आपातकाल के पचास वर्ष पूरे होने पर एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र संदेह के गहरे वातावरण में फंस गया है। अब तक ऐसा लगता था कि भारतीय समाज और लोकतंत्र अपने भीतर बहुसंख्यकवादी हो चला है और यही वजह है कि वह लगातार पिछले तीन आम चुनावों से भारतीय जनता पार्टी को सत्ता सौंपता जा रहा है। यही भी माना जा रहा था कि इस देश के शासक वर्ग ने कॉरपोरेट के साथ मिलकर राजनीति का ऐसा आख्यान खड़ा कर दिया है कि लोग एक किस्म के अधिनायकवादी नेतृत्व और हिंदुत्ववादी दल को पसंद करने लगे हैं। 


भले ही इस काम में वर्तमान के प्रति झूठ, पूर्वाग्रह और इतिहास की दुराग्रहपूर्ण व्याख्या की मदद ली जा रही हो। प्राचीन इतिहास को स्वर्ण युग, मध्ययुगीन इतिहास को अंधकार युग और आधुनिक युग में राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व को एक दूसरे से भिड़ाकर दागदार बनाने की कोशिशों ने पूरे भारतीय समाज को गहरे अविश्वास और भ्रम में डाल रखा है। लेकिन वास्तव में पूरे समाज के दुराग्रही हो जाने का आभास चोरी, झूठ और छल के आधार पर निर्मित किया गया लगता है वरना जनता के लोकतांत्रिक सोच का संतुलन इतना भी नहीं बिगड़ा है।