बिहार में विशेष गहन संशोधन (एसआईआर) के दौरान मतदाता सूची से नाम हटाने की प्रक्रिया में चुनाव आयोग की ओर से एक गंभीर प्रक्रियात्मक अनियमितता उजागर हुई है। यह अनियमितता लोकतंत्र की नींव को कमजोर करने वाली साबित हो सकती है। भारतीय जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 में स्पष्ट प्रावधान है कि किसी मतदाता की पात्रता पर संदेह होने पर सुनवाई के लिए नोटिस जारी करने का अधिकार केवल संबंधित विधानसभा क्षेत्र के निर्वाचक पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को है। लेकिन केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस कानून की सरासर अवहेलना की है। 
सितंबर 2025 महीने में बिहार के कई ईआरओ के लॉग-इन पर आयोग की पोर्टल से पहले से भरे हुए (प्री-फिल्ड) नोटिस अचानक प्रकट हो गए, जो लाखों की संख्या में थे। यानी इन नोटिसों को केंद्रीय चुनाव आयोग यानी ईसीआई की ओर से पहले से ही भरकर जारी किया गया था। यह केंद्रीय हस्तक्षेप की एक स्पष्ट मिसाल है जो स्थानीय अधिकारियों की स्वायत्तता पर हमला करता है। इंडियन एक्सप्रेस की मंगलवार 16 दिसंबर 2025 को प्रकाशिक एक रिपोर्ट में इस अनियमितता का खुलासा किया गया है। बिहार में पिछले दिनों विधानसभा चुनाव हुए थे। वहां बेहद जल्दबाजी में चुनाव कराए गए। सुप्रीम कोर्ट आज तक एसआईआर पर कोई स्पष्ट निर्णय नहीं ले पाया है।
ये नोटिस उन मतदाताओं को जारी किए गए थे जिन्होंने पहले ही फॉर्म और सहायक दस्तावेज जमा कर दिए थे। जिनके नाम अगस्त में प्रकाशित ड्राफ्ट मतदाता सूची में शामिल थे। नोटिसों पर ईआरओ के नाम तो दर्ज थे, लेकिन वे ईआरओ द्वारा जारी नहीं किए गए थे। चुनाव आयोग की पूरी कार्यशैली ही अपारदर्शी रही। कई ईआरओ ने इन नोटिसों पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया, जो इस बात की पुष्टि करता है कि केंद्रीय स्तर से थोपे गए इन आदेशों में वैधता की कमी थी।
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मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार गुप्ता ने अगस्त में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मतदाता सूची संशोधन को "विकेंद्रीकृत प्रक्रिया" बताकर अपनी पीठ थपथपाई थी। ज्ञानेश ने दावा किया था कि न तो वे खुद और न ही कोई चुनाव आयोग अधिकारी मतदाता जोड़ या हटा सकता है, सिवाय कानूनी प्रक्रिया के। लेकिन इस दावे के ठीक उलट यह घटना चुनाव तंत्र में गहरी चिंता पैदा करती है, क्योंकि यह आयोग की दोहरी नीति और विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है।
चुनाव आयोग के अधिकारियों के अनुसार, ये नोटिस फॉर्म और दस्तावेजों में "तार्किक त्रुटियों" (लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी) के आधार पर तैयार किए गए थे। लेकिन यह बहाना कितना विश्वसनीय है जब नोटिसों में एक समान कारण टिक किया गया था- जमा किए गए दस्तावेज "अधूरे या अपर्याप्त" हैं। जांच की गई नोटिसों में कोई जारी करने की तारीख नहीं थी। ये सब क्या था। या तो यह आयोग की सरासर लापरवाही थी या फिर नीयत कुछ और थी। हालांकि सीरियल नंबर से तारीख का अनुमान लगाया जा सकता है। आमतौर सभी नोटिसों पर सितंबर 2025 की तारीखें थीं।
हालांकि इस प्रक्रिया से बड़े पैमाने पर नाम हटाए नहीं गए। लेकिन बिहार में एसआईआर के दौरान कुल 68.66 लाख नाम हटाए गए। जिनमें से अधिकांश मृत्यु, प्रवास, डुप्लीकेट या अनुपस्थिति के कारण थे। केवल 9,968 नामों को हटाने का कारण स्पष्ट नहीं है, जो आयोग की अस्पष्टता और संभावित मनमानी को इंगित करता है। यानी इन नामों को हटाने की वजह आयोग नहीं बता सका है। 
