कर्नाटक सार्वजनिक स्थानों पर आरएसएस की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रहा है, इस आधार पर कि यह संगठन संविधान के सिद्धांतों के विरुद्ध काम कर रहा है और इसके कार्यकर्ता बच्चों और युवाओं में अशांति फैला रहे हैं, जिससे भारत की एकता और अखंडता को खतरा है।
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने मुख्य सचिव शालिनी रजनीश को आईटी/बीटी मंत्री प्रियांक खड़गे के एक पत्र के बाद मामले की जाँच कर उचित कार्रवाई करने को कहा है। इस विषय पर मंत्री के पत्र पर विपक्षी भाजपा ने विरोध जताया है और इसे कांग्रेस द्वारा शासन के पतन से जनता का ध्यान हटाने और मुख्यमंत्री पद को लेकर पार्टी के भीतर चल रहे आंतरिक सत्ता संघर्ष को छिपाने का प्रयास बताया है।
कर्नाटक के आईटी मंत्री ने अपने पत्र में मुख्यमंत्री से सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों, सार्वजनिक पार्कों, खेल के मैदानों, सरकारी नियंत्रण वाले मंदिरों और पुरातात्विक स्थलों पर आरएसएस की शाखाओं और बैठक सहित गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया है। उन्होंने आरोप लगाया कि यह संगठन अपनी गतिविधियों के माध्यम से नफरत के बीज बो रहा है। उन्होंने आगे कहा कि आरएसएस कार्यकर्ता बिना किसी अनुमति के सार्वजनिक स्थानों पर अपनी लाठियाँ दिखा रहे हैं।
खड़गे का पत्र आरएसएस के शताब्दी समारोह के समय आया है,जब रविवार को हज़ारों आरएसएस स्वयंसेवकों ने इस अवसर पर एक पदयात्रा निकाली।  भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बी.वाई. विजयेंद्र ने कहा कि यह कदम संघ की बढ़ती लोकप्रियता के प्रति कांग्रेस में बढ़ती असहिष्णुता को दर्शाता है। उन्होंने मीडिया से कहा कि आरएसएस कार्यकर्ताओं द्वारा अनुशासनहीनता का एक भी उदाहरण नहीं है और यह एक दृढ़ राष्ट्रवादी ताकत बना हुआ है, लेकिन कांग्रेस इस संगठन को पूर्वाग्रही नज़रों से देख रही है।
उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने पहले भी दो-तीन बार इस संगठन पर प्रतिबंध लगाया था, लेकिन उसे वापस लेना पड़ा। इसी पार्टी ने पहले भी आरएसएस को अपनी धाक जमाने का मौका दिया था।

आरएसएस और सांप्रदायिक सद्भाव: क्यों है खतरा? 

आरएसएस पर लंबे समय से सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने का आरोप लगता रहा है। संगठन की विचारधारा हिंदू राष्ट्रवाद पर आधारित है, जो मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति घृणा और भेदभाव को बढ़ावा देती है। इतिहास गवाह है कि स्वतंत्र भारत में आरएसएस पर तीन बार प्रतिबंध लगाया गया- 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद, जब संगठन को मुस्लिम-विरोधी हिंसा में शामिल पाया गया; 1975 के आपातकाल के दौरान, जब इसे लोकतंत्र-विरोधी गतिविधियों के लिए बैन किया गया; और 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद, जब सांप्रदायिक दंगों में उसकी भूमिका सामने आई।
ये प्रतिबंध स्पष्ट रूप से आरएसएस की मुसलमानों के प्रति सांप्रदायिक घृणा, दलितों पर अत्याचार को जायज ठहराने वाली मानसिकता और आदिवासी समुदायों को हाशिए पर धकेलने वाली नीतियों के कारण लगाए गए। संगठन की शाखाओं में प्रचारित विचारधारा ने कई बार हिंसक घटनाओं को जन्म दिया, जैसे गुजरात दंगे या हाल के 'लव जिहाद' जैसे प्रचार, जो अल्पसंख्यकों के बीच भय पैदा करते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारी संपत्तियों पर ऐसी सभाओं से युवाओं को कट्टरता की ओर धकेला जाता है, जो बहुलवादी भारत के लिए खतरा है। सिद्धरमैया का निर्देश इसी दिशा में एक सकारात्मक कदम है, जो संविधान की भावना को मजबूत करता है।

