सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन प्रक्रिया में गंभीर खामियों की ओर इशारा करते हुए पूछा कि वकील क्लाइंट की पत्नियों को तलाक का नोटिस कैसे भेज सकते हैं। कोर्ट की टिप्पणी ने मुस्लिम तलाक प्रथाओं और महिलाओं के अधिकारों पर नई बहस छेड़ दी है।
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मान्य ‘तलाक़-ए-हसन’ की प्रक्रिया में मौजूद गंभीर खामियों पर गंभीर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने विशेष रूप से इस प्रथा पर गहरी नाराजगी जताई कि पति अपने वकील के ज़रिए पत्नी को तलाक़ का नोटिस भेजते हैं, फिर बाद में तलाक़ देने से इनकार कर देते हैं और पत्नी के दोबारा शादी करने पर उसे बहुविवाह का आरोप लगाकर ब्लैकमेल करते हैं। अदालत इस मामले में आगे लंबी सुनवाई कर सकती है। तो सवाल है क्या इस प्रथा को रेगुलट किया जाएगा या फिर कहीं इसको भी तलाक़-ए-बिदअत की तरह ख़त्म करने की नौबत तो नहीं आएगी? और यदि ऐसा हो गया तो क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड यह सब स्वीकार करेगा?
सबसे पहले जानिए कि यह मामला क्या है और सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ। पत्रकार बेनज़ीर हीना ने अपने पति के वकील द्वारा भेजे गए तलाक की प्रक्रिया पर आपत्ति जताई है। उन्होंने अदालत में एक याचिका लगाई है। उनके अलावा एक डॉक्टर ने भी ऐसी ही याचिका लगाई है। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस उज्ज्वल भुईयां और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच ने कहा, 'यह कैसे प्रथा हो सकती है? नए-नए आविष्कार कहां से आ रहे हैं? अगर धार्मिक रिवाज भी हैं तो कम से कम वह काम उसी व्यक्ति को करना चाहिए जिसका रिश्ता है। अब तो वकील तलाक़ देने लगे हैं? कल को क्लाइंट वकील से मुकर जाए तो? फिर गरीब औरत दोबारा शादी कर लेगी तो पुराना पति आकर कहेगा– तुम बहुविवाह कर रही हो! क्या सभ्य समाज ऐसी प्रथा को बर्दाश्त कर सकता है?'
क्या है तलाक़-ए-हसन?
यह इस्लामी कानून के तहत तलाक़ का एक तरीका है जिसमें पति लगातार तीन महीनों तक हर महीने एक बार तलाक़ बोलता है। इस बीच इसे वापस लिया जा सकता है यानी यह रिवोकेबल है। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में तीन तलाक़ यानी तलाक़-ए-बिदअत को असंवैधानिक घोषित किया था, लेकिन तलाक़-ए-हसन और तलाक़-ए-अहसन अभी भी वैध हैं।
मुख्य याचिकाकर्ता बेनज़ीर हीना की आपबीती
पत्रकार बेनज़ीर हीना ने कोर्ट को बताया कि उनके पति ने अप्रैल 2025 में स्पीड पोस्ट से पहला तलाक़ नोटिस भिजवाया, लेकिन 11 पन्नों के नोटिस पर पति का हस्ताक्षर तक नहीं था। नोटिस उनके वकील ने भेजा था। दूसरा और तीसरा नोटिस भी वकील ने ही भेजा। उन्होंने कहा है कि अब पति ने दूसरी शादी कर ली है, लेकिन बेनज़ीर को सिर्फ 17000 रुपये एकमुश्त दिए। हीना के वकील ने कहा कि उन्होंने अपनी पीड़ा बताते हुए कहा है कि 4 साल के बच्चे का स्कूल एडमिशन नहीं हो रहा, पासपोर्ट ऑफिस में तलाक़ साबित करने के लिए नोटिस दिखाने पर मजाक उड़ाया गया।
कोर्ट ने क्या-क्या सवाल उठाए?
- क्या वकील तलाक़ दे सकता है?
- बिना पति के हस्ताक्षर वाला नोटिस मान्य कैसे?
- इससे औरतों को बहुविवाह का डर दिखाकर ब्लैकमेल करने की गुंजाइश बनती है।
- गांव-कस्बों की अनपढ़ औरतों की आवाज कौन सुनेगा?
- क्या कोर्ट को ऐसी भेदभावपूर्ण और शोषणकारी प्रथाओं में दखल देना चाहिए?
- अगर खामियां हैं तो क्या इन्हें रेगुलेट किया जा सकता है या इन्हें भी तलाक़-ए-बिदअत की तरह ख़त्म करना पड़ेगा?
जस्टिस सूर्यकांत ने तलाक़ देने वाले पति (जो खुद वकील हैं) को अगली तारीख पर व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का आदेश दिया और कहा, 'उन्हें शालीनता से आना चाहिए और जो यह महिला मांग रही है, बिना शर्त दे। वह अपनी जिंदगी एंजॉय करे और इसकी जिंदगी बर्बाद करे– यह हक उसे नहीं है।'
कोर्ट ने बेनज़ीर को 26 नवंबर (संविधान दिवस) तक एक आवेदन दाखिल करने को कहा है जिसमें बच्चे के स्कूल एडमिशन, पासपोर्ट आदि की समस्याएँ लिखी जाएँगी। कोर्ट ने कहा, 'संविधान दिवस है, कुछ तो करना चाहिए।'
दूसरी याचिकाकर्ता का दर्द
एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय के अनुसार एक 25 साल की महिला ने कहा, "मेरे पति ने एक साथ दो बार ‘तलाक़-तलाक़’ बोला (तीन की बजाय दो)। न कोई तलाकनामा, न कोई लिखित प्रमाण। शयारा बानो केस में 5 तरह के तलाक़ को चैलेंज किया गया था, आज मेरे पास छठा वाला है। मेरी बहनें दूसरे धर्मों में शादीशुदा हैं, उन्हें समान अधिकार हैं – मुझे क्यों नहीं? मेंटेनेंस भी एक रुपया नहीं दिया।”उपाध्याय ने 5 जजों की बेंच में रेफर करने की मांग की, लेकिन जस्टिस कांत ने कहा कि पहले 3 जजों की बेंच ही मुद्दों पर विचार करेगी, बाद में जरूरत पड़ी तो बड़ी बेंच भेजा जा सकता है।
कोर्ट ने सभी पक्षों से बड़े सामाजिक मुद्दों पर लिखित नोट मंगवाए हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और केरल की दो धार्मिक संस्थाओं के इंटरवेंशन आवेदनों को स्वीकार कर लिया गया है। एनएचआरसी को भी विस्तृत जवाब देने के लिए और समय दिया गया है। अगली सुनवाई 26 नवंबर 2025 को होगी। यह मामला एक बार फिर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों, लैंगिक समानता और पर्सनल लॉ में सुधार की बहस को तेज करने वाला है।