सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की। अब तक इस मुद्दे पर 10 याचिकाएँ सूचीबद्ध की गई हैं।  

इस क़ानून से देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है और इस पर बहस छिड़ गई है। एक तरफ़ जहाँ याचिकाकर्ता इसे मुस्लिम समुदाय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन और धार्मिक स्वायत्तता पर हमला बता रहे हैं, वहीं केंद्र सरकार इसे पारदर्शिता और बेहतर प्रशासन के लिए ज़रूरी सुधार के रूप में पेश कर रही है। भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार और के.वी. विश्वनाथन की सुप्रीम कोर्ट की पीठ मामलों को सुनवाई की। जानिए, सुनवाई के दौरान क्या-क्या हुआ।



  • प्रतिवादियों के अनुरोध के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश पारित करने से रोक दिया तथा मामले की सुनवाई गुरुवार दोपहर 2 बजे फिर से की जाएगी। सुनवाई के बाद अंतरिम आदेश पारित किया जाएगा। 
  • सुप्रीम कोर्ट ने वक़्फ़ बोर्ड की धार्मिक संरचना पर सवाल उठाया जिसमें अधिनियम संशोधन के बाद गैर-मुस्लिम सदस्य को शामिल किया गया है। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा, 'क्या आप कह रहे हैं कि अब से आप मुसलमानों को हिंदू न्यास बोर्ड का हिस्सा बनने की अनुमति देंगे? खुलकर कहें।'
  • सीजेआई ने बताया कि अधिनियम के अनुसार, बोर्ड के आठ सदस्य मुस्लिम हैं और संभवतः केवल दो नहीं हैं। उन्होंने कहा, 'तो हिंदू न्यास के सलाहकार बोर्डों में गैर-हिंदू भी क्यों नहीं हैं?' जब सॉलिसिटर जनरल ने सुझाव दिया कि इसी तर्क से वर्तमान पीठ मामले की सुनवाई नहीं कर सकती, तो सीजेआई खन्ना ने पलटवार करते हुए कहा, 'जब हम यहां बैठते हैं तो हम अपना धर्म खो देते हैं। हमारे लिए दोनों पक्ष एक जैसे हैं।'
  • न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने यह भी कहा कि मस्जिदों में प्रवेश और बाहर निकलने जैसे व्यावहारिक मुद्दे हैं, यही वजह है कि परिसर से परिचित होना प्रासंगिक हो सकता है। एसजी ने जवाब दिया कि इस तरह की जाँच चैरिटी कमिश्नर द्वारा की जा सकती है।
  • सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने यूज़र द्वारा वक्फ को रद्द करने की व्यावहारिकता पर चिंता जताई। भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने देखा कि कई पुरानी मस्जिदें, खासकर 14वीं से 16वीं सदी की मस्जिदें, रजिस्टर्ड सेल डीड्स नहीं रखती हैं। सीजेआई ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा, 'आप ऐसे वक्फ बाय यूज़र को कैसे पंजीकृत करेंगे? उनके पास कौन से दस्तावेज होंगे?' उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसे वक्फ को रद्द करने से बड़े मुद्दे पैदा हो सकते हैं।
  • यह स्वीकार करते हुए कि कानून का कुछ दुरुपयोग होता है, मुख्य न्यायाधीश ने जोर देकर कहा कि वास्तविक वक्फ संपत्तियाँ भी हैं जिन्हें लंबे समय से उपयोग के माध्यम से मान्यता दी गई है। उन्होंने कहा, 'मैंने प्रिवी काउंसिल के फैसलों को भी पढ़ा है। वक्फ बाय यूज़र को मान्यता दी गई है। अगर आप इसे रद्द करते हैं तो यह एक समस्या होगी।'


