दिल्ली हाईकोर्ट ने डीपीएस द्वारका की नीतियों को 'अमानवीय' करार देते हुए कहा कि निजी स्कूल अब शिक्षा के बजाय मुनाफा कमाने की मशीन बन गए हैं। जानिए कोर्ट ने क्यों लगाई फटकार।
फोटो साभार: डीपीएस द्वारका
कल्पना कीजिए, एक स्कूल, जो बच्चों को सपनों के पंख देने का दावा करता हो, वही बच्चों को फीस के बोझ तले कुचल दे! दिल्ली के प्रतिष्ठित डीपीएस द्वारका में फीस न चुका पाने वाले छात्रों के साथ गुलामों सा व्यवहार और उन्हें लाइब्रेरी में कैद करने का सनसनीखेज मामला अब तूल पकड़ चुका है। दिल्ली हाईकोर्ट ने इस अमानवीय हरकत की कड़े शब्दों में निंदा की और स्कूल को 'पैसे कमाने की मशीन' क़रार दिया। यह मामला न सिर्फ़ एक स्कूल की मनमानी का है, बल्कि उस शिक्षा व्यवस्था का है, जो बच्चों के भविष्य को मुनाफ़े की भेंट चढ़ा रही है।
दरअसल, यह मामला दिल्ली के द्वारका स्थित दिल्ली पब्लिक स्कूल यानी डीपीएस में फीस वृद्धि और छात्रों के उत्पीड़न का है। यह एक बार फिर सुर्खियों में है। दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को इस मामले में सुनवाई करते हुए स्कूल प्रबंधन की कड़ी आलोचना की और छात्रों के साथ किए गए व्यवहार को अमानवीय और अपमानजनक करार दिया।
कोर्ट ने यहाँ तक कहा कि ऐसे स्कूल जो छात्रों के साथ सामान या गुलाम जैसा व्यवहार करते हैं, उन्हें बंद कर देना चाहिए। यह मामला न केवल डीपीएस द्वारका के काम करने के तरीक़े पर सवाल उठाता है, बल्कि देश भर में निजी स्कूलों द्वारा फ़ीस वृद्धि और अभिभावकों-छात्रों के शोषण के व्यापक मुद्दे को भी उजागर करता है।
दिल्ली हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी तब की जब वह एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था। याचिका में अभिभावकों और छात्रों ने डीपीएस द्वारका पर गंभीर आरोप लगाए। याचिका के अनुसार, स्कूल प्रबंधन ने फीस न जमा करने वाले छात्रों को नियमित कक्षाओं में भाग लेने से रोका, उन्हें स्कूल की लाइब्रेरी में बंदी बनाकर रखा और यहाँ तक कि टॉयलेट जाने पर भी उनकी निगरानी की गई। कुछ छात्रों को स्कूल से निष्कासित कर दिया गया और उनके नाम काटकर ट्रांसफर सर्टिफिकेट थमा दिए गए। कोर्ट ने इसे चिंताजनक और घटिया व्यवहार क़रार देते हुए स्कूल के प्रिंसिपल के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने तक की बात कही।
जस्टिस सचिन दत्ता की अध्यक्षता वाली पीठ ने साफ़ कहा कि फीस का भुगतान न कर पाने की असमर्थता स्कूल को छात्रों के साथ इस तरह का अपमानजनक व्यवहार करने का लाइसेंस नहीं देती। कोर्ट ने यह भी कहा कि स्कूल 'पैसे कमाने की मशीन' बन चुके हैं, जो शिक्षा के मूल उद्देश्य से भटक गए हैं।
डीपीएस द्वारका में फीस वृद्धि का मुद्दा कोई नया नहीं है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, स्कूल ने 2020 से 2025 के बीच हर साल फीस में वृद्धि की है। इसके अलावा स्कूल की वार्षिक फीस को भी काफ़ी बढ़ाए जाने का आरोप है। अभिभावकों का आरोप है कि यह वृद्धि शिक्षा निदेशालय यानी डीओई की मंजूरी के बिना की गई, जो नियमों का उल्लंघन है। दिल्ली पैरेंट्स एसोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम ने इसे अवैध क़रार देते हुए शिक्षा विभाग पर स्कूल प्रबंधन के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया।
