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प्रेमचंद 140 : 14वीं कड़ी : हिन्दू रचनाकारों में दूसरे धर्मों के प्रति उत्सुकता नहीं के बराबर?

अकादमिक और लोकप्रिय चर्चा में भी अक्सर यह दिखलाने की कोशिश होती है कि इसलाम पर कितना हिन्दू या ‘भारतीय’ रंग चढ़ गया है और वह कितना अरबी इसलाम से अलग हो गया है। मुसलमान तो हिन्दू धर्म, रीति-रिवाजों से परिचित हों, ईसाई भी, लेकिन हिन्दुओं को यह ज़रूरत शायद ही कभी महसूस हुई। वे खुद को स्वतःसम्पूर्ण मानते रहे जिन्हें अन्य धार्मिक परंपराओं से परिचय की कतई आवश्यकता नहीं।
अपूर्वानंद
कृष्ण जन्माष्टमी अभी गुजरी है। अमूमन इस रोज़ सोशल मीडिया पर उर्दू/मुसलमान शायरों की कृष्ण भक्ति या कृष्ण महिमा में लिखी गई कविताएँ उद्धृत की जाती रही हैं। इस वर्ष यह उत्साह कम दिखलाई पड़ा। क्या इसका कारण बदले हुए राजनीतिक माहौल के कारण पैदा हुई सांस्कृतिक निराशा है?
अंग्रेज़ी में लिखनेवाली एक (मुसलमान) लेखिका ने बतलाया कि उनसे एक टीवी चैनल ने मिली- जुली संस्कृति में योगदान करने वाली ऐसी रचनाओं के बारे में बतलाने को कहा जो मुसलमानों ने लिखी है, खासकर राम और कृष्ण पर! विडंबना तो यह है कि बाबरी मसजिद  का ध्वंस करके उसी की ज़मीन पर एक राम मंदिर बनाने के अभियान में भी राम की महिमा बताने के लिए इक़बाल को उद्धृत किया जाता रहा है कि उन्होंने राम को इमामे हिन्द कहा है!

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दूसरे धर्मों के प्रति उत्सुकता

क्या आपको इसका ख्याल कभी आया है कि वह चाहे बड़ा दिन हो, गुड फ्राइडे हो, ईद हो या हज़रत साहब का जन्म दिन या गुरु परब या किसी भी ग़ैर हिन्दू धर्म का कोई त्यौहार, शायद ही किसी हिंदी/हिन्दू लेखक की कविता या गद्य पंक्तियाँ ईसा, हज़रत मुहम्मद साहब या कर्बला की जंग पर याद की जाती हैं?  क्यों हिन्दू रचनाकारों में दूसरे धर्मों के प्रति उत्सुकता नहीं के बराबर पाई जाती, आदर तो रहने ही दीजिए? 

यही बात मिली-जुली संस्कृति का गान गाते हुए की जाती है। इस सम्बन्ध में होनेवाली अकादमिक और लोकप्रिय चर्चा में भी अक्सर यह दिखलाने की कोशिश होती है कि इसलाम पर कितना हिन्दू या ‘भारतीय’ रंग चढ़ गया है और वह कितना अरबी इसलाम से अलग हो गया है। मुसलमान तो हिन्दू धर्म, रीति-रिवाजों से परिचित हों, ईसाई भी, लेकिन हिन्दुओं को यह ज़रूरत शायद ही कभी महसूस हुई।
वे खुद को स्वतःसम्पूर्ण मानते रहे जिन्हें अन्य धार्मिक परंपराओं से परिचय की कतई आवश्यकता नहीं। क्या वे डरते हैं कि इनसे परिचय किया तो उनका विश्वास डगमगा जाएगा? क्या इसलिए दूसरे प्रभावों से दूर, एक बंद खोल में छिपे रहकर वे खुद को सुरक्षित कर लेते हैं?
हम इस शृंखला में सरोजिनी नायडू के उदात्त और ओजपूर्ण शब्द इसलाम की तारीफ़ में पढ़ चुके हैं। वे एक अर्थ में प्रेमचंद की समकालीन थीं। प्रेमचंद के ही दूसरे कनिष्ठ समकालीन थे जैनेंद्र। प्रेमचंद से बिलकुल अलग लेकिन जिन्हें प्रेमचंद खुद से मिलता जुलता मानते थे।
राष्ट्र और भौगोलिक सीमाओं में उसकी भावना को संकुचित करके राष्ट्रवाद के निर्माण के साथ हिंदुओं में इसलाम और ईसाइयत की भारतीयता के पर्याप्त और अंतिम होने पर संदेह होने लगा। इन दोनों पर भारतीय होने का जिम्मा था, यह दबाव कि इन्हें अपना हिंदूकरण करना है, लेकिन ऐसी कोई जिम्मेवारी हिंदुओं पर नहीं है। इस समस्या पर विचार करते हुए एक इंटरव्यू में जैनेंद्र ने कहा,
‘हिन्दू जातीय [जाति] आज सही अर्थों में उतनी उदार है, यह कहना कठिन है। इसलाम और ईसाइयत दोनों में एक निश्चित और एकाग्र धर्म श्रद्धा थी। इस दृष्टि से कह सकते हैं कि अमुक आवेश भी उनके पास था। भारतीय भूमि पर मैं मानता हूँ कि इसलाम आया, तो धीरे-धीरे उसका आवेश दब चला और जीतने से अधिक दिलचस्पी उसकी जीने में होने लग गयी।’

