बिहार विधान सभा चुनाव के नतीजों से इत्तर एक नयी राजनीति की आहट साफ़ सुनायी दे रही है। बिहार के नए मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही अगले पांच सालों में एक करोड़ युवकों को नौकरी देने का फैसला हो या फिर 25 चीनी मिलें खोलने की घोषणा, साफ़ संकेत देते हैं कि नीतीश कुमार की सरकार इस बार ठोस आर्थिक विकास के रास्ते पर बढ़ना चाहती है। मंत्री परिषद की पहली बैठक में बिहार आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस मिशन बनाने की भी घोषणा की गयी। बिहार में टेक हब, डिफेंस कॉरिडोर, सेमी कंडक्टर मैन्यूफ़ेचरिंग पार्क, मेगा टेक और फिनटेक सिटी बनने का फ़ैसला भी किया गया।

बिहार वासी इस तरह की पहल का लंबे समय से इंतज़ार कर रहे थे। सरकार के इन फ़ैसलों पर विधान सभा चुनावों की छाप साफ़ दिखाई दे रही है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए को अच्छी खासी जीत भले मिल गयी लेकिन चुनाव अभियान के दौरान बिहार से मजदूरों के पलायन, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे पर जवाब देना एनडीए के नेताओं के लिए भारी पड़ रहा था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि “जंगल राज” के भय और लाभार्थी मतदाताओं ने एनडीए की जीत में अहम भूमिका अदा की। लेकिन विपक्ष उन मुद्दों को भी जनता तक पहुंचाने में कामयाब रहा जो सालों से बिहार के विकास में रुकावट बने हुए हैं। सालों बाद ये पहला चुनाव था जब जाति पर आर्थिक मुद्दे हावी रहे। चुनाव के नारे बदले बदले दिखायी दिये और चुनाव नतीजों के साथ ही नयी सरकार के लिए नया एजेंडा छोड़ गए। 

नयी सरकार के सामने अब पलायन और रोजगार बड़े मुद्दे हैं। बदतर शिक्षा व्यवस्था और बीमार अस्पतालों को लोग स्वीकार नहीं करेंगे। मंत्रिमंडल के फ़ैसले साफ़ संकेत देते हैं कि सरकार ने इन संकेतों को समझ लिया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि लाभार्थी समूह को लुभाने पर खजाना खाली कर चुकी सरकार अब अपनी नयी योजनाओं के लिए पैसा कहां से जुटाएगी। बिहार के सामने फिलहाल एक ही रास्ता दिखायी देता है। केंद्र सरकार से मदद। क्या केंद्र इतनी उदारता दिखाएगा।

बदले बदले से सरकार!

आजादी के बाद से बिहार की राजनीति कांग्रेस और समाजवादी पार्टियों के इर्द गिर्द घूमती रही है। लालू यादव और नीतीश कुमार समाजवादी पार्टियों के दो धड़े ही हैं जिनकी जमीन, जय प्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर और डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों पर टिकी है। नब्बे के दशक के बाद हिंदी पट्टी पर धीरे-धीरे बीजेपी का भगवा रंग छा गया लेकिन बिहार में उनकी सफलता नीतीश कुमार की बैसाखी पर ही टिकी रही। कम से कम वैचारिक स्तर पर तीसरी शक्ति के रूप में प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज पार्टी के उदय ने भविष्य की राजनीति को नयी दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 1990 से लेकर 2025 चुनाव पूर्व की राजनीति मुख्यतः सामाजिक न्याय की दो शक्तियों में बंटी हुई थी।

एक खेमा अधिक उग्र और आक्रामक था। जिसका नेतृत्व पहले लालू प्रसाद यादव ने किया और अब तेजस्वी यादव कर रहे हैं। इस दौर में यादव जैसे अपेक्षाकृत समृद्ध पिछड़े वर्ग ने अल्पसंख्यकों के साथ मिलकर संसाधनों पर सवर्ण वर्चस्व को चुनौती दी। दूसरा खेमा उदार और समावेशी था, जिसका नेतृत्व नीतीश कुमार ने किया। नीतीश ने ही इसे अति पिछड़ा और अति दलित का नाम दिया। यह धड़ा सवर्ण को साथ लेकर चलते हुए भी सामाजिक न्याय के रास्ते पर ही आगे बढ़ा। 

बिहार में औद्योगिक विकास के अभाव ने लोगों को वास्तविक सामाजिक न्याय से दूर रखा।

बिहार से दूर बिहारी

गुजरात या राजस्थान (मारवाड़) की तरह आम बिहारी एंटरप्रोनियर या ख़ुद उद्योग धंधा शुरू करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं रखते हैं। उन्हें नौकरी चाहिए। सरकारी या कम से कम प्राइवेट। लेकिन अनेक बिहारियों ने राज्य के बाहर जाकर बड़े उद्योग खड़े किए। अनिल अग्रवाल बिहार के ही हैं, जिनकी वेदांता कंपनी देश और दुनिया में स्टील और खनन के क्षेत्र में अग्रणी है। उनका पूंजी निवेश उड़ीसा और अन्य कई राज्यों तथा विदेश में है लेकिन बिहार में नहीं। संप्रदा सिंह की मुंबई स्थित अलकेम लेबोरेटरीज देश की शीर्ष दवा निर्माण कंपनी है। मनीष चंद्रा का पोस्टमार्क अमेरिका में एक बड़ी ई कॉमर्स कम्पनी है। सुजीत कुमार की उड़ान एक बड़ी बी टू बी कंपनी है, लेकिन अमेरिका में। किंग महेंद्र का अरिस्टो फ़र्मा भी देश की बड़ी दवा कंपनी है लेकिन उसका संचालन मुंबई, महाराष्ट्र से होता है। आख़िर बिहारी उद्योगपति बिहार में क्यों नहीं आते हैं।

