मध्य प्रदेश में कमलनाथ की अगुवाई में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा, सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री की गद्दी भी कमलनाथ को ही सौंपी। राजस्थान में कांग्रेस के अध्यक्ष थे सचिन पायलट। पायलट की अगुवाई में चुनाव लड़ा गया। चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली अशोक गहलोत को। मध्य प्रदेश में कमलनाथ को चुनाव से महज 9 महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बना कर कमान सौंपी गई थी। लेकिन राजस्थान में सचिन पिछले 5 साल से अध्यक्ष थे।
पायलट को राजस्थान में पार्टी की कमान 2013 में तब सौंपी गई थी, जब अशोक गहलोत की अगुवाई में राजस्थान में कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई थी और पार्टी महज़ 21 सीटों पर सिमट गई थी। पायलट की अगुवाई में राजस्थान में कांग्रेस संगठित हुई। पंचायत, निकायों से लेकर ज़्यादातर उपचुनाव जीते। पायलट की सबसे बड़ी सफलता रही इसी साल हुए अजमेर और अलवर लोकसभा सीट का उपचुनाव और मांडलगढ़ विधानसभा सीट का उपचुनाव। पार्टी को तीनों जगह जीत मिली।

सचिन को राहुल पर भरोसा था

सचिन पायलट कई दफ़ा अनौपचारिक बातचीत में कह भी चुके थे कि राहुल गाँधी ने उन्हें राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए भेजा। राहुल गाँधी की पसंद थे सचिन पायलट। ख़ुद राहुल गाँधी राजस्थान में रैलियों में कई दफ़ा यह ज़ाहिर कर चुके थे। फिर पायलट को राहुल गाँधी की दोस्ती पर भी भरोसा था। 
विधानसभा चुनाव की तारीखों के एलान से पहले राहुल गाँधी ने जब जयपुर में रोड शो किया तो अशोक गहलोत पोस्टरों से ग़ायब थे। राहुल गाँधी के चुनाव के दौरान रोड शो और रैलियों में भी कमोबेश यही हाल था। मतलब साफ़ था - राजस्थान में कांग्रेस के कार्यकर्ता, नेता और कुछ हद तक जनता भी मान बैठी थी कि मुख्यमंत्री तो सचिन पायलट ही बनेंगे। फिर ऐसा क्या हुआ कि राजस्थान के ‘पायलट’ गहलोत बन गए और सचिन को सहायक पायलट बनना मंज़ूर करना पड़ा।

राहुल को पसंद नहीं थे गहलोत

ख़बर यह है कि गहलोत जब 2008 से 2013 तक मुख्यमंत्री थे, तब यह कहा जाता था कि राहुल गाँधी उन्हें पसंद नहीं करते थे। इस चुनाव में धौलपुर से दौसा तक के रोड शो के दौरान एक चुनावी रैली में राहुल गाँधी ने पिछली गहलोत सरकार की यह कह कर आलोचना की थी कि तब मंत्री जनता से मिलते नहीं थे, इस बार ऐसा नहीं होगा। मंत्री 24 घंटे जनता की सेवा करेंगे, उनका दरवाज़ा जनता के लिए खुला रहेगा। तब राजस्थान में यह संदेश गया कि राहुल गाँधी की पसंद अशोक गहलोत नहीं, सचिन पायलट हैं।