  • वरिष्ठ वकील अभिषेक सिंघवी ने कहा कि वक़्फ़ अधिनियम का पूरे भारत में प्रभाव होगा और याचिका को उच्च न्यायालय में नहीं भेजा जाना चाहिए। हालांकि, सीजेआई संजीव खन्ना ने कहा कि एक उच्च न्यायालय को याचिकाओं से निपटने के लिए कहा जा सकता है। 
  • सीजेआई संजीव खन्ना ने कहा कि वे वक़्फ़ अधिनियम पर रोक लगाने के पहलू पर कोई दलील नहीं सुन रहे हैं। सीजेआई ने कहा, 'हम यह नहीं कह रहे हैं कि कानून के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई करने और फैसला करने में सुप्रीम कोर्ट पर कोई रोक है।'
  • सीजेआई संजीव खन्ना ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, 'जब हम दिल्ली हाईकोर्ट में थे, तो हमें बताया गया था कि हाईकोर्ट खुद वक्फ की संपत्ति पर बना है।'
  • वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, 'वक़्फ़ काउंसिल में ग़ैर-मुस्लिमों को शामिल करना अनुच्छेद 26 का सीधा उल्लंघन है।' वक़्फ़ अधिनियम 2025 में ग़ैर-मुस्लिम प्रतिनिधित्व की अनुमति दिए जाने पर सिब्बल ने कहा कि यह क़ानून इस देश के 20 करोड़ लोगों की आस्था पर संसदीय अतिक्रमण है।
  • कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, 'राज्य कौन होता है यह बताने वाला कि मेरे धर्म में उत्तराधिकार कैसे होगा?' 
  • सिब्बल के जवाब पर सीजेआई खन्ना ने कहा, 'लेकिन हिंदू धर्म में ऐसा होता है, इसलिए संसद ने मुसलमानों के लिए क़ानून बनाया है। हो सकता है कि यह हिंदुओं जैसा न हो… अनुच्छेद 26 इस मामले में क़ानून बनाने पर रोक नहीं लगाएगा। अनुच्छेद 26 सार्वभौमिक है और यह इस मायने में धर्मनिरपेक्ष है कि यह सभी पर लागू होता है।'
  • वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, राजीव धवन, सीयू सिंह और अन्य वक्फ संशोधन अधिनियम की सुनवाई में याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
  • वक़्फ़ अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कुल 10 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में सूचीबद्ध की गई हैं। याचिकाएं एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, आप नेता अमानतुल्ला खान, एसोसिएशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स, अरशद मदनी, समस्त केरल जमियथुल उलेमा, अंजुम कादरी, तैय्यब खान सलमानी, मोहम्मद शफी, मोहम्मद फजलुर्रहीम और राजद नेता मनोज कुमार झा ने दायर की हैं।
  • टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा और समाजवादी पार्टी नेता जिया-उर-रहमान बर्क द्वारा दायर ताजा याचिकाएं अभी सूचीबद्ध नहीं की गई हैं।
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बता दें कि वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 को संसद में तीखी बहस के बाद पारित किया गया और 5 अप्रैल को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी मिलने के बाद यह क़ानून बन गया। यह अधिनियम वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन और नियमन में बड़े बदलाव लाता है। इसमें ग़ैर-मुस्लिमों को वक़्फ़ बोर्ड में शामिल करने, वक़्फ़-बाय-यूज़र की अवधारणा को हटाने और कार्यकारी अधिकारियों को अधिक शक्तियां देने जैसे प्रावधान शामिल हैं।

इन प्रावधानों को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं में हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी, आप विधायक अमानतुल्लाह खान, तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, आरजेडी सांसद मनोज झा और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड व जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे कई धार्मिक संगठन शामिल हैं।


याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता, 25 यानी धार्मिक स्वतंत्रता, 26 यानी धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन का अधिकार, और 300A यानी संपत्ति का अधिकार का उल्लंघन करता है। उनका तर्क है कि वक़्फ़ बोर्ड में ग़ैर-मुस्लिमों को शामिल करना और बोर्ड के चुनावी ढांचे को ख़त्म करना मुस्लिम समुदाय के आत्म-प्रबंधन के अधिकार को कमजोर करता है।

वे कहते हैं कि वक़्फ़-बाय-यूज़र की अवधारणा हटाना ग़लत है क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा मान्यता प्राप्त सिद्धांत है, जिसके तहत लंबे समय तक धार्मिक उपयोग से कोई संपत्ति वक़्फ़ बन जाती है। इस अवधारणा को हटाने से ऐतिहासिक वक़्फ़ संपत्तियां ख़तरे में पड़ सकती हैं।

