सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से सवाल किया कि यदि कोई राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को लंबे समय तक लंबित रखता है या उनकी मंजूरी में देरी करता है, तो ऐसी स्थिति में क्या कानूनी उपाय हैं। यह सवाल राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस के तहत उठा। प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस एक विशेष प्रावधान है जिसके तहत भारत के राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से किसी भी कानून या फिर संवैधानिक मुद्दे पर सलाह मांग सकते हैं या उसके अपने फ़ैसले पर विचार करने के लिए कह सकते हैं।

राज्यपालों द्वारा अनिश्चित काल के लिए विधेयकों को लटका कर रखे जाने के सुप्रीम कोर्ट के सवाल पर भारत के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने कहा कि ऐसी स्थिति में भी, न्यायालय राज्यपाल के कार्यों को अपने हाथ में लेकर विधेयकों पर अपनी सहमति नहीं दे सकता। भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी।
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2020 से विधेयक लंबित?

सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणि से पूछा कि क्या तमिलनाडु राज्यपाल मामले के फैसले में यह कथन कि 2020 के विधेयक लंबित हैं, सही है। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस सूर्यकांत ने पूछा, 'जो तथ्य नोट किए गए हैं...क्या यह सही है कि 2020 के विधेयक लंबित हैं?' यह स्वीकार करते हुए कि यह तथ्यात्मक रूप से सही था, अटॉर्नी जनरल ने कहा, 'यह तथ्यात्मक रूप से सही है। मान लीजिए, अगर यह तथ्यात्मक रूप से सही भी है, तो भी इतने सारे विधेयक वापस भेज दिए गए... यही तो प्रक्रिया है। मैं मामले के तथ्यों पर वापस नहीं जाना चाहता था, क्योंकि मैं वहाँ पेश हुआ था।'

एजी ने कहा कि विधेयकों को मंजूरी देने में देरी के लिए कुछ सफाई दी गई थी, जिन्हें न्यायालय ने खारिज कर दिया। अटॉर्नी जनरल ने कहा, 'ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से राज्यपाल ने समय पर अपनी सहमति नहीं दी। हम उन कारणों पर विचार नहीं कर रहे हैं। हम फैसले के उन खास तथ्यों या निष्कर्षों पर विचार नहीं कर रहे हैं। हम कानून की स्थिति के बारे में बात कर रहे हैं। क्या न्यायालय मान्य सहमति घोषित करने के लिए धारा 142 के तहत दी गई शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है? इसकी जांच होनी चाहिए।'

गैर बीजेपी शासित राज्यों के आरोप क्या?

प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस का आधार उन कई मामलों से जुड़ा है, जहां गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव देखा गया है। तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने आरोप लगाया है कि उनके राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को या तो अनिश्चितकाल के लिए लंबित रख रहे हैं या बिना कारण बताए अस्वीकार कर रहे हैं। 

पंजाब सरकार ने भी कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा था कि राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने कई महत्वपूर्ण विधेयकों को मंजूरी नहीं दी, जिससे राज्य का प्रशासनिक कामकाज प्रभावित हुआ।

इसी तरह केरल सरकार ने राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के खिलाफ शिकायत की थी कि उन्होंने सात विधेयकों को लंबित रखा, जिनमें विश्वविद्यालय सुधार से संबंधित विधेयक शामिल थे। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु ने भी इसी तरह की शिकायतें दर्ज की थीं। इन राज्यों का तर्क है कि राज्यपालों का यह रवैया संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन करता है, जो राज्यपाल को विधेयक पर सहमति देने, अस्वीकार करने या कुछ मामलों में राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार देता है।

सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल से पूछा, 'यदि कोई राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को लंबे समय तक लंबित रखता है, तो क्या उपाय है? क्या संविधान इस स्थिति के लिए कोई समयसीमा निर्धारित करता है? क्या कोई कानूनी उपाय है जिसके तहत राज्यपाल को जवाबदेह ठहराया जा सकता है?'

मुख्य न्यायाधीश ने यह भी टिप्पणी की कि अनुच्छेद 200 में राज्यपाल को विधेयक पर जल्द से जल्द कार्रवाई करने का निर्देश है, लेकिन 'जल्द से जल्द' की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। उन्होंने पूछा, 'क्या इसका मतलब यह है कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक को लंबित रख सकता है? यदि हां, तो यह संवैधानिक ढांचे को कमजोर करता है।'
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अटॉर्नी जनरल का जवाब

अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कोर्ट को बताया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं: विधेयक को मंजूरी देना, उसे अस्वीकार करना, या कुछ मामलों में राष्ट्रपति के पास भेजना। एजी ने यह भी कहा कि राज्यपाल का पद संवैधानिक है, और उनकी कार्रवाइयों को विधानसभा की संप्रभुता के साथ संतुलित करना होगा। उन्होंने कोर्ट से अनुरोध किया कि वह इस मामले में एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाए, ताकि केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव न बढ़े।

राज्यों की दलीलें

सुनवाई में राज्यों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और पी चिदंबरम ने दलील दी कि राज्यपालों का विधेयकों को लंबित रखना विधानसभा की शक्ति को कमजोर करता है। सिंघवी ने कहा, 'यदि राज्यपाल बिना कारण बताए विधेयक को होल्ड करता है, तो यह विधानसभा के जनादेश का अपमान है। यह संवैधानिक प्रक्रिया को ठप करने का प्रयास है।'

केरल सरकार ने विशेष रूप से विश्वविद्यालय विधेयकों को लंबित रखने पर आपत्ति जताई, जिसमें राज्यपाल ने सात विधेयकों को मंजूरी नहीं दी थी। पश्चिम बंगाल ने दावा किया कि उनके राज्यपाल ने 10 विधेयकों को लंबित रखा, जिससे शिक्षा और प्रशासन जैसे क्षेत्र प्रभावित हुए।
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पिछले फैसले और संवैधानिक स्थिति

सुप्रीम कोर्ट ने पहले कहा था कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि यदि राज्यपाल विधेयक को अस्वीकार करता है, तो उसे अपने निर्णय के कारण बताने होंगे। 

सुप्रीम कोर्ट में इस पेसिडेंशियल रेफ़रेंस की सुनवाई से केंद्र-राज्य संबंधों और राज्यपाल की भूमिका को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला आ सकता है। यदि कोर्ट समयसीमा तय करता है या राज्यपालों की जवाबदेही के लिए दिशानिर्देश जारी करता है तो यह भविष्य में इस तरह के टकराव को कम कर सकता है। यह मामला न केवल संवैधानिक प्रक्रिया, बल्कि भारत के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भी अहम है। अगली सुनवाई में कोर्ट के रुख और अटॉर्नी जनरल की दलीलों पर सभी की नजरें टिकी हैं।