इस समझ पर बहस की जा सकती है, लेकिन आवेश, भावुकता और धार्मिक धाराओं के संबंध को लेकर जैनेंद्र की यह सूझ जो जीतने से अधिक जीने में दिलचस्पी को नोट करती है, ध्यान देने लायक है। आगे इसी इंटरव्यू में वे कहते हैं,

‘यों आप मुझसे पूछना चाहें तो मैं कहूँगा कि इसलाम के सहारे मुसलमान आज भी अधिक हार्दिक और भावुक है, उधर विचार और हिसाब के अतिरेक से हिन्दू अधिक स्वलिप्त और स्वनिष्ठ है।’
जैनेंद्र आम धारणा से ठीक उलट बात कर रहे हैं। हिंदुओं की आत्मग्रस्तता और मुसलमानों की हार्दिकता और भावुकता को इस तरह चिह्नित करने के लिए प्रेमचंदी दृष्टि चाहिए। और वह जैनेंद्र के पास है।
राष्ट्रवादी नज़रिए के कारण इसलाम और ईसाइयत स्थायी संदेह के घेरे में हैं क्योंकि वे प्रेरणा भारत की प्रादेशिक सीमा के बाहर से ग्रहण करते हैं। जैनेंद्र को इसे लेकर किसी प्रकार की कोई उलझन नहीं, 

‘इसलाम को माननेवाला भारतीय अरब से अपनी स्फूर्ति लाता है, तो बुरा क्या करता है? स्फूर्ति तो उपयोगी चीज़ है। जीवन उससे समर्थ होता है, प्रश्न यह है कि क्या वह स्फूर्ति और जीवन- सामर्थ्य  वापस जाकर अरब में ही खर्च होती है?...मुसलमान का देश भारत था, तीर्थ अरब था। उस तीर्थता से भारत को नुकसान क्या था? धर्म-भाव आदमी कहीं से भी प्राप्त करे, लाभ तो उसका आस पास के समुदाय को मिलता है।’
प्रेमचंद पर चर्चा के क्रम में जैनेंद्र को क्यों उद्धृत करें? क्योंकि हम मानते हैं कि जैसे भारतीय जीवन में हम गाँधी-तत्त्व की चिर-उपस्थिति यथार्थ है वैसे ही यह भी कि हिंदी चिंतन में प्रेमचंद तत्त्व की स्थायी उपस्थिति है।
इसलिए जिन्हें बाहरी और भीतरी का भेद सालता है, जो भारतीयता को अनिवार्यतः बाहरी प्रभावों से विभिन्न करके ही समझ सकते है, उनके लिए जैनेंद्र के इस इत्मीनान का कारण खोजने की आवश्यकता है। राष्ट्रवाद में भूमि की प्रधानता पर दुःख प्रकट करते हुए जैनेंद्र कहते हैं,

‘चेतना जहाँ से अपने लिए स्फूर्ति प्राप्त करे वह शुभ ही है। धर्म और स्फूर्ति का स्रोत अमुक प्रांत प्रदेश या देश में स्थावर होकर गड़ा हो, यह मोह मूढ़ता का ही है। भूमि का महत्त्व स्वयं व्यक्ति से होता है। उसको व्यक्ति और इन्सान के ऊपर चढ़ा देना भारी ग़लती है।’

