बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि अल्पसंख्यक वोटों का बंटवारा विपक्ष के लिए कितना घातक साबित हो सकता है। पूर्वी बिहार के सीमांचल क्षेत्र में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) की अप्रत्याशित उछाल ने मुस्लिम बहुल सीटों पर महागठबंधन (MGB) के उम्मीदवारों को पटखनी दे दी। इस वोट विभाजन का फायदा सीधे एनडीए को मिला, जिससे भाजपा-नीतीश कुमार गठबंधन ने कई महत्वपूर्ण सीटें हासिल कर लीं।

चुनाव विश्लेषण से पता चलता है कि AIMIM ने 25 उम्मीदवार उतारे, जिनमें अधिकांश सीमांचल के थे। पार्टी ने नौ सीटों पर बढ़त बनाई या जीत दर्ज की, जहां मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत से अधिक है। इनमें से अधिकतर मामलों में AIMIM ने महागठबंधन के प्रत्याशियों को हराया। किशनगंज में कांग्रेस ने एकमात्र सीट जीती, जबकि RJD और CPI(ML)-लिबरेशन को कोई सफलता नहीं मिली। उदाहरण के लिए, प्रणपुर सीट पर वोट बंटवारे के कारण भाजपा आगे रही, जबकि बालारामपुर में LJP (राम विलास) को फायदा हुआ।

सीमांचल के अलावा, जहां मुस्लिम आबादी 25-40 प्रतिशत है, वहां NDA ने 13 में से 12 सीटें जीत लीं। भाजपा को 6, JD(U) को पांच और लोकजनशक्ति पार्टी (रामविलास) को एक सीट मिली। गठबंधन में केवल RJD को एक सीट पर सफलता मिली। AIMIM का वोट शेयर नौ विधानसभाओं में 15 प्रतिशत से अधिक और आठ में 5-15 प्रतिशत रहा, जो MGB की हार का मुख्य कारण बना। 2020 के चुनावों की यादें ताजा हो गईं, जब AIMIM ने पांच सीटें जीती थीं, लेकिन चार विधायक RJD में शामिल हो गए थे।

क्या थी ओवैसी की रणनीति

AIMIM की रणनीति ने मुस्लिम समुदाय में सेकुलर दलों के प्रति असंतोष को भुनाया। पार्टी ने इस बात के लिए ज़ोरदार अभियान चलाया कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व की कमी है और सेकुलर पार्टियां मुस्लिमों को राजनीतिक हिस्सेदारी देने को तैयार नहीं है। इसके अलावा सीमांचल में एआईएमआईएम की संगठनात्मक मजबूती ने भी इसमें भूमिका निभाई। बिहार के मुस्लिम वोटों की एकजुटता भाषाई  विविधता, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और क्षेत्रीयता के कारण एकजुट वोटिंग के बावजूद मुश्किल भरी रही। मुस्लिम इलाकों में जन सुराज पार्टी जैसे नए खिलाड़ियों ने भी वोटों को और बांटा।


इस नतीजे से साफ है कि महागठबंधन को अल्पसंख्यक वोटों को एकजुट करने की रणनीति में चूक हुई। फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम (यानी पहले नंबर की पसंद का चुनाव) में वोट बंटवारा हमेशा बड़े दलों को फायदा पहुंचाता है। विपक्ष की खास समुदायों को लेकर कोई व्यापक रणनीति थी ही नहीं। NDA की जीत ने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी है, जहां AIMIM जैसे क्षेत्रीय दल ने अब पैर जमा लिए हैं। आखिर क्या वजह है कि जिस पार्टी के 2020 में पांच जीते हुए विधायकों में से चार टूट कर आरजेडी-कांग्रेस में चले गए, उस पार्टी ने फिर से वापसी की है। इसका आशय है कि सीमांचल के वोटरों ने वोट देने का फैसला किसी और आधार पर किया है। 

एआईएमआईएम की पैदाइश तेलंगाना में हुई थी। तेलंगाना को छोड़कर ओवैसी की पार्टी ने उत्तर प्रदेश, गुजरात या दिल्ली जैसे बड़े राज्यों में कभी भी 1% वोट का आंकड़ा पार नहीं किया है। लेकिन बिहार एक अपवाद बन गया है, जहां पार्टी ने 2020 में 1.24% के थोड़े बढ़े हुए वोट शेयर के साथ सफलता का स्वाद चखा था। इस बार यानी 2025 के चुनाव में अभी तक चुनाव आयोग के मुताबिक उसका वोट शेयर करीब 2 फीसदी पहुंच गया है।

महागठबंधन ने एआईएमआईएम को साथ क्यों नहीं लिया

इस चुनाव की घोषणा से पहले ही एआईएमआईएम ने आरजेडी से कई बार संपर्क करके महागठबंधन में शामिल करने की मांग की, ताकि वोट न बंट सकें। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ने तेजस्वी यादव के घर पर जाकर ढोल नगाड़ों के साथ प्रदर्शन किया और गठबंधन में शामिल करने की मांग की थी। हालांकि महागठबंधन के सूत्रों का उस समय यह कहना था कि ओवैसी की पार्टी को अगर शामिल किया गया या समझौता किया गया तो हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण होगा और बीजेपी को फायदा होगा। आईएमआईएम के राष्ट्रीय प्रवक्ता आदिल हसन ने कहा "हमने राजद से संपर्क किया क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि वोट बंटें। इसलिए, हमने इंडिया गठबंधन के साथ गठबंधन करने के लिए यह प्रस्ताव रखा।"

आदिल हसन ने कहा जो लोग तेजस्वी यादव को सलाह दे रहे थे, वे नहीं चाहते थे कि ऐसा हो। मैं कांग्रेस पार्टी से भी पूछना चाहता हूँ कि वे कौन सी "मोहब्बत की दुकान" चला रहे थे? 18% बिहार के मुसलमान कहाँ जाएँ, जब सीटें जिताकर भी उनकी आवाज़ को प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है?" आदिल ने कहा, "विपक्षी दल बिहार में भाजपा या एनडीए को पूरी तरह से हरा नहीं पाए हैं। अगर आप उन्हें नहीं हरा सकते तो अपना अहंकार छोड़ दीजिए।" उन्होंने कहा, "हमने 2020 में जो पांच सीटें जीतीं थीं, उनमें सीमांचल में हमने भाजपा उम्मीदवारों को हराया था, भाजपा वहां दूसरे नंबर पर थी।"