डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार कमजोर हो रहा है, लेकिन चुनावी माहौल में अर्थव्यवस्था पर राजनीतिक सन्नाटा छाया है। मुद्रास्फीति, बेरोज़गारी और गिरते विदेशी निवेश पर कोई चर्चा क्यों नहीं?
एक मोर्चा तो बिहार में लगा है जिसमें सारा मुल्क और उससे भी ज़्यादा प्रधानमंत्री समेत सारे राजनेता लगे हैं और हर छोटी बड़ी चीज का चुनावी लाभ लेने के लिए जाने कितना संसाधन और बुद्धि लग रही है। हर बयान में चालाकी है और उसे चुनाव को प्रभावित करने के लिए दिया जा रहा है। लेकिन दूसरी ओर देश का मुद्रा बाजार है जिसमें काफी बड़ी बड़ी बातें हो रही हैं, बड़ी हलचल है, लेकिन मीडिया समेत किसी का ध्यान उधर नहीं है। अगर इतनी हलचल है तो जाहिर तौर पर उसके खिलाड़ियों की सक्रियता के चलते ही है, लेकिन शासन से जिन लोगों का इन सबसे रिश्ता है वे कहीं और देखते लग रहे हैं। डॉलर कब 82/83 रुपए से बढ़कर 89 के करीब पहुँच गया इसकी चर्चा वैसी नहीं हुई जैसी होनी चाहिए। और इस गिरावट की वजहों तथा इसे रोकने के उपायों की चर्चा तो सिरे से गायब है।
सोशल मीडिया पर पिछले दिनों अचानक एक खबर तेजी से वायरल हो रही थी कि रिजर्व बैंक ने रुपए की गिरावट रोकने के लिए अपने रिजर्व का 35 टन सोना बेच दिया है। इसका स्रोत आधिकारिक न था लेकिन रिजर्व बैंक ने जो कदम उठाए थे उनसे यह बात जुड़ती लगती थी। अब विदेशी मुद्रा बाजार और वित्तीय बाजार में भी कम खिलाड़ी नहीं हैं। लेकिन इसका तुरंत खंडन करने की जगह रिजर्व बैंक ने काफी वक्त लगाया तथा खबर को हर आदमी तक पहुँचने दिया। और चार दिन पहले जब उसने इसका खंडन किया तब भी कई चीजें तर्क/कुतर्क के लिए छोड़ दीं। भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में यह प्रवृत्ति रही है कि वे वैश्विक मुद्रा बाजार, खासकर डॉलर से जुड़ी अनिश्चितता को समाप्त करने के लिए सोना का रिजर्व बढ़ाए। ऐसा हो रहा था तब सोना बेचने की खबर निश्चित रूप से किसी न्यस्त स्वार्थ के चलते उड़ाई गई होगी।
असल में अमेरिकी फेडरल रिजर्व जिस तरह अपने रेट की कटौती की घोषणा रोक रहा है और दुनिया में सोना-चांदी के बाजार में जैसी हलचल है वह भी अनिश्चितता को बढ़ा रहा है। और दुनिया भर के सर्राफा बाजारों में तेजी है। हमने देखा है कि दीपावली/धनतेरस के ठीक पहले किस तरह सर्राफा बाजार में तेजी आई और फिर अचानक चांदी धड़ाम से गिरी। इससे कितने आम खरीददार नुकसान में रहे इसका हिसाब नहीं है। दूसरी ओर डोनाल्ड ट्रम्प के सनकी फैसलों से दुनिया भर में चाहे जितना हंगामा मचा हो, हम कुछ ज्यादा ही प्रभावित हुए हैं। और यह चीज अब विदेश व्यापार, खासकर निर्यात के आंकड़ों में गिरावट से साफ दिख रही है। खैरियत सिर्फ इतनी है कि सेवा क्षेत्र का निर्यात रिकॉर्ड तेजी से बढ़ा है जिसने बाजार की बेचैनी को बेहिसाब नहीं होने दिया है।