प्रेमचन्द इसीलिए आध्यात्मिक स्फूर्ति का स्रोत कहीं भी हो, वहाँ तक जाकर वह पवित्र जल वे लाते हैं। उन्हें तकलीफ है कि सैंकड़ों सालों से साथ रहने के बावजूद हिंदू मुसलमानों की धार्मिक परम्पराओं से परिचित नहीं हैं। उन्हें उनकी मजहबी, श्रद्धेय शख्सियतों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं। जैसा उनके बेटे ने ‘कलम का सिपाही’ में लिखा कि प्रेमचंद ने फर्ज समझा कि इस कमी की भरपाई की जाए। और इसके लिए मेहनत करनी होगी, आलस से कम न चलेगा।

‘नबी का नीति-निर्वाह’

‘नबी का नीति-निर्वाह’ एक तरह से इस दिशा में कर्तव्य निर्वाह है। लेकिन वह इतना भर ही नहीं है। बिना खुद इसलाम  के प्रति सम्मानपूर्ण उत्सुकता के यह कहानी नहीं लिखी जा सकती थी। ‘नबी का नीति निर्वाह’  में नए धर्म के रूप में इसलाम के पाँव जमाने के वक़्त उसके संघर्ष की कथा कही गई है। नबी पैगंबर हैं, एक नवीन धार्मिक समुदाय के नेता। एक नए धर्म के प्रति सहानुभूति के बिना ये पंक्तियाँ नहीं लिखी जा सकती थीं। ये मुश्किलें शायद हर धर्म के हिस्से आती हैं:

'हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोड़े ही दिन हुए थे,  दस-पांच पड़ोसियों और निकट सम्बन्धियों के सिवा अभी और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था। ‘

वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे। बात-बात पर खून की नदियाँ बहती थीं। खानदान के खानदान मिट जाते थे। अरब की अलौकिक वीरता पारस्परिक कलहों में व्यक्त होती थी। राजनैतिक संगठन का नाम न था। खून का बदला खून, धनहानि का बदला खून, अपमान का बदला खून-मानव रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था।' 

हज़रत एक पारिवारिक आदमी भी हैं। यह दृश्य:

'धर्म का अनुराग एक दुर्लभ वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग उठता है तब बड़े प्रचण्ड रूप से उठता है। दोपहर का समय था। धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते हुए आँखों से चिनगारियाँँ निकलती थीं। हज़रत मुहम्मद अपने मकान में चिन्तामग्न बैठे हुए थे। निराशा चारों ओर अंधकार के रूप में दिखाई देती थी। खुदैजा भी पास बैठी हुई एक फटा कुर्ता सी रही थी। धन-सम्पत्ति सब कुछ इस लगन के भेंट हो चुकी थी। विधर्मियों का दुराग्रह दिनोंदिन बढ़ता जाता था। इसलाम के अनुयायियों को भाँति-भाँति की यातनाएँ दी जा रही थीं। स्वयं हज़रत को घर से निकलना मुश्किल था। खौफ़ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेंकने लगें। खबर आती थी कि आज अमुक मुसलमान का घर लूटा गया, आज फलां को लोगों ने आहत किया। हज़रत ये खबरें सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे।'
पहला वाक्य प्रेमचंद की सूक्तियों में से एक है। धर्म के अनुराग के दुर्लभ होने और उसके वेग की प्रचंडता में क्या विरोध है? यह एक दार्शनिक प्रश्न है, व्यावहारिक भी। इस दृश्य में एक घिरे हुए शख्स के रूप में हज़रत की तसवीर जिसके पास पहले से इस मुश्किल से निकलने का रास्ता नहीं है। इसलाम और खुद हज़रत को मानवीयता प्रदान करनेवाला यह दृश्य क्यों महत्त्वपूर्ण है, यह आज इसलाम और हज़रत के ख़िलाफ़ जो घृणा प्रचार है, और वह प्रेमचंद के वक़्त भी कम न था, उसको ध्यान में रखकर ही समझा जा सकता है।

जैसे हज़रत, वैसे ही ईसा, सबने अपने समय में अपने यकीन की वजह से हिंसा झेली। अपने खिलाफ़ हिंसा का जवाब देने की जगह हज़रत ने मक्का छोड़ देने का फ़ैसला किया। : 

'हजरत ने फरमाया - मुझे ये लोग अब यहाँ न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूँ पर अपने दोस्तों की तकलीफ नहीं देखी जाती।

खुदैजा - हमारे चले जाने से तो इन बेचारों को और भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम से कम आपके पास आकर रो तो लेते हैं। मुसीबत में रोने का सहारा कम नहीं होता।

