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जंतर मंतर पर बैठे पहलवानों के इंसाफ़ की राह में सबसे बड़ी रुकावट क्या है?

गोंडा से बीजेपी के सांसद और भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के मामले में दिल्ली पुलिस कमाल की उदारता दिखा रही है। देश के जाने-माने पहलवानों ने उनके ख़िलाफ़ शिकायत की, सात पहलवान यौन उत्पीड़न की एफआइआर दर्ज कराने पहुंचे, लेकिन पुलिस यह देखने में लगी रही कि यह मामला एफआइआर के लायक है या नहीं। यह स्थिति तब है जब यौन उत्पीड़न को लेकर कानून बेहद सख्त है। यह बात स्पष्ट है कि यौन उत्पीड़न के मामले में शिकायत के साथ ही एफआइआर दर्ज होनी चाहिए और खुद को बेगुनाह साबित करने का दायित्व आरोपी का होना चाहिए।

जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब दिल्ली पुलिस ने सुनवाई से लगभग पहले कहा कि वह एफआआर दर्ज करने को तैयार है। उसे पता था कि कानूनन उसे यह काम करना है। सुप्रीम कोर्ट में उसके पास कोई वैध जवाब नहीं है। इसके बाद भी यह औपचारिकता निभाने में उसने कई घंटे लिए। इसके पहले दिल्ली से गोंडा पहुंच कर बृजभूषण शरण सिंह सुप्रीम कोर्ट के फैसले में अपनी आस्था जताते रहे।

बृजभूषण शरण सिंह के विरुद्ध जो दो मामले दर्ज किए गए हैं उनमें एक पॉक्सो का भी है क्योंकि शिकायत करने वालों में एक नाबालिग है। पॉक्सो का कानून भी बेहद सख्त है। ऐसे मामले में भी तत्काल गिरफ़्तारी होनी चाहिए। लेकिन दिल्ली पुलिस ऐसी कोई चुस्ती दिखाने को तैयार नहीं है। उसे पता है कि सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 3 मई को है। यानी 3 मई से पहले बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई की जल्दी दिखाने की ज़रूरत नहीं है।

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क्या यह उन कानूनों का मज़ाक नहीं है जो स्त्रियों और बच्चों की सुरक्षा के नाम पर बनाए गए हैं? ये कानून किनके लिए हैं? एक चुनावी रैली में एक भाषण के लिए दंडित किए गए राहुल गांधी को जो नेता लगातार याद दिलाते हैं कि कानून अपना काम करता है, वे इन पहलवानों के मामले में चुप क्यों हैं? बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाली सरकार के प्रधानमंत्री को क्या यह नहीं पता है कि दिल्ली के जंतर मंतर पर दुनिया में देश का नाम ऊंचा करने वाले कुछ मशहूर पहलवान बैठे हुए हैं और अपने लिए इंसाफ़ चाहते हैं?

यह तकलीफदेह स्थिति है। जिस उत्तर प्रदेश में मुठभेड़ों और बुलडोजरों के सहारे इंसाफ़ की नई परिभाषा बनाई जा रही है, वहीं बृजभूषण शरण सिंह रहते हैं।


यह सही है कि उनके विरुद्ध यूपी पुलिस के सामने कोई केस नहीं है। लेकिन क्या यह तथ्य नहीं है कि बीजेपी नेताओं के मामले में यूपी पुलिस भी लगभग वही उदारता दिखाती रही है जो बृजभूषण शरण सिंह के मामले में दिल्ली पुलिस दिखा रही है? किसान आंदोलन के दौरान किसानों पर गाड़ी चढ़ाने के आरोपी केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के बेटे को लेकर यूपी पुलिस का जो रवैया था, उस पर अदालत ने भी नाख़ुशी जताई थी। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर यूपी में भी यह मामला दर्ज होता तो शायद गोंडा के सांसद को छूना आसान नहीं होता।

