loader
फ़ोटो क्रेडिट- @AShukkla, Gaon Connection

निजीकरण: दो दिन की हड़ताल पर बैंक कर्मचारी

केंद्र सरकार की मंशा साफ है। वो एक लंबी योजना पर काम कर रही है जिसके तहत पिछले कुछ सालों में सरकारी बैंकों की गिनती अठाइस से कम करके बारह तक पहुंचा दी गई है। इनको भी वो और तेजी से घटाना चाहती है। कुछ कमजोर बैंकों को दूसरे बड़े बैंकों के साथ मिला दिया जाए और बाकी को बेच दिया जाए। उसका यही फॉर्मूला है। 
आलोक जोशी

सोमवार और मंगलवार को देश के सभी सरकारी बैंकों में हड़ताल रहेगी। देश के सबसे बड़े बैंक कर्मचारी संगठन यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स ने हड़ताल का आह्वान किया है। फोरम में भारत के बैंक कर्मचारियों और अफसरों के नौ संगठन शामिल हैं। हड़ताल की सबसे बड़ी वजह सरकार का यह एलान है कि वो आईडीबीआई बैंक के अलावा दो और सरकारी बैंकों का निजीकरण करने जा रही है। 

बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं। उनका कहना है कि जब सरकारी बैंकों को मजबूत करके अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने की जिम्मेदारी सौंपने की ज़रूरत है, उस वक्त सरकार एकदम उलटे रास्ते पर चल रही है। 

ताज़ा ख़बरें
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में एलान किया है कि इसी साल दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी का निजीकरण किया जाएगा। इससे पहले आईडीबीआई बैंक को बेचने का काम चल रहा है और जीवन बीमा निगम में हिस्सेदारी बेचने का एलान तो पिछले साल के बजट में ही हो चुका था। 

कर्मचारियों में खलबली का माहौल

सरकार ने अभी तक यह नहीं बताया है कि वो कौन से बैंकों में अपनी पूरी हिस्सेदारी या कुछ हिस्सा बेचने वाली है। लेकिन ऐसी चर्चा जोरों पर है कि सरकार चार बैंक बेचने की तैयारी कर रही है। इनमें बैंक ऑफ महाराष्ट्र, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज़ बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के नाम लिए जा रहे हैं। इन नामों की औपचारिक पुष्टि नहीं हुई है। लेकिन इन चार बैंकों के लगभग एक लाख तीस हज़ार कर्मचारियों के साथ ही दूसरे सरकारी बैंकों में भी इस चर्चा से खलबली मची हुई है। 

इंदिरा ने किया था राष्ट्रीयकरण 

1969 में इंदिरा गांधी की सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। आरोप था कि ये बैंक देश के सभी हिस्सों को आगे बढ़ाने की अपनी सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं और सिर्फ अपने मालिक सेठों के हाथ की कठपुतलियां बने हुए हैं। इस फैसले को ही बैंक राष्ट्रीयकरण की शुरुआत माना जाता है। हालांकि इससे पहले 1955 में सरकार स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को अपने हाथ में ले चुकी थी और इसके बाद 1980 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार ने छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। लेकिन बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 52 साल बाद अब सरकार इस चक्र को उल्टी दिशा में घुमा रही है। 

bank employees strike 2021 against Privatization - Satya Hindi

सरकारी कंपनियों को बेचने पर जोर

दरअसल, 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से ही यह बात बार-बार कही जाती रही है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में ही यह बात जोर देकर दोहराई है। साफ है कि सरकार सभी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निजीकरण यानी सरकारी कंपनियों को बेचने का काम जोर-शोर से करने जा रही है। 

मोदी सरकार तो यहां तक कह चुकी है कि अब वो रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण यानी स्ट्रैटेजिक सेक्टरों में भी कंपनियां अपने पास ही रखने पर जोर नहीं देना चाहती।

सरकारी बैंकों की दिक़्कतें

बैंकों के मामले में एक बड़ी समस्या यह भी है कि पिछली तमाम सरकारें जनता को लुभाने या वोट बटोरने के लिए ऐसे एलान करती रहीं जिनका बोझ सरकारी बैंकों को उठाना पड़ा। कर्जमाफी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है और इसके बाद जब बैंकों की हालत बिगड़ती थी तो सरकार को उनमें पूंजी डालकर फिर उन्हें खड़ा करना पड़ता था।

राष्ट्रीयकरण के बाद तमाम तरह के सुधार और कई बार सरकार की तरफ से पूंजी डाले जाने के बाद भी इन सरकारी बैंकों की समस्याएं पूरी तरह खत्म नहीं हो पाई हैं। निजी क्षेत्र के बैंकों और विदेशी बैंकों के मुकाबले में वो दोनों ही मोर्चों- डिपॉजिट और क्रेडिट पर पिछड़ते दिखते हैं। जबकि डूबने वाले कर्ज या स्ट्रेस्ड ऐसेट्स के मामले में वो उन दोनों से आगे हैं। पिछले तीन सालों में ही सरकार बैंकों में डेढ़ लाख करोड़ रुपये की पूंजी डाल चुकी है और एक लाख करोड़ से ज्यादा की रकम रीकैपिटलाइजेशन बॉंड के जरिए भी दी गई है। 