गुजरात ने बदला खेल

फिर गहलोत कैसे बने मुख्यमंत्री की पंसद। इसको समझने के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव में झाँकना होगा। गुजरात में कांग्रेस बेहद कमजोर और गुटों में बँटी थी। शंकर सिंह वाघेला ख़ुद को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करवाने और अपनी अगुवाई में चुनाव कराने की माँग पर अड़े थे। धमकी दी थी कि कांग्रेस को दो-फाड़ कर देंगे। ऐसे हालात में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को तलाश थी ऐसे प्रभारी नेता की जो गुजरात में कांग्रेस को संगठित कर सके। उस वक़्त अशोक गहलोत फ़्री थे। राजस्थान में उनके पास कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी। गुजरात में कांग्रेस के नेता अहमद पटेल, गहलोत के दोस्त हैं। पटेल ने राहुल गाँधी को गुजरात के प्रभारी के रूप में अशोक गहलोत का नाम सुझाया। तर्क दिया कि वे पड़ोसी राज्य के नाते गुजरात को समझते हैं। राहुल गाँधी ने भरोसा कर गहलोत को गुजरात का चुनाव प्रभारी बना दिया।
अशोक गहलोत ने पहला काम किया शंकर सिंह वाघेला का पार्टी छोड़ने का डर निकलवा कर। फिर राजस्थान समेत पड़ोसी राज्यों से नेताओं और कार्यकर्ताओं की फ़ौज उतार दी। बूथ लेवल पर कांग्रेस को मज़बूत किया। पहली बार गुजरात में राहुल गाँधी को सॉफ़्ट हिंदू कार्ड का फ़ॉर्मूला अशोक गहलोत ने ही दिया। राहुल गाँधी का टेंपल रन फ़ॉर्मूला कांग्रेस के लिए गुजरात में कारगर रहा।
गहलोत ने दूसरा काम यह किया कि राहुल गाँधी को आम आदमी से जोड़ने और मीडिया की सुर्खियों में बनाए रखने के लिए ढाबों और रेस्तराँ में जनता के बीच खाना और नाश्ता कराया। इससे राहुल गाँधी की इमेज का अचानक मेकओवर हुआ। फिर गुजरात के कारोबारियों से कांग्रेस को फ़ंड दिलवाया। कांग्रेस लड़ाई में दिखने लगी। अल्पेश ठाकोर को जोड़ ओबीसी कार्ड खेला। दलितों को भी कांग्रेस से जोड़ने में मदद की। कांग्रेस चुनाव हार गई लेकिन सिर्फ शहरों में। ग्रामीण गुजरात में विजेता बन कर उभरी। ख़ास कर राजस्थान से जुड़े गुजरात के बनासकाँठा समेत कई ज़िलों में बीजेपी को बुरी तरह शिकस्त दी। अचानक गहलोत हीरो बनकर उभरे और राहुल गाँधी की पंसद बन गए।
गहलोत की सबसे बड़ी ताक़त है सोनिया गाँधी का विश्वासपात्र होना। वे इंदिरा गाँधी से लेकर राजीव गाँधी और सोनिया गाँधी तक गाँधी परिवार के विश्वासपात्र रहे। सिर्फ़ राहुल का भरोसा जीतना था। गुजरात चुनाव ने काफ़ी हद तक यह काम कर दिया। 

संगठन महासचिव बन गए गहलोत

कांग्रेस पार्टी की कमान सँभालने के बाद सोनिया गाँधी को तलाश थी राहुल गाँधी के लिए एक संगठन महासचिव की। जनार्दन द्धिवेदी, सोनिया गाँधी की पसंद थे लेकिन राहुल गाँधी की नहीं। ऐसे में सोनिया गाँधी की नज़र अशोक गहलोत पर पड़ी। गुजरात चुनाव में राहुल गाँधी के मेकओवर के अशोक गहलोत के काम से सोनिया खुश थीं। सोनिया गाँधी ने राहुल से बात की। गहलोत दिल्ली में संगठन महासचिव के ताक़तवर पद पर बैठ गए। मौक़े का फ़ायदा उठा कर गहलोत ने राजस्थान में कभी चुनौती रहे सी. पी. जोशी को न केवल केंद्रीय कार्यसमिति से बाहर करवाया बल्कि महासचिव पद से भी विदाई करवा दी। कांग्रेस कार्यसमिति में जोशी के विरोधी और मेवाड़ के आदिवासी नेता रघुवीर मीणा को जगह दिलवाई।
इसके बाद पूरे राजस्थान में यह संदेश गया कि अशोक गहलोत गाँधी परिवार के बेहद क़रीबी बन गए हैं। उधर, सचिन पायलट, अशोक गहलोत को ले कर ज़्यादा परेशान नहीं थे। यहीं से बाज़ी पलटनी शुरू हुई। अशोक गहलोत ने दिल्ली में ताक़तवर बनने के बाद राजस्थान पर फ़ोकस किया। राजस्थान के दौरे करने लगे। हर ज़िले में अपने समर्थकों को सक्रिय किया। संपर्क बनाना शुरू किया। जयपुर में गहलोत के घर भीड़ जुटने लगी।

