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जांच एजेंसियों के खिलाफ पत्रकार संगठनों ने सीजेआई को लिखा साझा पत्र

बीते 3 अक्टूबर को समाचार वेबसाइट न्यजक्लिक पर दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने छापा मारा था और पत्रकारों को हिरासत में लिया था। इसके अगले दिन 4 अक्टूबर को पत्रकारों के विभिन्न संगठनों की ओर एक संयुक्त पत्र भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को लिखा गया है। 
इस पत्र में कहा गया है कि मीडिया के खिलाफ सरकार की दमनकारी कार्रवाइयां हद से ज्यादा बढ़ गई हैं। इस पत्र में सुप्रीम कोर्ट से अपील की गई है कि वह मीडिया के खिलाफ जांच एजेंसियों के बढ़ते दमनकारी उपयोग को समाप्त करने के लिए तुरंत हस्तक्षेप करे। 
इसमें पत्रकार संगठनों ने कहा है कि पिछले 24 घंटों के घटनाक्रम ने हमारे पास आपसे अपील करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा है कि आप संज्ञान लें और हस्तक्षेप करें, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए और एक निरंकुश पुलिस राज्य आदर्श बन जाए। 
भारत के मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्रकार संगठनों के इस साझा पत्र में कहा गया है कि आपने कई अवसरों पर अदालत के भीतर और बाहर कहा है कि "प्रेस का कर्तव्य है कि वह सत्ता के सामने सच बोले और नागरिकों को सच्चाई के साथ पेश करे।" 
भारत की स्वतंत्रता तब तक सुरक्षित रहेगी जब तक पत्रकार "प्रतिशोध की धमकी से डरे बिना" अपनी भूमिका निभा सकते हैं। 
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को जिन पत्रकार संगठनों ने यह साझा पत्र लिखा है उसमें डिजीपब न्यूज इंडिया फाउंडेशन, इंडियन वूमेन प्रेस कॉर्प्स, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, नई दिल्ली फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स, नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया, चंडीगढ़ प्रेस क्लब, नेशनल अलायंस ऑफ़ जर्नलिस्ट्स, दिल्ली यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स, केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स, बृहन्मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स, फ्री स्पीच कलेक्टिव, मुंबई, मुंबई प्रेस क्लब,अरुणाचल प्रदेश यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट प्रेस एसोसिएशन ऑफ इंडिया, गुवाहाटी प्रेस क्लब शामिल है। 
इस साझा पत्र में कहा गया है कि सच तो यह है कि आज भारत में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग प्रतिशोध के खतरे के बीच काम कर रहा है। 
इसमें कहा गया है कि तीन अक्टूबर, 2023 को, दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने पत्रकारों, संपादकों, लेखकों समेत 46 पेशेवरों के घरों पर छापा मारा है। ये लोग किसी न किसी तरह से ऑनलाइन समाचार पोर्टल, न्यूज़क्लिक से जुड़े हुए थे। छापेमारी में गैरकानूनी गतिविधियों की विभिन्न धाराओं के तहत दो लोगों को गिरफ्तार किया गया है। पत्रकारों पर यूएपीए लगाना विशेष रूप से भयावह है। पत्रकारिता पर 'आतंकवाद' का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया गया 

इस साझा पत्र में सीजेआई से कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान, आपने देखा है कि कैसे कई मौकों पर देश की जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया गया और प्रेस के खिलाफ उन्हें हथियार बनाया गया। संपादकों और पत्रकारों के खिलाफ देशद्रोह और आतंकवाद के मामले दर्ज किए गए हैं। पत्रकारों के उत्पीड़न के लिए गलत एफआईआर का इस्तेमाल किया गया है। 