आजादी की लड़ाई से दूर रहा है आरएसएस 

आरएसएस पर लंबे समय से यह आरोप लगता रहा है कि उसका भारत की स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं रहा। इतिहासकारों और आलोचकों का दावा है कि 1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही आरएसएस ने ब्रिटिश शासन का समर्थन किया और स्वतंत्रता आंदोलन से दूरी बनाए रखी। यह संगठन अपनी हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा के लिए जाना जाता है, जिसके तहत उसने स्वतंत्रता संग्राम के बजाय हिंदू संगठन और सामाजिक सुधार पर ध्यान केंद्रित किया। उदाहरण के लिए, आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के बजाय 'राष्ट्र निर्माण' को प्राथमिकता दी, जिसे कई लोग ब्रिटिश हितों के साथ अप्रत्यक्ष सहयोग के रूप में देखते हैं। 

इतिहासकार रामचंद्र गुहा जैसे विद्वानों ने लिखा है कि आरएसएस ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रमुख आंदोलनों जैसे सविनय अवज्ञा आंदोलन या भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया। इसके विपरीत, संगठन ने अपने प्रकाशनों में ब्रिटिश शासन की आलोचना करने के बजाय मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया, जिससे सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा मिला।

आरएसएस को संविधान नहीं, मनुस्मृति चाहिए

इसके अलावा, आरएसएस का भारत के संविधान के प्रति रुख भी विवादास्पद रहा है। 1949 में जब भारत का संविधान लागू हुआ, तो आरएसएस ने इसे अस्वीकार करते हुए दावा किया कि यह भारतीय संस्कृति और हिंदू मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करता। संगठन के मुखपत्र 'ऑर्गनाइजर' में 30 नवंबर 1949 के अंक में संविधान की आलोचना की गई और मनुस्मृति को भारत के लिए उपयुक्त शासन प्रणाली बताया गया। 
इस तरह के बयानों ने आरएसएस को धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक मूल्यों के विरोधी के रूप में चित्रित किया। आलोचकों का कहना है कि आरएसएस की यह विचारधारा भारत के बहुलवादी और समावेशी स्वरूप के खिलाफ है, जो संविधान का आधार है। संविधान को लेकर इस अस्वीकृति ने संगठन को उन लोगों के निशाने पर ला दिया, जो इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हैं।

तिरंगा विरोधी रहा है आरएसएस 

एक और गंभीर विवाद आरएसएस के नागपुर मुख्यालय में तिरंगे झंडे को लेकर रहा है। लंबे समय तक आरएसएस ने अपने मुख्यालय में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराने से परहेज किया, जिसे कई लोग राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के प्रति उनकी उदासीनता के रूप में देखते हैं। 2001 तक, जब दबाव बढ़ने पर आरएसएस ने तिरंगा फहराना शुरू किया, तब तक यह मुद्दा राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन चुका था। 

आलोचकों का कहना है कि तिरंगे के प्रति इस अनिच्छा ने संगठन की राष्ट्रवादी छवि को धूमिल किया और इसके हिंदू राष्ट्रवाद को राष्ट्रीय एकता से ऊपर रखने की मंशा को उजागर किया। हाल ही में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया द्वारा सरकारी जमीनों पर आरएसएस की सभाओं पर प्रतिबंध के फैसले ने इन विवादों को फिर से चर्चा में ला दिया है, जिससे संगठन की विचारधारा और इतिहास पर सवाल उठ रहे हैं।