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उनका कहना है कि कलेक्टर जैसे कार्यकारी अधिकारियों को वक़्फ़ संपत्तियों के स्वामित्व का निर्धारण करने की शक्ति देना धार्मिक स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों का उल्लंघन है। याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि यह अधिनियम केवल मुस्लिम धार्मिक संपत्तियों को निशाना बनाता है, जबकि हिंदू या सिख धार्मिक संस्थानों पर समान प्रतिबंध नहीं हैं। कई याचिकाकर्ताओं ने अधिनियम पर अंतरिम रोक लगाने की मांग की है, ताकि इसकी वैधता पर फ़ैसला होने तक इसे लागू न किया जाए।

केंद्र और राज्य सरकारों का पक्ष

केंद्र सरकार ने इस मामले में एक कैविएट दायर किया है, ताकि कोई भी एकतरफ़ा आदेश पारित होने से पहले उनकी बात सुनी जाए। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा और उत्तराखंड जैसे बीजेपी शासित राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप याचिकाएं दायर कर अधिनियम का समर्थन किया है।

इन राज्यों का तर्क है कि अधिनियम वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन में पारदर्शिता लाने और अनियमितताओं को रोकने के लिए ज़रूरी है। राजस्थान ने कहा कि यह क़ानून बिना उचित प्रक्रिया के निजी या सरकारी संपत्तियों को वक़्फ़ घोषित करने की प्रथा को रोकता है।

छत्तीसगढ़ ने तर्क दिया कि ग़ैर-मुस्लिमों को शामिल करने से वक़्फ़ बोर्ड अधिक समावेशी बनेंगे और विभिन्न मुस्लिम संप्रदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होगा। असम ने नए प्रावधान (सेक्शन 3E) का हवाला दिया, जो अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों में वक़्फ़ संपत्ति घोषित करने पर रोक लगाता है, जिससे इन क्षेत्रों में आदिवासी हितों की रक्षा होती है। महाराष्ट्र और हरियाणा ने डिजिटल पोर्टल के ज़रिए वक़्फ़ संपत्तियों के सर्वेक्षण, पंजीकरण और लेखा-जोखा को मज़बूत करने की बात कही।


सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में हिंदू पक्षकारों द्वारा 1995 के मूल वक़्फ़ अधिनियम के ख़िलाफ़ दायर दो याचिकाएँ भी शामिल हैं, जबकि अन्य ने हाल के संशोधनों की वैधता पर सवाल उठाए हैं। बता दें कि वक़्फ़ अधिनियम 1995 वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन, नियमन और संरक्षण के लिए बनाया गया था। यह क़ानून वक़्फ़ बोर्डों को स्वायत्तता देता है और वक़्फ़ संपत्तियों के सर्वेक्षण, पंजीकरण और विवादों के समाधान के लिए प्रावधान करता है। 

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बहरहाल, वक़्फ़ संशोधन अधिनियम का मामला केवल क़ानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील है। यह अधिनियम भारत में वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन की जटिलताओं को दिखाता है।

इस क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, जिनमें पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और त्रिपुरा के उनाकोटी जैसे क्षेत्रों में हिंसक झड़पें भी हुई हैं। इससे धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ने का ख़तरा भी है।

सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल है कि क्या यह अधिनियम संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है या यह वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन में ज़रूरी सुधार लाता है। कोर्ट को धार्मिक स्वतंत्रता, समानता, और संपत्ति के अधिकारों के बीच संतुलन बनाना होगा। यह भी देखना होगा कि क्या अधिनियम अन्य धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन से अलग व्यवहार करता है, जो भेदभाव के आरोपों को बल दे सकता है।


वक़्फ़ संशोधन अधिनियम को लेकर सुप्रीम कोर्ट में शुरू होने वाली सुनवाई न केवल क़ानूनी, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक नज़रिए से भी अहम है। यह मामला भारत में धार्मिक स्वायत्तता, अल्पसंख्यक अधिकारों, और सरकारी हस्तक्षेप के बीच संतुलन के सवाल को सामने लाता है। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला न केवल वक़्फ़ संपत्तियों के भविष्य को प्रभावित करेगा, बल्कि यह भी निर्धारित करेगा कि भारत में धार्मिक संस्थानों का प्रबंधन कैसे किया जाए।