. भूगोल : नाइजीरिया ने भारत के प्रत्यर्पण अनुरोध को “राजनीतिक” बताकर खारिज कर दिया। ब्रिटेन संधि से बंधा है, इसलिए पूरी तरह मना नहीं कर सकता।
  2. कारोबार का दबाव : संदेसरा की नाइजीरियाई कंपनी भारत को कच्चा तेल बेचती है — इसका मतलब आर्थिक दबाव डाला जा सकता था।
  3. अदालती रणनीति : संदेसरा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर सारे केस रोके रखे और सेटलमेंट प्रस्ताव रखा। माल्या का केस प्रत्यर्पण की राह पर है, इसलिए सेटलमेंट का दायरा सीमित है।
  4. राजनीतिक वजन : माल्या के कर्नाटक-कांग्रेस कनेक्शन संदेसरा के अहमद पटेल वाले कनेक्शन जितने गहरे नहीं माने गए।
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न्याय का दोहरा मापदंड

संदेसरा बंधुओं का सेटलमेंट भले ही पैसा वापस लाए, लेकिन यह भगोड़ा आर्थिक अपराधी कानून की भावना पर करारी चोट है। यह संदेश जाता है कि अगर आपके पास अच्छे वकील, विदेशी कारोबार और सही राजनीतिक इतिहास हो, तो भारत में अरबों की ठगी करके भी सौदेबाजी से बच निकला जा सकता है।

विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी जैसे दूसरे भगोड़े अभी भी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। यह साबित करता है कि भारत में आर्थिक अपराधों के लिए न्याय एकसमान नहीं है- वह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहाँ भागे, किससे संबंध हैं और कितना मोल-भाव कर सकते हैं।

असली पीड़ित कौन? सार्वजनिक बैंक और आम नागरिक, जिनके टैक्स के पैसे से ये घपले भरते हैं। जब तक कानून में सख्ती और अंतरराष्ट्रीय सहयोग नहीं बढ़ेगा, तब तक ऐसे “सेटलमेंट” न्याय नहीं, सौदेबाजी कहलाएँगे।