शिक्षा निदेशालय ने इस मामले में 8 अप्रैल 2025 को डीपीएस द्वारका को कारण बताओ नोटिस जारी किया था। एक आठ सदस्यीय जांच समिति ने स्कूल का दौरा किया और अपनी रिपोर्ट में कई अनियमितताएँ उजागर कीं। समिति ने पाया कि स्कूल प्रबंधन मुनाफाखोरी, व्यवसायीकरण, कैपिटेशन, छात्रों का उत्पीड़न और अभिभावकों का शोषण में लिप्त है। अभिभावकों का कहना है कि इसके बावजूद स्कूल के ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।
दिल्ली के शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि बार-बार शिकायतें मिलने के बाद एक जाँच दल स्कूल भेजा गया था। वहीं, मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि सरकार बच्चों के भविष्य से कोई समझौता नहीं करेगी और मनमानी करने वाले स्कूलों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
डीपीएस द्वारका का यह मामला निजी स्कूलों के काम करने के तरीक़े और शिक्षा के व्यवसायीकरण का एक ज्वलंत उदाहरण है। देश भर में निजी स्कूलों द्वारा मनमाने ढंग से फ़ीस वृद्धि, अभिभावकों पर दबाव और छात्रों के साथ भेदभाव की ख़बरें आम हैं। दिल्ली में पिछले कुछ हफ़्तों से स्कूलों में फीस वृद्धि के ख़िलाफ़ अभिभावक अलग-अलग जगहों पर प्रदर्शन करते रहे हैं।
हालात तो ऐसे हैं कि नोएडा में 66 स्कूलों पर फ़ीस वृद्धि की जानकारी नहीं देने पर 1-1 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया। झारखंड में शिक्षा मंत्री की नातिन का नाम फ़ीस बकाया होने पर स्कूल से काट दिया गया।
ये मामले दिखाते हैं कि निजी स्कूल शिक्षा को सेवा के बजाय व्यवसाय के रूप में देख रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि शिक्षा निदेशालय और सरकारी तंत्र की निष्क्रियता इस समस्या को और बढ़ा रही है। कई अभिभावक आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं और ऐसे में फ़ीस में भारी वृद्धि उनके लिए असहनीय है।
दिल्ली हाईकोर्ट का यह फ़ैसला अभिभावकों और छात्रों के लिए एक राहत की ख़बर है। कोर्ट ने न केवल स्कूल के तौर-तरीक़े की आलोचना की, बल्कि छात्रों को कक्षाओं में भाग लेने की अनुमति देने और उन्हें अन्य छात्रों से अलग न करने का निर्देश भी दिया। इसके अलावा, कोर्ट ने छात्रों के उत्पीड़न को रोकने के लिए सुरक्षा उपाय लागू करने की ज़रूरत पर जोर दिया।
हालाँकि, यह सवाल बना हुआ है कि क्या इस फ़ैसले का पालन होगा और क्या अन्य स्कूलों के लिए यह एक नजीर बनेगा। पहले भी कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करने की घटनाएँ सामने आई हैं। ऐसा ही एक मामला राजस्थान में आया था जहाँ 2020 में हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद स्कूलों ने मनमानी की थी।
डीपीएस द्वारका का मामला निजी स्कूलों की मनमानी और शिक्षा के व्यवसायीकरण की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। दिल्ली हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी और निर्देश इस दिशा में एक सकारात्मक कदम हैं, लेकिन इसका प्रभाव तभी होगा जब इसे जमीन पर लागू किया जाए। अभिभावकों और छात्रों का संघर्ष न केवल डीपीएस द्वारका तक सीमित है, बल्कि यह देश भर में शिक्षा को आसान और मानवीय बनाने की लड़ाई का प्रतीक है।