अमेरिका को निर्यात में सबसे तेज कमी आई है, खासकर उन चीजों के निर्यात में जिन पर ट्रम्प ने पेनाल्टी लगाई हुई है। यह भी माना जा रहा है कि अब अमेरिका के साथ नई संधि तैयार है लेकिन घोषणा बिहार चुनाव के बाद होगी। ऐसा कृषि उत्पादों के आयात खोलने की ट्रम्प की जिद के आगे झुकने के चलते किया जा रहा है। अब तक हमारी सरकार किसानों के हितों के नाम पर, खासकर मक्का, सोयाबीन और जीएम फसलों के मामले में आयात खोलने के दबाव को नहीं मान रही थी।
अमेरिका कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए बाजार तलाश रहा है जिससे उसके किसान और पशुपालक खुश हों।
ऐसी ही चर्चा सोना बेचने की खबर के खंडन से भी जुड़ गई है क्योंकि रिजर्व बैंक ने सोने की मात्रा बताने की जगह उनका मूल्य बढ़ने की बात कही है। पिछले कुछ समय में दुनिया भर में और खास तौर पर भारत में सोने की कीमतों में जितनी वृद्धि हुई है उसमें स्टॉक या घर में रखा सोना स्वत: ज्यादा मूल्य का हो गया है। इसलिए जब अफवाह 35 टन सोना बेचने की हो तब मूल्य बढ़ने की सूचना के साथ खंडन करना पूरा भरोसा नहीं जमाता।
जहां तक कुल फ़ारेन एक्सचेंज रिजर्व की बात है तो उसमें कमी आई है। यह और बात है कि गिरावट के बावजूद वह पुराने रिकॉर्ड स्तर के आसपास है। यह गणना विदेशी करेंसी और सोने के रिजर्व के आधार पर की जाती है और इसमें सोने का बढ़ा मूल्य बैंक के हिसाब को बिना कारण बढ़ाता है। हमारे रिजर्व बैंक समेत सारे सेंट्रल बैंक अपनी मुद्रा के ज्यादा उतार चढ़ाव के समय विदेशी मुद्रा के भंडार के सहारे उसकी कीमत को संभालने की कोशिश करते हैं। जब रुपया गोते खाने लगता है तो अपने रिजर्व से डॉलर और दूसरी मुद्राएं (जिनका भंडार ज्यादा बड़ा नहीं होता) उतारकर कीमत संभाली जाती है और जब डालर या अन्य मुद्राएं सस्ती हों तो स्टाक बनाने का काम किया जाता है। सोना बहुत मुश्किल स्थिति में ही निकाला जाता है जैसा छोटे से चंद्रशेखर राज में हुआ था। और अगर अपनी मुद्रा का मोल गिरना देश के सम्मान से जुड़ा माना जाता है तो सोना बेचने को देश में दरिद्रता आने का संकेत। रिजर्व बैंक का खंडन इसीलिए जरूरी था।
विदेश व्यापार के एक छोटे से अंश या पक्ष को छोड़ दें तो अभी हमारी अर्थव्यवस्था के ज्यादातर संकेतक ऐसी बुरी स्थिति को नहीं बताते। और ट्रम्प वाला डिस्टरबेन्स सिर्फ हमारे लिए न होकर वैश्विक है, भले ही हम पर उन्होंने कुछ ज्यादा ही गलत वार किया हो। उसके क्या कारण हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन इससे अर्थव्यवस्था की स्थिति ऐसी नहीं है कि सोना बेचने की स्थिति आए। शीर्षस्थ अखबार टाइम्स आफ इंडिया के अनुसार पिछली तिमाही में फ़ारेन एक्सचेंज रिजर्व में 5.62 अरब डालर की कमी आई तब भी यह रिकार्ड स्तर के करीब है। वैसे पिछले 11 महीने के आयात के बाद कुल मिलाकर सोने का भंडार करीब 600 किलो बढ़ा है। पर आंकड़ों के इस खेल और बैंक तथा धंधेबाजों की चालाकियों के बीच सबसे बड़ी सच्चाई सामने है कि डालर नब्बे रुपए के करीब पहुँच गया है और अब वह चालीस के चुनावी वायदे की कौन कहे 82-83 के हाल के स्तर तक भी लौट कर जाने वाला नहीं है।