गहलोत-पायलट में शुरू हुआ घमासान

विधानसभा चुनाव के नज़दीक आते ही मुख्यमंत्री के तौर पर गहलोत ने अपना नाम आगे करना शुरू किया। यहीं से सचिन पायलट औऱ अशोक गहलोत में घमासान शुरू हो गया। एक दफ़ा तो मीडिया ने जब गहलोत से सीएम फ़ेस को ले कर सवाल पूछा तो उन्होंने सीधा अपना चेहरा आगे करते हुए कहा कि उनका तो परखा हुआ चेहरा है। यह तक कहा कि ख़लक़ की आवाज़ ही ख़ुदा की आवाज़ है। ख़ुद को जनता की पसंद बता दिया। सचिन उस वक्त ऑस्ट्रेलिया गए हुए थे। आते ही राहुल गाँधी के सामने आपत्ति की और गहलोत को मुँह बंद करना पड़ा था।
अगली जंग हुई टिकट बँटवारे को ले कर। गहलोत जोधपुर डिविजन में अकेले टिकट बाँटना चाहते थे। लेकिन सचिन पायलट ने बतौर प्रदेश अध्यक्ष उनकी चलने नहीं दी। गहलोत ने फिर पायलट के गढ़ अजमेर में दख़ल देने की कोशिश की। टिकट बँटवारे में दोनों के बीच चली जंग का असर यह हुआ कि क़रीब दो दर्ज़न सीटों पर जीतने वाले चेहरों के बजाय पायलट या गहलोत ने अपनी पसंद के चेहरों को उतार दिया। तब तक कांग्रेस के पक्ष में ज़बरदस्त हवा थी।
यहीं से तय हो गया कि राजस्थान में कांग्रेस को सर्वे के अनुमान के हिसाब से सीटें नहीं मिलेंगी। नतीजे आते ही दिल्ली में अशोक गहलोत को सीएम बनाने के लिए अहमद पटेल की अगुवाई में कांग्रेस के सीनियर नेताओं की एक टीम ने काम करना शुरू कर दिया। अहमद पटेल ने हालाँकि मतदान से एक सप्ताह पहले ही जयपुर में कांग्रेस दफ़्तर में वॉर रुम बना कर और सीधे प्रत्याशियों से संपर्क करना शुरू कर दिया था। साथ में बाग़ियों से भी संपर्क किया गया। संदेश दिया गया कि बाग़ी अशोक गहलोत से भरोसा चाहते थे, न कि पायलट से।

गहलोत के लिए पटेल ने की लामबंदी

सचिन पायलट इन सबसे वाक़िफ़ थे। नतीजों से पहले ही पायलट ने राहुल गाँधी से निष्पक्ष पर्यवेक्षक भेजने की माँग की। इसी वजह से कर्नाटक के प्रभारी के. सी. वेणुगोपाल को भेजा गया। पायलट नहीं चाहते थे कि गहलोत की पसंद के सीनियर नेता पर्यवेक्षक बन कर आएँ। जिस वक़्त जयपुर में वेणुगोपाल ने मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए विधायकों की पर्चियाँ लीं, गहलोत गुट ने पार्टी अलाकमान से शिकायत की कि वेणुगोपाल विधायकों पर पायलट के लिए दबाव बना रहे हैं।
राहुल गाँधी ने शक्ति ऐप के ज़रिए विधायकों से पसंद पूछी। इसमें गहलोत पायलट से आगे निकल गए। लेकिन सचिन ने राहुल के सामने दावा कर दिया कि उनके पास बहुमत है। राहुल की पसंद सचिन ही थे। ऐसे में गहलोत की ओर से मोर्चा सँभाला अहमद पटेल ने। पटेल ने पहले सोनिया गाँधी और फिर प्रियंका गाँधी को अशोक गहलोत के नाम के लिए राज़ी किया। वजह गिनाई लोकसभा चुनाव।
कहा गया कि पायलट गुर्जर हैं। अगर पायलट को सीएम बनाया गया तो पार्टी का परंपरागत वोट बैंक मीणा समुदाय नाराज़ हो सकता है। राजस्थान में जातीय असंतुलन का नुक़सान लोकसभा चुनाव में हो सकता है। कहा गया कि गुर्जर मुख्यमंत्री बनने से दूसरी जातियों में भय हो सकता है। दूसरा तर्क दिया गया कि गहलोत अनुभवी हैं। जनता में लोकप्रिय भी हैं। जाति का ठप्पा नहीं है। सभी जातियों में स्वीकार्य हैं। उससे भी अधिक गहलोत की फ़ंड मैनेजर की ताकत जिसकी कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक ज़रूरत है।
एक और दलील दी गई कि पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। ऐसे में निर्दलीयों औऱ अन्य दलों के सहयोग से सरकार चलानी पड़ेगी। गहलोत 2008 से 2013 तक ऐसी सरकार चला चुके हैं। इस बीच गहलोत की टीम ने जयपुर में निर्दलीयों को बुला कर सीएम के लिए गहलोत को समर्थन दिलवाना शुरू करवा दिया। सचिन पायलट ने भी कोशिश की। हनुमान बेनीवाल से समर्थन में बयान दिलवाकर। बेनीवाल ने धमकी दी कि गहलोत को सीएम बनाया तो वे विरोध करेंगे। आरोप लगा कि गहलोत जाट विरोधी हैं।
एक और पेच था। रॉबर्ट वाड्रा ने राजस्थान में ज़मीन अशोक गहलोत के पिछले कार्यकाल में ही ख़रीदी थी। अभी भी वाड्रा केस सुलझा नहीं है। बीजेपी लगातार बीकानेर ज़मीन घोटाले में वाड्रा का नाम उछालती रही। पुलिस और ईडी की फ़ाइलें भी अक्सर खुल जाती हैं। ऐसे में प्रियंका गाँधी का झुकाव भी पायलट के बजाय गहलोत की ओर हो गया।