हजरत - तो मैं अकेले थोड़े ही जाना चाहता हूँ। मैं अपने सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूँ। अभी हम लोग यहाँँ बिखरे हुए हैं। कोई किसी की मदद को नहीं पहुँच सकता। हम बस एक ही जगह एक कुटुम्ब की तरह रहेंगे तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने की हिम्मत न होगी। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं जिस पर चढ़ने का किसी को साहस न होगा।'

अत्याचार बढ़ता जाता है और आखिरकार हिजरत तय हो जाती है। बकौल प्रेमचंद :
'इसलाम पर विधर्मियों के अत्याचार दिन-दिन बढ़ने लगे। अवहेलना की दशा में निकलकर उसने भय के क्षेत्र में प्रवेश किया। शत्रुओं ने उसे समूल नाश करने की आयोजना करना शुरू की। दूर-दूर के कबीलों से मदद माँ गी गई। इसलाम में इतनी शक्ति न थी कि शस्त्रबल से शत्रुओं को दबा सके। हज़रत मुहम्मद ने अन्त को मक्का छोड़कर मदीने की राह ली। उनके कितने ही भक्तों ने उनके साथ हिजरत की। मदीने में पहुँचकर मुसलमानों में एक नई शक्ति, एक नई स्फूर्ति का उदय हुआ। वे नि:शंक होकर धर्म का पालन करने लगे। अब पड़ोसियों से दबने और छिपने की ज़रूरत न थी। आत्मविश्वास बढ़ा। इधर भी विधर्मियों का सामना करने की तैयारियाँ होने लगीं।' 

संकट का क्षण

कहानी की शुरुआत में ही कथाकार एक संकट का क्षण पैदा करता है, जिससे कथा बन और बढ़ सके। हज़रत ने नए धर्म की स्थापना की थी, लेकिन खुद उनके परिवार में सब उनके साथ न थे। उनकी बेटी जैनब और उनके दामाद अबुलआस  भी दीक्षित न हुए थे। बेटी को तो फिर भी पिता के ज्ञानोपदेश सुन सुनकर नए धर्म के प्रति श्रद्धा हो चली थी, लेकिन दामाद उससे विरक्त थे। कारण यह न था कि इसलाम उनके धर्म से अलग था। धर्म के उदय के समय विचार की स्वतंत्रता से उसके द्वंद्व को आहिस्ता से रख देना भी प्रेमचंद का ही कौशल है। अबुलआस  इतनी आसानी से इसलाम से प्रभावित हो जाएँ,  यह उनकी इस आज़ादखयाली के मिजाज से मेल न खाता था :

'अबुलआस विचार-स्वातन्त्र्य का समर्थक था। वह कुशल व्यापारी था। मक्के से खजूर, मेवे आदि जिन्सें लेकर बन्दरगाहों को चालान किया करता था। बहुत ही ईमानदार, लेन-देन का खरा, श्रमशील मनुष्य था, जिसे इहलोक से इतनी फुर्सत न थी कि परलोक की चिन्ता करे।
जैनब, उनकी प्यारी बीवी भी द्वंद्व में है: इस ऊहापोह से आखिर वह खुद को आज़ाद कर लेती है और पिता से दीक्षा का अनुरोध करती है।

'जैनब के सामने कठिन समस्या थी, आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर, न धर्म को छोड़ सकती थी, न पति को। घर के अन्य प्राणी मूर्तिपूजक थे और इस नये सम्प्रदाय के शत्रु। जैनब अपनी लगन को छुपाती रहती, यहाँ तक कि पति से भी अपनी व्यथा न कह सकती।'

इस ऊहापोह से आखिर वह खुद को आज़ाद कर लेती है और पिता से दीक्षा का अनुरोध करती है।धर्म को अनुयायी चाहिए, लेकिन पिता की हिचक है कि बेटी एक दूसरे धर्मावलंबी समाज के साथ कैसे रहेगी। वे बेटी को कहते हैं कि अगर वह नए दीन पर ईमान ले आई तो पति से रिश्ता टूट जाएगा। जैनब को यकीन है कि एक दिन वह खुदा पर ईमान ले आएँगे।

हजरत को अबुलआस  का विचार स्वातंत्र्य उसका अहंकार जान पड़ता है:

 

