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जोगी ने कांग्रेस का कम, बीजेपी का ज़्यादा नुक़सान किया?

न तो अजीत जोगी की पैंतरेबाज़ी काम आई और न ही बीजेपी ऐंटी-इन्कम्बेंसी से पार पा पाई। बिना चेहरे के ही कांग्रेस ने नई तसवीर पेश कर दी। बल्कि यूँ कहें तो बदल डाली। और इसमें बीजेपी सरकार से नाराज़गी के साथ-साथ अजित जोगी की पार्टी की भी बड़ी भूमिका रही। कैसे, यह हम नीचे बताएँगे।

पहला सवाल - क्या यह कांग्रेस की रणनीतियों की जीत है या बीजेपी की विफलता का नतीजा है? क्या यह कांग्रेस की आइडियोलजी में लोगों के विश्वास बढ़ने को दिखाता है या अजीत जोगी की वैकल्पिक राजनीति और पॉलिटिकल इंजीनियरिंग को नकारने की तसवीर पेश करता है?

कर्ज़माफ़ी के वादे ने लुभाया

पार्टी के बड़े नेता रहे और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी इस बार कांग्रेस के साथ नहीं थे। पार्टी में कोई इस क़द का कोई चेहरा भी नहीं था। पार्टी का आदिवासी चेहरा रहे रामदयाल उइके भी साथ नहीं थे। बीएसपी के साथ भी गठबंधन नहीं हो पाया था। इसके बावजूद कई कारणों से मतदाता कांग्रेस के साथ आए। किसानों के लिए कर्ज़माफ़ी के वादे ने किसानों को लुभाया। राहुल गाँधी की ताबड़तोड़ रैलियाँ पार्टी के पक्ष में गईं। इससे युवा भी जुड़े। हालांकि, कांग्रेस आदिवासियों के अधिकारों की मांग उठाती रही थी और पार्टी को उनसे वोट मिलने की काफ़ी उम्मीदें पहले से ही थीं। पिछले चुनाव में इसे 29 आदिवासी सीटों में से 18 सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस को काफ़ी उम्मीदें इसलिए भी थीं क्योंकि पिछले चुनाव में बीजेपी (41%) और कांग्रेस (40.3%) के बीच सिर्फ़ 0.7 वोट प्रतिशत का अंतर रहा था।

कहाँ चूक गई बीजेपी?

इस बार परिस्थितियाँ बदली थीं। लगातार 15 साल तक सत्ता में रही बीजेपी के ख़िलाफ़ ऐंटी-इन्कंबेंसी थी। कांग्रेस राज्य में विकास नहीं होने और भ्रष्टाचार का मुद्दा बना रही थी। सीएम रमन सिंह राशन के सही वितरण को उपलब्धि बताते रहे, लेकिन चुनाव जीतने के लिए एक उपलब्धि काफ़ी नहीं होती। स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाएँ भी अपेक्षाकृत काफ़ी कम रहीं। अजीत जोगी की अादिवासियों में अच्छी पैठ है और यही बीजेपी के वोटबैंक रहे हैं। ऐसे में जोगी से बीजेपी को नुकसान हुआ।अब तक आए वोट शेयर के आँकड़े भी यही बताते है। इनके मुताबिक़ कांग्रेस को अब तक 44% और बीजेपी को 32% वोट मिले हैं। यानी कांग्रेस के वोट शेयर में ज़्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई है लेकिन बीजेपी का वोट शेयर बहुत घटा है। वह घटा हुआ वोट शेयर किसके पास गया। हम देखेंगे कि जोगी की पार्टी जेसीसी को 8.7% वोट मिले हैं। उसकी सहयोगी बीएसपी को 2.5% वोट मिले हैं।

बीजेपी से अादिवासी मतदाता छिटके

यानी बीजेपी से आदिवासी मतदाता छिटके हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को राज्य में 29 आदिवासी सीटों में से सिर्फ़ 11 सीटें मिली थीं। प्रदेश कांग्रेस का आदिवासी चेहरा रहे रामदयाल उइके काे तो बीजेपी ने अपने साथ जोड़ा था और अनुसूचित जाति की सीटों पर अच्छे वोट पाने वाले ‘छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच’ को भी अपने में विलय करा लिया था, लेकिन इसका भी कुछ ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ।

एससी/एसटी ऐक्ट का असर

इस चुनाव में जातिगत समीकरण बड़ा दिलचस्प रहा। एससी/एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले ने बीजेपी को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया जहाँ उसके लिए कोई न कोई फ़ैसला लेना ज़रूरी था। उसने तुरंत ही संशोधित बिल संसद में पेश कर दिया। लेकिन इस बिल को लेकर अगड़ों में नाराज़गी हुई। 

जोगी का जातिगत समीकरण भी फ़ेल

बीएसपी का वोट प्रतिशत पिछले विधानसभा चुनाव में 4.3 रहा था और अनुसूचित जाति इलाकों के 13 सीटों पर उसका वोट 13 प्रतिशत से अधिक था। तब बीएसपी अकेले चुनाव लड़ रही थी, लेकिन इस बार जनता कांग्रेस और बीएसपी का गठबंधन था। जोगी को उम्मीद थी कि वे बड़ा प्लेयर बनकर उभरेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस के बाग़ी नेता अजीत जोगी कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध नहीं मार पाए हालाँकि बीजेपी का उन्होंने बहुत नुक़सान किया।

ऋचा जोगी फैक्टर

चुनाव से पहले अजीत जोगी की बहू ऋचा जोगी की राजनीति में एंट्री ने खलबली मचा दी थी। वह बहू तो हैं जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ सुप्रीमो की, लेकिन बीएसपी में शामिल हो गई थीं। यह अजीत जोगी की पॉलिटिकल इंजीनियरिंग थी, लेकिन यह काम नहीं आई। 

जैसा भी हो, अाखिरी नतीजे ही मायने रखते हैं। जीत चाहे जैसी आई हो, यह छोटी हो या बड़ी, जीत तो जीत है।

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क़मर वहीद नक़वी
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