एक ऐसे समय में जब खुद सरकार विभाजन के ज़ख्मों पर मरहम लगाने के बजाय सांप्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ाने के मक़सद से ज़ख्मों को कुरेदने के लिए बाकायदा विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने लगी हो और विषम परिस्थितियों में बाहर से पलायन करके और विस्थापित होकर आए शरणार्थी घुसपैठिए की संदिग्ध नज़र से देखे जा रहे हों और उनकी नागरिकता पर संदेह वोट का एक राजनैतिक औज़ार बन गया हो, भारत के सार्वकालिक महानतम फिल्मकारों में गिने जाने वाले ऋत्विक घटक की जन्म शताब्दी पर उनके सिनेमा का पुनर्पाठ ज़रूरी हो जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि घटक समूचे भारतीय सिनेमा में बंटवारे के दर्द के एक ऐसे बिरले महागायक हैं जिनका सिनेमा सिर्फ एक चलती-फिरती-बोलती तस्वीर न होकर भारत विभाजन की मानवीय त्रासदी का करुण, काव्यात्मक और बेहद गहराई से आत्मीय दस्तावेज़ है। ऋत्विक घटक सिर्फ फिल्मकार नहीं थे, बल्कि मनुष्य के अंतर्मन की पीड़ा के कवि, व्यवस्था से नाराज़ एक उग्र सामाजिक कार्यकर्ता और एक बहुत अंतरंग, वैयक्तिक अर्थ में, सभ्यता के विस्थापन के इतिहासकार थे, क्योंकि विभाजन उनके लिए दूर से देखी हुई कोई ऐतिहासिक, राजनीतिक घटना या किसी कथा, कहानी, उपन्यास या फिल्म की कथावस्तु नहीं थी बल्कि उनका खुद भोगा हुआ यथार्थ था।