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पोल बॉन्ड: कंपनियों ने गठन के 3 साल से पहले ही दे दिया 100 करोड़ चंदा

इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा देने के अजीबोगरीब मामले सामने आ रहे हैं। कोविड लॉकडाउन में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था कराह रही थी तब नयी खुली कंपनियाँ करोड़ों रुपये चंदा दे रही थीं। 2019 में खुली कंपनियाँ भी जब उनकी लाभ-हानि की रिपोर्ट भी नहीं आई होगी, साल भर में ही चंदा देना शुरू कर दिया था। तीन साल से कम समय से अस्तित्व में आई कंपनियों को राजनीतिक चंदा देने की अनुमति नहीं होने के बावजूद वे ऐसा कर रही थीं।

इस तरह का चंदा चुनावी बॉन्ड के माध्यम से भी दिया जा रहा था। द हिंदू ने इलेक्टोरल बॉन्ड के आँकड़ों का विश्लेषण कर यह ख़बर दी है। इसके विश्लेषण से पता चलता है कि कम से कम 20 ऐसी नई बनी कंपनियों ने लगभग 103 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड खरीदे थे। 

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रिपोर्ट के अनुसार जिस समय उन्होंने अपना पहला चुनावी बॉन्ड खरीदा था, इनमें से पांच कंपनियां एक साल से भी कम समय से अस्तित्व में थीं। उनमें से सात एक साल पुरानी थीं और आठ अन्य ने केवल दो साल पूरे किए थे। इनमें से कई कंपनियां 2019 में शुरू हुईं जब भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही थी। महामारी के बीच में ही बनी कंपनियों ने कुछ ही महीनों बाद करोड़ों रुपये के चुनावी बॉन्ड खरीदे थे।

अंग्रेजी अख़बार ने रिपोर्ट दी है कि कंपनी गठित होने से तीन साल के भीतर राजनीतिक चंदा देने वाली कंपनियों पर प्रतिबंध लगभग चार दशकों से है। 1985 में संसद ने धारा 293ए में संशोधन किया, जिससे कुछ शर्तों के अधीन फर्मों द्वारा राजनीतिक चंदा पर प्रतिबंध हटा दिया गया। शर्तों में से एक यह थी कि फर्मों का स्वामित्व सरकार के पास नहीं होना चाहिए और तीन साल से कम पुराना नहीं होना चाहिए। 

इस खंड को कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 के तहत बरकरार रखा गया था। जब वित्त अधिनियम, 2017 की धारा 154 में धारा 182 में संशोधन किया गया, तो चुनावी बॉन्ड की शुरुआत से ठीक पहले इस खंड को फिर से बरकरार रखा गया था। हालाँकि, संशोधन ने उस पहले प्रावधान को हटा दिया जिसके द्वारा किसी कंपनी द्वारा चंदा की गई राशि को उसके पिछले तीन वित्तीय वर्षों के दौरान उसके औसत शुद्ध लाभ का 7.5% तय किया गया था। कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को पहले तीन साल में चंदा देने पर रोक जारी रही। 
कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 182 के अनुसार यदि कोई फर्म प्रावधानों का उल्लंघन कर चंदा देती है तो उसपर जुर्माना लगाया जाएगा। यह चंदे की गई राशि का पांच गुना तक बढ़ सकता है और कंपनी के अधिकारी को जुर्माना या कैद हो सकती है।
इन 20 कंपनियों में से 12 का मुख्यालय हैदराबाद में था। इन 12 कंपनियों ने मिलकर 37.5 करोड़ रुपये का चंदा दिया और इसका लगभग 75% बीआरएस द्वारा भुनाया गया, बाकी टीडीपी, कांग्रेस और भाजपा के बीच बांटा गया। 
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शेल कंपनियों को राजनीतिक चंदा देने से रोकने के लिए तीन साल का नियम बरकरार रखा गया। जब 7.5% की सीमा को 2017 में हटा दिया गया था, तो भारत के चुनाव आयोग ने चेतावनी दी थी कि इससे "शेल कंपनियों के माध्यम से काले धन" का उपयोग हो सकता है। 

7.5% सीमा से ज़्यादा चंदा

बता दें कि हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि 2022-24 के बीच कम से कम 55 कंपनियों ने अपने शुद्ध मुनाफे के अधिकतम 7.5 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा चंदा राजनैतिक दलों को दिया है। 

इनमें से 2023-24 में पांच और 2022-23 में आठ कंपनियां ऐसी भी हैं जिनका शुद्ध मुनाफा शून्य या नकारात्मक था उन्होंने भी मोटा चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये राजनैतिक दलों को दिया है। 

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घाटे में चल रही 33 कंपनियों ने दिया चंदा

रिपोर्ट कहती है कि घाटे में चल रही 33 कंपनियों ने भी 582 करोड़ के चुनावी बॉन्ड से चंदा दिया। इसमें 75 प्रतिशत भाजपा को मिले हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि एक विश्लेषण से पता चलता है कि सत्तारूढ़ भाजपा को चुनावी बॉन्ड से चंदा देने वाली कम से कम 45 कंपनियों के फंडिंग स्रोत संदिग्ध हैं। 

रिपोर्ट कहती है कि विभिन्न राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड से चंदा देने वाली कम से कम 45 कंपनियों के धन के स्रोत को द हिंदू के विश्लेषण और एक स्वतंत्र शोध के आधार पर संदिग्ध पाया गया है। 

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क़मर वहीद नक़वी
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