पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो का कहना है कि “ललिता कुमारी फैसले में कहा गया है कि यदि जानकारी से संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए, और शुरुआती पूछताछ सिर्फ यह तय करने की अनुमति देती है कि संज्ञेय अपराध का खुलासा हुआ है या नहीं। बीएनएसएस इस दायरे का विस्तार करता है। बीएनएसएस के तहत, यह तय करने के लिए शुरुआती जांच की जाती है कि क्या तीन साल या उससे अधिक लेकिन सात साल से कम कारावास की सजा वाले अपराधों के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। यह ललिता कुमारी दिशानिर्देशों के विपरीत है। ललिता कुमारी फैसले में वैवाहिक विवादों, कारोबारी अपराधों और मेडिकल लापरवाही जैसे मामलों में तो फौरन एफआईआर का आदेश था। लेकिन अब कोई महिला दहेज उत्पीड़न या मेडिकल लापरवाही की एफआईआर कराने जाती है तो नए बीएनएसएस कानून के तहत पुलिस आरोपी पति, सास-ससुर, देवर, ननद या किसी डॉक्टर-अस्पताल के खिलाफ तभी एफआईआऱ करेगी, जब वो 14 दिनों की जांच के बाद संतुष्ट होगी।
बीएनएसएस की धारा 223 में एक अजीब प्रावधान जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है, ''किसी अपराध का कोई भी संज्ञान अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिए बिना मैजिस्ट्रेट द्वारा नहीं लिया जाएगा।'' इसका मतलब यह है कि कोई मैजिस्ट्रेट आरोपी को सुने बिना किसी अपराध का संज्ञान भी नहीं ले सकता। यह एक नया प्रावधान है। क्योंकि पहले के प्रावधान आरोपी को संज्ञान लिये जाने के बाद भी दस्तावेज पेश करने की अनुमति नहीं देता था।