बिहार चुनाव में महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को आधिकारिक रूप से मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया है। अब राजनीतिक निगाहें एनडीए पर हैं- क्या भाजपा-जेडीयू गठबंधन भी अपना चेहरा घोषित करेगा?
तेजस्वी प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर इंडिया गठबंधन यानी महागठबंधन ने इस मुद्दे पर गेंद अब एनडीए के पाले में डाल दिया है। एनडीए लगातार कांग्रेस और आरजेडी पर इस बात को लेकर हमलावर थी कि उनका मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा और उसकी तरफ़ से यह भी कहा जा रहा था कि दरअसल कांग्रेस पार्टी नहीं चाहती कि तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री का चेहरा बनें।
महागठबंधन ने न केवल तेजस्वी यादव के नाम पर एनडीए के सवाल को ख़त्म कर दिया बल्कि उल्टे एनडीए में मुख्यमंत्री के चेहरे पर ऐसा सवाल खड़ा कर दिया जो बहस का मुद्दा बनेगा और इस बात को लेकर भारतीय जनता पार्टी और जेडीयू में अंदरूनी तनाव भी पैदा कर सकता है। गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में नीतीश कुमार के सीएम फेस पर पूछे गए एक सवाल पर कहा था कि 'मैं मुख्यमंत्री नहीं बनाता। मुख्यमंत्री बनाने का काम विधायकों का है। हम नीतीश कुमार के चेहरे पर चुनाव लड़ रहे हैं।' अमित शाह के बयान के बाद और सवाल उठने लगे कि आख़िर एनडीए नीतीश को सीएम चेहरा घोषित करने से बच क्यों रहा है?
तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाने के लिए आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस की खास बात यह रही कि उसके लिए लगाए गए बैनर में केवल तेजस्वी यादव की तस्वीर थी। भारतीय जनता पार्टी और जदयू के नेताओं ने यह जरूर सवाल खड़ा किया कि उस बैनर पर राहुल गांधी की तस्वीर या किसी और नेता की तस्वीर क्यों नहीं थी लेकिन शायद महागठबंधन की ओर से इस तस्वीर से यह संदेश दिया गया कि उनके पास तेजस्वी यादव के अलावा मुख्यमंत्री का चेहरा कोई और नहीं है और इस मुद्दे पर घटक दल एकमत हैं। दिलचस्प बात यह है कि उस बैनर में सभी घटक दलों के चुनाव चिह्न ज़रूर मौजूद थे।
यानी यह कहा जा सकता है कि तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री के चेहरा के रूप में पेश करने के मामले में महागठबंधन ने बेहद आक्रामक रुख अपनाया है। पहले यह बात कही जा रही थी कि शायद किसी रणनीति के तहत कांग्रेस पार्टी तेजस्वी यादव के चेहरे को सामने लाना नहीं चाहती लेकिन अब यह बात सही है कि आर या पार तेजस्वी यादव के चेहरे पर ही होगा।
मुकेश सहनी उपमुख्यमंत्री का चेहरा
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किया गया और एक और संभावित उपमुख्यमंत्री के होने की भी चर्चा की गई। इस घोषणा से यह तय पाया कि मुकेश सहनी हालांकि अपनी मर्जी के मुताबिक सीट संख्या नहीं पा सके लेकिन अपने नाम को बतौर उपमुख्यमंत्री पेश करने की मांग पर मुहर लगवा ली।
मुकेश सहनी 2020 के विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसी ही एक प्रेस कॉन्फ्रेंस से उठकर चले गए थे और बाद में भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता कर एनडीए में शामिल हो गए थे।
पिछले चुनाव में हालांकि मुकेश सहनी खुद अपना चुनाव हार गए थे लेकिन उनकी पार्टी से जो उम्मीदवार जीते भी वह भारतीय जनता पार्टी के नेता माने जाते थे और बाद में उन्होंने मुकेश सहनी का साथ छोड़कर भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ले ली थी। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि क्योंकि इस बार उनका नाम डिप्टी सीएम के तौर पर लिया जा चुका है इसलिए हो सकता है कि उनकी जाति का समर्थन इस बार उनके लिए और उनकी पार्टी वीआईपी के उम्मीदवारों के लिए काफी हद तक बढ़े।