1990 के बाद बिहार में सामाजिक न्याय आंदोलन तो तेज हुआ लेकिन उद्योगों का सर्वनाश भी इसी दौर में शुरू हुआ। एक समय पर देश का लगभग 36% चीनी का उत्पादन बिहार में होता था। 1990 के बाद करीब 15 चीनी मिलें बंद हो गईं और अब महज़ देश की 6 फ़ीसदी चीनी बिहार में बनती है। पटना के पास रोहतास उद्योग इसी दौर में बंद हुआ जहां एक साथ 9 कारखाने थे। अंबानी और अडानी गुजरात के हैं तो उनके औद्योगिक साम्राज्य का बड़ा हिस्सा गुजरात में ही है। तो फिर बिहार के उद्योगपति बिहार से क्यों भागते रहे हैं। इसका कारण शुद्ध रूप से राजनीतिक है। पिछले 35-40 सालों से सरकारों ने उद्योग विकास पर कभी ध्यान ही नहीं दिया।

लालू बनाम नीतीश

नीतीश ने जातियों से ऊपर उठ कर महिलाओं को पिछड़ों के अलग समूह के रूप में पहचाना जहां लालू चूक गए थे। नीतीश ने लड़कियों की शिक्षा को सर्वोपर रखा। 2007 में स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल बांटना शुरू करके नीतीश ने महिला को राजनीतिक शक्ति बनाने की पहल शुरू की। पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण ने महिलाओं की अलग राजनीतिक पहचान बनाने में मदद की। अंततः जीविका दीदी के रूप में रोजगार सृजन ने महिलाओं को आंशिक रूप से आत्म निर्भर बनने का रास्ता दिखाया। यही नीतीश की राजनीतिक पूंजी है जो उन्हें चुनाव में हार जीत से अलग पहचान देती है।

लालू का दौर (1990-2005 ) सामाजिक संघर्ष के चलते उथल पुथल से भरा हुआ था। राज्य के कुछ क्षेत्रों में नक्सलवादियों का वर्चस्व, जातीय सेनाओं का उदय और विस्तार, सामूहिक हत्या और राजनीति संरक्षित अराजक समूहों का दब दबा उनके दौर की दुःस्वप्न गाथा बन गयी। लालू ने सामाजिक न्याय आंदोलन को आगे बढ़ाया और पिछड़ों तथा दलितों को आवाज दी, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन अपराध और राजनीति का गठजोड़ भी इतना मुखर हो गया कि पुलिस और प्रशासन ठप्प दिखायी देने लगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने चुनाव अभियान में इसे ही जंगलराज का नाम दिया। लालू अब राजनीति में निष्क्रिय हैं, लेकिन उनके पुत्र तेजस्वी यादव को उसका जवाब भी देना पड़ रहा है और नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। अपराध और उद्योग साथ नहीं चलते। इसके अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। ये एक बड़ा कारण है जिसके चलते बिहारी उद्योगपतियों ने कभी बिहार की तरफ़ नहीं देखा।

प्रशांत किशोर फैक्टर

प्रशांत किशोर चुनाव में भले ही फिसड्डी साबित हुए लेकिन बिहार की उस नयी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व वो करते हैं जिसकी महत्वाकांक्षा सिर्फ़ सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय बराबरी तक सीमित नहीं हैं। वो सोशल मीडिया के दौर की उपज है और आर्थिक न्याय भी चाहते हैं जिसके लिए रोज़गार भी ज़रूरी है। उसने फ़ोन के छोटे स्क्रीन पर दुनिया को देखा है। रोजगार की तलाश में बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे, लुधियाना सब घूम लिया है और अपने राज्य में भी उसकी छाप देखना चाहता है। वो सपने देखता है। उसे सच साबित करना चाहता है। प्रशांत किशोर और तेजस्वी यादव ने रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करके युवा पीढ़ी के उसी सपने को पंख देने की कोशिश की।

चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, बिहार में सरकार की परीक्षा अब इन्हीं मानदंडों पर होगी। अब कोई नेता यह कह कर शायद युवा पीढ़ी को संतुष्ट नहीं कर पाएगा कि बिहार में उद्योग के लिए जमीन नहीं है। जमीन तो है, नियत ठीक करने और औद्योगिक दृष्टि की जरूरत है। महिलाओं ने सीड मनी (10 हज़ार का अनुदान) देख लिया है। आगे उसकी भूख बढ़ेगी। तेजस्वी ने 30 हज़ार का सपना पहले ही दिखा दिया है। जिस तरह 1990 अब वापस नहीं लौट सकता है उसी तरह वो दौर भी वापस आना मुश्किल है। नयी सरकार पुराना डर दिखा कर नए दौर के अपराधों को चुपचाप सहने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। इस चुनाव ने एक नए बिहार का बीज बो दिया है।