सिवान और पटना के कई क्षेत्रों में ऐसे नोटिस प्राप्त करने वाले मतदाताओं से बातचीत में पता चला कि कई मामलों में दस्तावेज दोबारा जमा करने के बाद नाम बरकरार रहे। आरजेडी विधायक ओसामा शहाब सहित कुछ प्रमुख लोगों को भी ऐसे नोटिस मिले, लेकिन उनके नाम अंतिम सूची में शामिल रहे। यह बताता है कि आयोग की यह कार्रवाई कितनी अनावश्यक और परेशान करने वाली थी। सिवान में तो चुनाव आयोग का हस्तक्षेप चरम पर था, इसके बावजूद आरजेडी प्रत्याशी ओसामा शहाब जीते। ओसामा सिवान के विवादित बाहुबली रहे शहाबुद्दीन के बेटे हैं।
चुनाव आयोग ने इस मुद्दे पर द इंडियन एक्सप्रेस के सवालों का जवाब नहीं दिया। बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी भी टिप्पणी के लिए उपलब्ध नहीं हुए। इससे पता चलता है कि चुनाव आयोग की पारदर्शिता सिर्फ कागजों में है।

चुनाव आयोग और लोकतंत्र पर खतरा

यह मामला सिर्फ एक प्रक्रियात्मक खामी नहीं, बल्कि चुनाव आयोग की खतरनाक मनमानी और कानून की खुली धज्जियां उड़ाने का प्रमाण है। लोकतंत्र के कथित संरक्षक के रूप में आयोग ने जिस तरह कानूनी प्रावधानों को ताक पर रखकर केंद्रीय स्तर से लाखों नोटिस थोपे, वह स्थानीय अधिकारियों की जिम्मेदारी को कुचलने और जवाबदेही की पूरी चेन को ध्वस्त करने की कोशिश लगती है। ऐसे अपारदर्शी हस्तक्षेप से मतदाताओं में डर और अविश्वास पैदा होता है, खासकर जब यह सब बिहार जैसे संवेदनशील राज्य में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हो रहा हो।
आयोग का अपने ही दावों से मुकरना- एक तरफ विकेंद्रीकरण का ढोंग, दूसरी तरफ केंद्रीय नियंत्रण की मनमानी- उसकी विश्वसनीयता को गहरी चोट पहुंचा रहा है। सवालों से भागना और चीजों को स्पष्टता न करना यह साबित करता है कि आयोग अब जनता के प्रति नहीं, बल्कि अपनी सुविधा और पावर के प्रति जवाबदेह महसूस करता है। विपक्ष के आरोपों को देखते हुए यह प्रकरण और भी गंभीर हो जाता है, जहां बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम हटाने की आशंका जताई गई थी। भले अंतिम सूची में ज्यादातर नाम बच गए हों, लेकिन इस तरह की छिपी हुई कार्रवाइयां चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता पर कलंक हैं। नेता विपक्ष राहुल गांधी और अन्य नेताओं ने इसी चीज को वोट चोरी कहा है। राहुल गांधी ने स्पष्ट आरोप लगाया कि भारत का चुनाव आयोग बीजेपी और मोदी सरकार के इशारे पर काम कर रहा है। इसके जवाब में मोदी सरकार राहुल गांधी को कभी अर्बन नक्सल तो कभी माओवादी बताती है। 
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विपक्ष का कहना है कि चुनाव आयोग की ऐसी गतिविधियां लोकतंत्र के लिए घातक हैं। इनकी तत्काल स्वतंत्र, निष्पक्ष जांच जरूरी है। अगर आयोग खुद कानून से ऊपर समझने लगे, तो मतदाताओं का विश्वास कैसे बचेगा? बिहार में चुनाव होकर सरकार भी बन चुकी है लेकिए एसआईआर विवाद अभी तक खत्म नहीं हुआ। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश में एसआईआर के दौरान भारी गड़बड़ियों के आरोप सामने आ रहे हैं। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया है कि यूपी में चार करोड़ मतदाताओं के नाम कट गए, ये सभी बीजेपी समर्थक मतदाता है। योगी के बयान के बाद चुनाव आयोग ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। किसी मुख्यमंत्री को आखिर पहले से कैसे मालूम की चार करोड़ मतदाताओं के नाम हट गए हैं। ज़रूर कहीं न कहीं कोई खेल चल रहा है। जिसका इशारा विपक्ष बार-बार कर रहा है।