सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उन लोगों को मुआवजा देने के लिए एक कानून की ज़रूरत है, जो लंबे समय तक जेल में रहने के बाद बरी हो जाते हैं। यह टिप्पणी एक ऐसे मामले में आई जिसमें 2011 के एक डबल मर्डर केस में मौत की सजा पाए एक व्यक्ति को दोषमुक्त किया गया। कोर्ट ने जांच में खामियों और सबूतों की कमी का हवाला देते हुए मंगलवार को यह फ़ैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने संसद से अपील की कि वह विदेशी न्याय प्रणालियों के प्रावधानों से प्रेरणा लेकर इस दिशा में क़ानून बनाए।

सुप्रीम कोर्ट ने केरल में 2011 में एक युवा जोड़े की हत्या के मामले में कट्टावेल्लई उर्फ देवकर को बरी कर दिया। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार इस मामले में देवकर को निचली अदालत और हाई कोर्ट, दोनों ने दोषी ठहराया था और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई थी। हालांकि, जस्टिस विक्रम नाथ, संजय करोल और संदीप मेहता की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने पाया कि जांच में गंभीर खामियां थीं और डीएनए परीक्षण में प्रोफ़ेशनलिज़्म की कमी थी। जस्टिस संजय करोल ने 77 पेज के फैसले में लिखा, 'यह चिंताजनक है कि दोषसिद्धि का कोई आधार ही नहीं था, फिर भी अपीलकर्ता को वर्षों तक हिरासत में रखा गया।'
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कोर्ट ने नोट किया कि हथियार पर कोई खून नहीं मिला, चिकित्सक ने यह नहीं बताया कि मृतकों की चोटें उसी हथियार से हुईं और कपड़ों पर न तो वीर्य और न ही खून का कोई फोरेंसिक सबूत मिला। इसके आधार पर कोर्ट ने कहा, 'हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अभियोजन पक्ष की ओर से पेश कोई भी परिस्थिति अपीलकर्ता के खिलाफ निर्णायक रूप से साबित नहीं हुई।'

मुआवजे की जरूरत पर जोर

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में गलत तरीके से लंबे समय तक हिरासत में रखे गए व्यक्ति के संदर्भ में कहा कि भारत में ग़लत कारावास के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए कोई क़ानून नहीं है, जबकि अमेरिका जैसे देशों में ऐसी व्यवस्था है। कोर्ट ने कहा, 'लंबे समय तक कारावास के बाद बरी होने वाले लोगों को मुआवजा देने के लिए संसद को कानून बनाने पर विचार करना चाहिए।' 

जस्टिस करोल ने जोर दिया कि गलत तरीके से दोषी ठहराए गए व्यक्ति को लंबे समय तक हिरासत में रखना उनके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है, जिसके लिए मुआवजा दिया जाना चाहिए।

विधि आयोग की सिफारिशें

सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग की 277वीं रिपोर्ट का ज़िक्र किया, जिसमें गलत अभियोजन के मामलों में मुआवजे की सिफारिश की गई थी। हालांकि, इस रिपोर्ट में गलत अभियोजन को केवल दुर्भावनापूर्ण अभियोजन तक सीमित रखा गया था। कोर्ट ने कहा कि यह दृष्टिकोण गलत कारावास की व्यापक स्थिति को पूरी तरह से संबोधित नहीं करता।

पहले भी उठता रहा है मुआवजे का मामला

सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी गलत कारावास के मामलों में मुआवजा देने से जुड़े आदेश दिए हैं। 

रुदुल साह बनाम बिहार सरकार (1983): रुदुल साह को 1968 में बरी होने के बावजूद 14 साल तक जेल में रखा गया। सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को 30,000 रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया था।

नंबी नारायणन बनाम केरल सरकार (2018): इसरो वैज्ञानिक नंबी नारायणन को 1994 में जासूसी के झूठे मामले में गिरफ्तार किया गया था। 24 साल की कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार को 50 लाख रुपये मुआवजा देने का निर्देश दिया।

विष्णु तिवारी मामला (2021): इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 20 साल जेल में बिताने के बाद विष्णु तिवारी को बरी किया। बीजेपी नेता कपिल मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर उनके लिए मुआवजे की मांग की थी।
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पुलिस, फोरेंसिक जाँच में सुधार हो

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में डीएनए सबूतों के गलत प्रबंधन को देखते हुए पुलिस के लिए दिशानिर्देश जारी किए। कोर्ट ने कहा कि अपराध स्थल से लिए गए नमूनों के प्रबंधन में पुलिस की प्रोफेशनलिज्म की कमी के कारण कई बार निर्दोष लोग सजा भुगतते हैं। इन दिशानिर्देशों में शामिल हैं-
  • अपराध स्थल से नमूनों को सावधानीपूर्वक जुटाना और संरक्षित करना।
  • डीएनए परीक्षण के लिए नमूनों को समय पर और सुरक्षित तरीके से प्रयोगशालाओं तक पहुंचाना।
  • फोरेंसिक जांच में पारदर्शिता और पेशेवर दृष्टिकोण अपनाना।

क्या संसद क़दम उठा सकती है?

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार की दिशा में एक अहम क़दम है। जानकारों का मानना है कि गलत कारावास न केवल व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है, बल्कि उनके परिवार को भी सामाजिक और आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाता है। गलत अभियोजन के कारण सामाजिक कलंक, मानसिक आघात और आर्थिक नुकसान जैसी समस्याएं सामने आती हैं।

विधि आयोग ने 2018 में अपनी 277वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि गलत अभियोजन के लिए विशेष अदालतें स्थापित की जाएं और पीड़ितों को तत्काल मुआवजा दिया जाए। इसमें 25,000 से 50,000 रुपये तक का अंतरिम मुआवजा और संपत्ति, स्वास्थ्य, अवसरों और पारिवारिक जीवन के नुकसान के आधार पर अंतिम मुआवजे की सिफारिश की गई थी। हालांकि, संसद ने अभी तक इन सिफारिशों को लागू करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है।
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भारत में गलत अभियोजन के मामले अक्सर राजनीतिक या सामाजिक कारणों से प्रेरित होते हैं, जैसे आतंकवाद विरोधी अभियानों में मुस्लिम युवाओं को निशाना बनाना या कुछ समुदायों को नक्सली के रूप में लेबल करना। इन मामलों में दुर्भावनापूर्ण अभियोजन को साबित करना मुश्किल होता है, क्योंकि अधिकांश बरी होने के मामले संदेह का लाभ या प्रक्रियात्मक आधारों पर होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह संसद के दायरे में है कि वह इस मुद्दे पर कानून बनाए। विशेषज्ञों का सुझाव है कि मुआवजे का अधिकार अनुच्छेद 32 के तहत मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया जा सकता है, ताकि पीड़ितों को तुरंत राहत मिल सके।