इसमें स्पष्ट किया गया है कि इस पत्र का उद्देश्य कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया और प्रक्रिया को नजरअंदाज करना या उसमें बाधा डालना नहीं है। लेकिन जब जांच के नाम पर पत्रकारों को बुलाया जाता है और उनके उपकरण जब्त कर लिए जाते हैं, तो इस प्रक्रिया में एक अंतर्निहित दुर्भावना है जिसे जांचा जाना चाहिए। 

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गिरफ्तारी की तरह पूछताछ का आधार भी बताना चाहिए

इस पत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार पुलिस संविधान द्वारा गिरफ्तारी का आधार बताने के लिए बाध्य है, उसी प्रकार पूछताछ के लिए भी यह एक पूर्व शर्त होनी चाहिए। अर्थात किस अपराध के लिए पूछताछ हो रही है यह बताना चाहिए। इसके अभाव में हमने न्यूज़क्लिक मामले में देखा है कि कुछ अज्ञात अपराध की जांच के नाम पर अस्पष्ट दावे किए गए। इस शर्त की अनुपस्थिति पत्रकारों से उनके कवरेज के बारे में सवाल करने का आधार बन गई है। 
अन्य बातों के साथ-साथ, किसान आंदोलन, सरकार द्वारा कोविड महामारी से निपटने और नागरिकता (संशोधन) कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को लेकर भा जांच एजेंसियों ने पत्रकारों से सवाल पूछे। 
हम यह नहीं कहते कि पत्रकार कानून से ऊपर हैं, हम इससे उपर नहीं हैं और न ही बनना चाहते हैं। लेकिन मीडिया को धमकी समाज के लोकतांत्रिक ताने-बाने को प्रभावित करती है।
पत्रकारों द्वारा किए गए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के कवरेज को पसंद नहीं करने पर सरकार द्वारा पत्रकारों को एक केंद्रित आपराधिक प्रक्रिया के अधीन कर देना प्रतिशोध की धमकी देने जैसा है।  यह प्रेस को शांत करने का एक प्रयास है। 
इसमें कहा गया है कि यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए पत्रकारों को जमानत मिलने से पहले कई साल नहीं तो कम से कम कई महीने सलाखों के पीछे बिताने पड़ सकते हैं। हमारे सामने सिद्दीक कप्पन का मामला पहले से ही मौजूद है। जिसमें जमानत मिलने से पहले उन्हें दो साल और चार महीने तक जेल में रखा गया। हिरासत में फादर स्टेन स्वामी की दुखद मौत इस बात की याद दिलाती है कि आतंकवाद से लड़ने की आड़ में अधिकारी मानव जीवन के प्रति कितने उदासीन हो गए हैं। 
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पत्रकारों के फोन और लैपटॉप जब्त करने को लेकर बने मानदंड 

इसमें सीजेआई से मांग की गई है कि पत्रकारों के फोन और लैपटॉप को अचानक जब्त करने की प्रवृति को हतोत्साहित करने के लिए मानदंड तैयार किया जाना चाहिए। 
उपकरणों की जब्ती हमारे पेशेवर काम से समझौता करती है। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने (पेगासस मामले में), खुद देखा है, स्रोतों की सुरक्षा मीडिया की स्वतंत्रता का "महत्वपूर्ण और आवश्यक परिणाम" है। लेकिन लैपटॉप और फोन अब सिर्फ आधिकारिक कामकाज करने के लिए इस्तेमाल होने वाले आधिकारिक उपकरण नहीं रह गए हैं।
वे मूलतः स्वयं का विस्तार बन गए हैं। ये उपकरण हमारे संपूर्ण जीवन में एकीकृत हैं और इनमें महत्वपूर्ण व्यक्तिगत जानकारी शामिल है। संचार से लेकर परिवार और दोस्तों की तस्वीरों और उनसे हुई बातचीत तक इसमें शामिल होती है। ऐसा कोई कारण या औचित्य नहीं है कि जांच एजेंसियों को ऐसी सामग्री तक पहुंच मिलनी चाहिए। 
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क़मर वहीद नक़वी
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