इस प्रेस कांफ्रेंस के पहले यह कहा जा रहा था कि राजद अकेले घोषणाएं कर रहा है और महागठबंधन की ओर से कोई साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं हुई है। इस बात को इस दलील के तौर पर भी पेश किया जा रहा था कि महागठबंधन में सब कुछ ठीक नहीं है और जिस तरह कुछ जगहों पर फ्रेंडली फाइट होने की बात की जा रही है उससे उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं होगा।
इससे पहले राजद की ओर से ही दो बड़ी घोषणाएँ की गईं जिनमें हर घर के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की बात कही गई थी और बुधवार को तेजस्वी यादव ने एक बार फिर एक बड़ी घोषणा करते हुए जीविका समूह के लिए एक बड़ा ऐलान किया। ऐसा माना जा रहा है कि अगर महागठबंधन की सरकार बनती है तो इसमें इन दो घोषणाओं का बड़ा रोल रहेगा लेकिन चूँकि वह घोषणा संयुक्त रूप से नहीं की गई थी तो बहुत से लोग यह सवाल उठा रहे थे कि क्या इन दो वादों पर महागठबंधन में आपसी खींचतान है।
कांग्रेस और राजद के बीच जो तनातनी चल रही थी उसमें बर्फ पिघलने का काम शायद अशोक गहलोत की उस मुलाक़ात ने किया जो राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के साथ पटना में हुई। उसके बाद बुधवार शाम तक यह पता चल गया कि महागठबंधन की एक साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस होगी। इससे मोटे तौर पर यह बात भी समझ में आई कि अब इनका झगड़ा कुछ हद तक सुलझ गया है और यह एक स्वर में आकर बात करने के स्थिति में आ चुके हैं।
राजद, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों और वीआईपी वाले गठबंधन को महागठबंधन कहा जाए या इसे इंडिया ब्लॉक माना जाए इस बात पर भी रोचक बहस चलती रही है। दरअसल, महागठबंधन शब्द का प्रयोग 2015 में तब हुआ था जब राजद, कांग्रेस और वामपंथी दलों के गठबंधन के साथ नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू भी शामिल हो गई थी। उसके बाद से लगातार महागठबंधन शब्द का ही इस्तेमाल हो रहा था लेकिन फिर राष्ट्रीय स्तर पर जब इंडिया ब्लॉक बना तो उसकी चर्चा ज्यादा होने लगी। बिहार में महागठबंधन का शब्द पहले से इस्तेमाल में था इसलिए अब भी ज्यादा चर्चा उसी की होती है।
महागठबंधन और इंडिया ब्लॉक के इस शाब्दिक अंतर को छोड़कर देखा जाए तो इस बार इस गठबंधन में शामिल दलों के बीच भी शुरुआत में काफी उलझनें देखी गई थीं। सीट शेयरिंग फ़ॉर्मूले को लेकर एनडीए में भी घमासान मचा था लेकिन उसने किसी न किसी तरह सीटों के बंटवारे का ऐलान कर दिया था। इसके बाद जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की तरफ से दुख प्रकट किया गया और यह भी हुआ कि नीतीश कुमार की पार्टी और चिराग पासवान की पार्टी के बीच कौन किस सीट पर लड़ेगा, इस पर भी विवाद हुआ। दूसरी तरफ़ महागठबंधन में इस बात को लेकर बहुत उलझन रही और अब तक कुछ सीटों पर फ्रेंडली फाइट की बात की जाती रही।
कांग्रेस पार्टी ने हालाँकि इसके बचाव में यह कहा कि कुछ ही सीटों पर ऐसा मामला है और फ्रेंडली फाइट होती रहती है लेकिन विपक्ष का कहना है कि जब फ्रेंड है तो फाइट कैसी और फाइट है तो फ्रेंड कैसे। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि गठबंधन की राजनीति में कुछ सीटों पर ऐसा होना कोई नई बात नहीं है लेकिन प्रतिद्वंद्वी पार्टी इस बात के बहाने हमले करने से नहीं चूकती। यह भी कहा गया कि फ्रेंडली फाइट भले ही कुछ जगहों पर हो, लेकिन इसका असर पूरे राज्य पर पड़ सकता है क्योंकि ऐसा माहौल बन जाता है कि इनमें आपसी झगड़ा है।