पिछले कुछ महीनों से 2024 तक भारत को 5 ख़रब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के दावे जोर-शोर से किए जा रहे हैं।
एक अमेरिकी पत्रिका न्यूज़ वीक में लिखे एक लेख में भारत के बारे में एक कटाक्ष था। लेख के अनुसार, वर्तमान सरकार काम से अधिक आंकड़ों की बाजीगरी में भरोसा करती है। पहले की सरकारों में जब एक किलोमीटर सड़क पूरी बन जाती थी तब उसे गिना जाता था, पर इस सरकार में डिवाइडर के एक तरफ़ की सड़क एक किलोमीटर होती है और डिवाइडर के दूसरे तरफ़ उसी सड़क के दूसरे हिस्से को अगला किलोमीटर गिना जाता है और यदि उसके किनारे कोई लेन है तो उसे अगले किलोमीटर में शामिल किया जाता है। यानी, पिछली सरकारों की एक किलोमीटर सड़क अब दो किलोमीटर से लेकर चार किलोमीटर तक पहुँच गयी है।
ऐसा लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था को भी सड़क की लम्बाई की तरह ज़बरदस्ती बढ़ा दिया गया है, पर सरकारी आंकड़े ही समय-समय पर इनकी पोल खोलते हैं।
अनेक अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार द्वारा जारी आंकड़ों में तमाम गलतियाँ हैं और ये आंकड़े अर्थव्यवस्था की सही स्थिति नहीं बताते हैं।
जून के महीने में अरविन्द सुब्रमण्यन ने आंकड़ों की ख़ामियों को उजागर किया था और बताया था कि वर्तमान सरकार जब सकल घरेलू उत्पाद में 7 प्रतिशत की वृद्धि बताती है तब वह वास्तविकता में महज 4.5 प्रतिशत की वृद्धि होती है। ऐसे विचार पहले भी अनेक अर्थशास्त्री रख चुके हैं, पर उम्मीद के मुताबिक़, सरकार इन दावों को लगातार खारिज करती रही है।
चलिए, आंकड़ों को दरकिनार कर भी दें, तब भी अरविन्द सुब्रमण्यन की एक बात से तो कोई इनकार नहीं कर सकता है कि उनके अनुसार, अर्थव्यवस्था के बढ़ने के लिए बढ़ते रोज़गार के अवसर, आयात-निर्यात में बढ़ोतरी, रिज़र्व खजाने में बढ़ोतरी, बढ़ता औद्योगिक उत्पादन, उत्पादों की बढ़ती माँग और बढ़ता कृषि उत्पादन ज़िम्मेदार है, पर इनमें से कुछ भी नहीं बढ़ रहा है तो फिर अर्थव्यवस्था इतनी तेज़ी से कैसे बढ़ सकती है?
जेपी मॉर्गन चेज के विशेषज्ञ जहाँगीर अज़ीज़ बताते हैं कि जब सरकार के आंकड़े ही भ्रामक हैं तब इस पर आधारित विकास हमेशा भ्रामक ही रहेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा चुनाव के नतीजों के तुरंत बाद कहा था, रसायनशास्त्र से गणित हार गया।