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प्रतीकात्मक तसवीर।

आरक्षण: ईसाई, मुसलिम बने दलितों का हाल जानने को कमेटी बनेगी

एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार इस पर गंभीरता से विचार कर रही है कि उन अनुसूचित जातियों यानी दलितों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया जाए जिन्होंने हिंदू, बौद्ध और सिख धर्म के अलावा अन्य धर्मों को अपना लिया है। उस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इस प्रस्ताव पर जल्द ही निर्णय लिए जाने की संभावना है।

सरकार के स्तर पर यह क़दम तब उठाया जा रहा है जब धर्मांतरण कर ईसाई व मुसलिम बने कई दलितों को अनुसूचित जाति का आरक्षण दिए जाने की मांग वाली कई याचिकाएँ सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। आम तौर पर इनका तर्क है कि अनुसूचित जाति के आरक्षण का धर्म से कुछ लेना देना नहीं होना चाहिए। पहले भी गठित एक कमेटी ने कुछ ऐसी ही राय रखी थी, लेकिन तब सरकार ने उसकी सिफारिश को लागू नहीं किया था। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के एक सर्वे में भी कुछ ऐसी ही सिफ़ारिश की गई थी।

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बहरहाल, अब फिर से इस मामले पर विचार करने के लिए एक समिति के गठन का प्रयास चल रहा है। द इंडियन एक्सप्रेस ने अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय और कार्मिक व प्रशिक्षण विभाग यानी डीओपीटी के सूत्रों के हवाले से ख़बर दी है कि उन्होंने इस तरह के कदम के लिए हरी झंडी दे दी है। पता चला है कि इस प्रस्ताव पर गृह, कानून, सामाजिक न्याय और अधिकारिता और वित्त मंत्रालयों के बीच विचार-विमर्श चल रहा है।

कहा जा रहा है कि एक आयोग के गठन का प्रस्ताव इस कारण जरूरी हो गया कि यह मुद्दा बेहद अहम है लेकिन इसके अध्ययन के लिए कोई निश्चित आँकड़ा उपलब्ध नहीं है।

बता दें कि ईसाई या इस्लाम में धर्मांतरित होने वाले दलितों के लिए एससी आरक्षण लाभ का सवाल पहले की सरकारों के सामने भी आया था। अक्टूबर 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली तत्कालीन यूपीए सरकार ने धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के कल्याण के उपायों की सिफारिश करने के लिए एक आयोग बनाया था। इसके तहत भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया था।

2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी जिसमें सिफारिश की गई कि अनुसूचित जाति का दर्जा पूरी तरह से धर्म से अलग कर दिया जाए और अनुसूचित जनजाति की तरह ही इसे भी धर्म-तटस्थ बनाया जाए।

तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस सिफारिश को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि क्षेत्रीय अध्ययनों से इसकी पुष्टि नहीं हुई थी।

2007 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा किए गए एक अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला था कि दलित ईसाइयों और दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने की ज़रूरत है। उसको भी इस आधार पर स्वीकार नहीं किया गया था कि यह छोटे नमूने के आकार पर आधारित था।

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अनुच्छेद 341 के तहत संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 यह निर्धारित करता है कि हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानने वाले किसी भी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार, 1956 में सिखों को शामिल करने के लिए और 1990 में बौद्धों को शामिल करने के लिए इसको संशोधित किया गया था।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया कि ईसाई और मुसलिम दलितों को भी अनुसूचित जाति वर्ग में गिना जाए। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार 30 अगस्त को सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट की बेंच को बताया था कि वह याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए मुद्दे पर सरकार के रुख को रिकॉर्ड में रखेंगे। बेंच ने सॉलिसिटर जनरल को तीन सप्ताह का समय दिया और मामले को 11 अक्टूबर के लिए सूचीबद्ध किया।

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यह मुद्दा दलितों तक ही सीमित है क्योंकि एसटी और ओबीसी के लिए धर्म वाली कोई शर्त नहीं है। डीओपीटी की वेबसाइट में कहा गया है, 'अनुसूचित जनजाति से संबंधित व्यक्ति के अधिकार उसके धार्मिक विश्वास से स्वतंत्र हैं।' इसके अलावा, मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के बाद कई ईसाई और मुस्लिम समुदायों को ओबीसी की केंद्र या राज्यों की सूची में जगह मिली है।
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क़मर वहीद नक़वी
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