देश के नामी-गिरामी पहलवानों का यह आंदोलन अब चार महीने पुराना हो चुका है। जब वे पहली बार धरने पर बैठे थे तब उन्होंने लगभग ज़िद की तरह राजनीतिक दलों को अपने मंच से दूर रखा। जब उनसे कहा गया कि इस मामले में जांच कमेटियां बन रही हैं तो उन्होंने भरोसा करके धरना तोड़ना उचित समझा। लेकिन जब वे पा रहे हैं कि उनके आंदोलन से सरकार के कानों में जूं नहीं रेंग रही, कि बृजभूषण शरण सिंह तमाम आरोपों के बाद भी सुरक्षित और आश्वस्त हैं, उनकी गिरफ़्तारी तो दूर, उनका इस्तीफ़ा तक नहीं लिया गया है और उल्टे पहलवानों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है तो वह राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने मंच पर आने दे रहे हैं। वे अपील कर रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके समर्थन में आएं। कई बड़े खिलाड़ी आए भी हैं। अभिनव बिंद्रा, नीरज चोपड़ा, कपिल देव और वीरेंद्र सहवाग जैसे जाने-माने खिलाड़ियों ने उनका समर्थन किया है। लेकिन यह आश्वस्ति अभी तक दूर है कि उन्हें इंसाफ़ मिलेगा। उल्टे उनके सामने ख़तरा अपने करियर को लेकर है।

तो यह अपने देश में इंसाफ़ की सूरत है- बिल्कुल हताश करने वाली। एक तरफ सड़कों पर न्याय दिया जा रहा है और दूसरी तरफ थानों में न्याय की संभावना अवरुद्ध की जा रही है। न्याय का वास्ता इस बात से है कि कौन मांग रहा है और किसके विरुद्ध मांग रहा है। बृजभूषण शरण सिंह अपराधी है या नहीं, यह बाद में पता चलेगा। उन पर आरोप लगाने वाले पहलवान कितने ठोस सबूतों के साथ सामने आते हैं, यह भी बाद में पता चलेगा। लेकिन यह सब तब होगा जब न्याय की प्रक्रिया शुरू होगी। अभी तो इस प्रक्रिया को ही अटका दिया जा रहा है।

इस स्थिति में इकलौती उम्मीद अभी तक सुप्रीम कोर्ट से बनती है। क़ायदे से उसे दिल्ली पुलिस के अफसरों से पूछना चाहिए कि क्या यौन उत्पीड़न विरोधी कानून में पुलिस के पास यह विकल्प है कि वह एफ़आइआर कराने आई लोगों को लौटा दे और जांच के नाम पर कई दिन यूं ही जाया होने दे? क्या इस बात पर पुलिस अफसरों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं होनी चाहिए?

न्याय का मामला बहुत संवेदनशील होता है। वह नागरिकता की बुनियादी शर्त होता है। दुर्भाग्य से धीरे-धीरे हम नागरिक नहीं रह गए हैं, भीड़ और समुदाय हो गए हैं। हम तमाम मुद्दों पर इसी तरह सोचने के आदी होते जा रहे हैं- बिना समझे कि इस खेल में अंतिम आखेट हमारा ही होना है। जिन पहलवानों ने देश को गर्व करने के अवसर दिए, जो कभी सरकार और प्रधानमंत्री के प्रति निष्ठा जताते रहे, आज वे जंतर मंतर पर न्याय की छोटी सी मांग के साथ खड़े हैं और उनकी बात नहीं सुनी जा रही। अक्सर ऐसे मौकों पर ब्रेख़्त की पंक्तियां याद आती हैं- 'हम सबके हाथ में थमा दिए गए हैं छोटे-छोटे न्याय / ताकि जो बड़ा अन्याय है उस पर पर्दा पड़ा रहे।'

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हालांकि अब वे छोटे-छोटे न्याय भी छीने जा रहे हैं क्योंकि हमने व्यवस्था को यह छूट अपनी ओर से दे दी है। क्या हम अब भी अपने अधिकारों और अपने हिस्से के न्याय के लिए सजग-सक्रिय होने को तैयार हैं? क्या हम यह समझने को तैयार हैं कि जो व्यवस्था इंसाफ़ सुनिश्चित करने के लिए बनी है, वही इस मामले में रुकावटें खड़ी कर रही है? 

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प्रियदर्शन
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