क्या बड़े सेठों के बैंक खतरनाक हैं? देखिए वीडियो- 

बैंकों को बेचने का फॉर्मूला

अब सरकार की मंशा साफ है। वो एक लंबी योजना पर काम कर रही है जिसके तहत पिछले कुछ सालों में सरकारी बैंकों की गिनती अठाइस से कम करके बारह तक पहुंचा दी गई है। इनको भी वो और तेजी से घटाना चाहती है। कुछ कमजोर बैंकों को दूसरे बड़े बैंकों के साथ मिला दिया जाए और बाकी को बेच दिया जाए। यही फॉर्मूला है। 

इससे सरकार को बार-बार बैंकों में पूंजी डालकर उनकी सेहत सुधारने की चिंता से मुक्ति मिल जाएगी। ऐसा विचार पहली बार नहीं आया है। पिछले बीस साल में कई बार इसपर चर्चा हुई है। लेकिन पक्ष-विपक्ष के तर्कों में मामला अटका रहा। 

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाईवी रेड्डी का कहना था कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक राजनीतिक फैसला था, इसीलिए इनके निजीकरण का फैसला भी राजनीति को ही करना होगा। लगता है कि अब राजनीति ने फैसला कर लिया है।

पीछे हैं सरकारी बैंक 

भारत में निजी और सरकारी बैंकों की तरक्की की रफ्तार का मुक़ाबला करें तो साफ दिखता है कि निजी बैंकों ने करीब-करीब हर मोर्चे पर सरकारी बैंकों को पीछे छोड़ रखा है। इसकी वजह इन बैंकों के भीतर भी देखी जा सकती है और इन बैंकों के साथ सरकार के रिश्तों में भी। और यह साफ है कि बैंकों के निजीकरण से तकलीफ तो होगी लेकिन फिर इन बैंकों को अपनी शर्तों पर काम करने की आजादी भी मिल जाएगी। 

लेकिन बैंक कर्मचारी और अधिकारी इस तर्क को पूरी तरह बेबुनियाद मानते हैं। उनका कहना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के समय ही साफ था कि प्राइवेट बैंक देश हित की नहीं अपने मालिक के हित की ही परवाह करते हैं। इसीलिए यह फैसला न सिर्फ कर्मचारियों के लिए बल्कि पूरे देश के लिए खतरनाक है। 

निजी बैंकों में गड़बड़ियां 

पिछले कुछ सालों में जिस तरह आईसीआईसीआई बैंक, यस बैंक, एक्सिस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक में गड़बड़ियां सामने आईं उससे यह तर्क भी कमजोर पड़ता है कि निजी बैंकों में बेहतर काम होता है। और यह भी सच है कि जब कोई बैंक पूरी तरह डूबने की हालत में पहुंच जाता है तब सरकार को ही आगे आकर उसे बचाना पड़ता है और तब यह जिम्मेदारी किसी न किसी सरकारी बैंक के ही मत्थे मढ़ी जाती है। यही वजह है कि आज़ादी के बाद से आज तक भारत में कोई शिड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंक डूबा नहीं है। 

बैंक यूनियनों ने निजीकरण के फैसले के ख़िलाफ़ लंबे प्रतिरोध का कार्यक्रम बनाया हुआ है। उनका आरोप है कि डूबे कर्जों की वसूली के लिए कठोर कानूनी कार्रवाई करने की जगह आईबीसी जैसे कानून बनाना भी एक बड़ी साजिश का हिस्सा है। क्योंकि इसमें आखिरकार सरकारी बैंकों को अपने कर्ज पर हेयरकट लेने यानी मूल से भी कम रकम लेकर मामला खत्म करने को राज़ी होना पड़ता है।

अर्थतंत्र से और ख़बरें

कामकाज पर पड़ेगा असर

यूनाइटेड फोरम में शामिल यूनियनों के सभी कर्मचारी और अधिकारी सोमवार और मंगलवार को हड़ताल पर रहेंगे। इससे पहले शुक्रवार को महाशिवरात्रि, शनिवार को सेकंड सैटरडे और रविवार की छुट्टी थी। यानी पूरे पांच दिन बैंकों में कामकाज बंद। हालांकि प्राइवेट बैंकों में हड़ताल नहीं होगी लेकिन अभी तक कुल बैंकिंग कारोबार का एक तिहाई हिस्सा ही उनके पास है यानी दो तिहाई कामकाज पर असर पड़ सकता है। 

इसमें भी बैंकों में पैसा जमा करने और निकालने के अलावा खासकर चेकों की क्लियरिंग, नए खाते खोलने का काम, ड्राफ्ट बनवाना और लोन की कार्रवाई जैसे कामों पर असर पड़ सकता है। हालांकि एटीएम चलते रहेंगे। स्टेट बैंक का कहना है कि उसकी शाखाओं में कामकाज चलता रहे इसके इंतजाम किए गए हैं लेकिन कहीं-कहीं हड़ताल का असर दिख सकता है। 

साभार - बीबीसी हिंदी 

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
आलोक जोशी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

अर्थतंत्र से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें