एक फ़िल्म जिसे भारत ने कभी देखना बंद नहीं किया। 1975 में जब देश इमरजेंसी के साए में था, एक फ़िल्म आई—बड़ी, जोखिम भरी, और पूरी तरह मनोरंजन के लिए बनी। ना आर्टहाउस, ना सरकारी प्रोपेगंडा। नाम था: शोले।

शुरुआत में थिएटर खाली रहे। लोग फुसफुसा कर बात करते थे। लेकिन फिर, फुसफुसाहटें सीटी में बदल गईं। स्कूल के बच्चे डायलॉग दोहराने लगे। पड़ोसी ने पड़ोसी से कहा—जाओ देखो। और भारत ने फिर कभी इस फ़िल्म को देखना बंद  ही नहीं किया।
इस साल शोले को रिलीज़ हुए 50 साल पूरे हो रहे हैं। लेकिन ये कोई उदासी का मौक़ा नहीं। ये 70mm और टेक्निकलर यादों का उत्सव है। कमर्शियल तूफ़ान जिसे ठीक से गिना नहीं गया शोले ने 1975 में ₹15 करोड़ की कमाई की थी—उस दौर में बड़ी रकम, लेकिन आज के हिसाब से मामूली। उस समय भारत की आबादी 62 करोड़ थी, टिकट ₹1.25 का मिलता था, और OTT का कोई वजूद नहीं था। फिर भी, शोले ने 12 करोड़ से ज़्यादा टिकट बेचे—यानी उस समय की आबादी का लगभग 20%।
ताज़ा ख़बरें
अब 2025 में भारत की आबादी 143 करोड़ है। टिकट की औसत कीमत ₹150–₹180 है। मल्टीप्लेक्स, स्ट्रीमिंग, सैटेलाइट राइट्स, और ग्लोबल रिलीज़ आम बात है। अगर आज की आबादी का सिर्फ 5–10% हिस्सा शोले देखता, तो ये 7.15–14.3 करोड़ टिकट बेचती—₹1,144-₹2,431 करोड़ की घरेलू कमाई। 10–15% हिस्सेदारी पर ये ₹2,888–₹4,861 करोड़ तक पहुँचती। विदेशों से ₹300–₹500 करोड़ और OTT वगैरह से ₹300–₹500 करोड़ जोड़ें, तो कुल कमाई कुछ और होती।

यदि दर्शक हिस्सेदारी 5–10% होती तो ₹1,944–₹3,231 करोड़ अनुमानित कुल कमाई होती। यदि 10–15% यह हिस्सेदारी होती तो  ₹2,888–₹4,861 करोड़ अनुमानित कुल कमाई होती। 

“कितने आदमी थे?”—बॉक्स ऑफिस का असली सवाल

गब्बर ने सही पूछा था। कितने करोड़ नहीं—कितने आदमी? शोले की टिकट बिक्री आज भी दंगल से ज़्यादा है। और अगर सिनेमा को पहुँच, प्रभाव, और समायोजित कमाई से मापा जाए, तो शोले सबसे ऊपर है।


शोले फिल्म बॉक्स ऑफिस कलेक्शन

सिर्फ फ़िल्म नहीं—एक सांस्कृतिक प्रतीक

शोले भारत की संस्कृति का हिस्सा बन गई है। मेलों से लेकर बोर्डरूम तक, हर कोई इसके डायलॉग जानता है। दोहराता है। ये सिर्फ डाकुओं और बदले की कहानी नहीं थी। ये दोस्ती, दर्द, कुर्बानी और सन्नाटे की बेहद स्टाइलिश कहानी थी। इसने वो सब कहा जो 70 के दशक में कोई कहने की हिम्मत नहीं करता था। ना यथार्थवाद, ना “पैरेलल सिनेमा।” एक आधुनिक महाकाव्य, अपने मिथकों से भरपूर। ये कमर्शियल थी। और सौंदर्य की दृष्टि से बेजोड़।

“बसंती… इन कुत्तों के सामने मत नाचना।”

“सिर्फ एक कमर्शियल फ़िल्म” की बात करें। हाँ, शोले एक कमर्शियल फ़िल्म थी। और चाहे जितनी भी अच्छी हो, इसका मक़सद था—मनोरंजन। ये आर्टहाउस नहीं थी। सरकारी फंड से नहीं बनी थी। कान्स से कोई मेडल लेने नहीं गई थी। कई सालों तक “अच्छा सिनेमा” का मतलब “पैरेलल सिनेमा” माना गया—यथार्थ, संयम, प्रतीकात्मकता। लेकिन चलिए, इस बार सिर्फ एक बार, कमर्शियल सिनेमा की बात उसी के शब्दों में मान लेते हैं। उसकी सफलता को उसी पैमाने पर मापते हैं जो उसने खुद तय किए—पहुँच, याददाश्त, कमाई, बार-बार अपनी तरफ खींचना, और फिर से ज़िंदा हो जाने की ताक़त। पीढ़ी दर पीढ़ी—परदे का साइज़ कुछ भी हो, शोले उसे बड़ा बना देती है।
सिनेमा से और

और अंत में… एक ख़ान ज़मानों के लिए…

तीन ख़ानों—शाहरुख, सलमान, आमिर—की कारगुज़ारियों पर पले-बढ़े दर्शकों को और यूसुफ ख़ान (दिलीप कुमार) की याद में डूबे रसिकों को एक और ख़ान को याद करना चाहिए: अमजद। अमजद ख़ान।

“क्योंकि जब पचास कोस दूर, बच्चा रोता है… तो माँ कहती है—सो जा बेटा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा।” और वो बच्चा आज भी सो रहा है। कहीं वो डरा हुआ बच्चा आज के बॉक्स ऑफिस का आंकड़ेबाज़ तो नहीं?