पायलट ने खेला इमोशनल कार्ड

माँ-बेटी के आगे बेटे को अपनी पसंद, सचिन को पीछे कर गहलोत के नाम पर मुहर लगानी पड़ी। पायलट को जब लगा, वे बाज़ी हार रहे हैं तो पायलट ने रात के साढ़े दस बजे राहुल गाँधी से मिल कर इमोशनल कार्ड खेला। कहा, पाँच साल पहले उनके पास दो विकल्प थे - पत्नी या पार्टी। पार्टी को चुन कर वे राजस्थान गए, पाँच साल काम किया। इसका असर उनकी गृहस्थी पर हुआ। आप गहलोत को सीएम बना रहे थे तो मुझे आपत्ति नहीं थी। मुझे अब राजस्थान में कांग्रेस अध्यक्ष पद से मुक्त कर दीजिए। मैं अपने परिवार को समय देना चाहता हूँ। राजस्थान में काम नहीं करूँगा। फिर रोने लगे।
राहुल गाँधी ने जयपुर जा रहे गहलोत को एयरपोर्ट से वापस बुला लिया। पेच फिर फँस चुका था। राहुल गाँधी की सहानूभूति अब सचिन के साथ थी। वे सचिन का पक्ष रखने लगे। रास्ता निकालने के लिए राहुल गाँधी ने राजस्थान कांग्रेस के नेता और गाँधी परिवार के नज़दीकी भँवर जितेंद्र सिंह को बुलाया। भँवर जितेंद्र सिंह ने सचिन पायलट से बात कर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की। इस बीच पायलट ने राहुल गाँधी को सुझाव दिया कि उन्हें और गहलोत दोनों को छोडकर भँवर जितेंद्र सिंह को सीएम बना दें।
लेकिन प्रियंका गाँधी समेत गाँधी परिवार ने इसे इस आधार पर ठुकरा दिया कि भँवर जितेंद्र विधायक नहीं हैं। भँवर जितेंद्र सिंह ने सुझाया कि सचिन उप-मुख्यमंत्री बनाए जाएँ, साथ में प्रदेश अध्यक्ष भी रहें। एक शर्त और कि मंत्रिमंडल के गठन में आधे मंत्री और ख़ुद अपने मंत्रालय चुनने का अधिकार पायलट को मिले। गहलोत कैंप के सामने यह प्रस्ताव रखा। सीएम की कुर्सी हाथ से फिसलते देख गहलोत ने हाँ कर दी। गाँधी परिवार भी इस फ़ॉर्मूले पर तैयार हो गया। फिर क्या था, मुहर लग गई। अब गहलोत सीएम और पायलट डिप्टी सीएम बन गए। लेकिन कांग्रेस की चुनौती ख़त्म नहीं हुईं। सिर्फ संघर्ष विराम है।