हजरत - बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सत्यवक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अन्त तक उसे ईश्वर से विमुख रखे है। वह तकदीर को नहीं मानता, आत्मा को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, ‘सृष्टि-संचालन के लिए खुदा की ज़रूरत ही क्या है? हम उससे क्यों डरें? विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है?’ ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। अधर्म को जीतना आसान है पर जब वह दर्शन का रूप धारण कर लेता है तो अजेय हो जाता है।' 

हज़रत के इस उत्तर में तर्क या विवेक और आस्था के बीच की पुरानी और लगातार चलनेवाली बहस है। वे मानते हैं कि अबुलआस  को आस्था की पात्रता ही नहीं है। इस पर पाठक खुद सोच सके, यह कहानीकार नहीं चाहेगा, हम कैसे मान लें? कहानी ज़रूर इसलाम के संघर्ष के बारे में है, लेकिन वह इस द्वंद्व के बारे में भी है।

आस्तिकता : सामूहिकता और आत्म विस्तार

जैनब इसलाम कबूल कर लेती है। अबलुलास के समुदाय में भारी विवाद छिड़ जाता है। दो भिन्न धर्मों के लोग पति-पत्नी कैसे हो सकते हैं। अबुलआस  तो अपने उसूल के मुताबिक़ उसे इसलाम की बंदगी का अधिकार देते हुए पत्नी बनाए रखना चाहते हैं। उनकी अपने समाज से बहस होती है:

'लोग अबुलआस के घर पर जमा हुए। अबूसिफियान ने, जो इसलाम के शत्रुओं से सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति थे (और जो बाद को इसलाम पर ईमान लाया), अबुलआस से कहा — तुम्हें अपनी बीवी को तलाक देना पड़ेगा।

अबुल०- हर्गिज नहीं।

अबूसि० — तो क्या तुम भी मुसलमान हो जाओगे?

अबु० — हर्गिज नहीं।

अबूसि० — तो उसे मुहम्मद ही के घर रहना पड़ेगा।

अबु० — हर्गिज नहीं, आप मुझे आज्ञा दीजिए कि उसे अपने घर लाऊँ।

अबूसि० — हर्गिज नहीं।

अबु० — क्या यह नहीं हो सकता कि मेरे घर में रह कर वह अपने मतानुसार खुदा की बन्दगी करें?

अबूसि० — हर्गिज नहीं।

अबु० — मेरी कौम मेरे साथ इतनी भी सहानुभूति न करेगी?

अबूसि० — हर्गिज नहीं।

अबु० — तो फिर आप लोग मुझे अपने समाज से पतित कर दीजिए। मुझे पतित होना मंजूर है, आप लोग चाहें जो सजा दें, वह सब मंजूर है। पर मैं अपनी बीवी को तलाक नहीं दे सकता। मैं किसी की धार्मिक स्वाधीनता का अपहरण नहीं करना चाहता, वह भी अपनी बीवी की।

अबूसि० — कुरैश में क्या और लड़कियाँ नहीं हैं?

अबु० — जैनब की-सी कोई नहीं….मैं प्रेम और केवल प्रेम का भक्त हूँ और मुझे विश्वास है, कि जैनब का-सा प्रेम मुझे सारी दुनिया में नहीं मिल सकता।

अबूसि० — प्रेम होता तो तुम्हें छोड़कर दगा न करती।

अबु० — मैं नहीं चाहता कि प्रेम के लिए कोई अपने आत्मस्वतान्त्रय का त्याग करे।

अबूसि० — इसका मतलब यह है कि तुम समाज के विरोधी बनकर रहना चाहते हो। अपनी आँखों की कसम, समाज अपने ऊपर यह अत्याचार न होने देगा, मैं समझाये जाता हूँ, न मानोगे तो रोओगे।'  

इस बहस को गौर से पढ़िए और इसमें आने वाले शब्दों पर, जोकि पूरी अवधारणाएँ हैं, विचार कीजिए। वे शब्द हैं सहानुभूति, धार्मिक स्वाधीनता, आत्मस्वातंत्र्य और प्रेम।

हममजहब लोगों से लड़ने के बाद अबुलआस  अपनी बीवी को विदा कराने ससुराल जाते हैं। वहाँ तकरीबन यही बहस उनकी अपने ससुर से, जो खुद हजरत हैं होती है। इस बहस में कौन बड़ा बनकर उभरता है? बात लंबी हो रही है, लेकिन यह बहस हमारे लिए हमेशा उपयोगी रहेगी, इसलिए इसे धीरे धीरे पढ़ना ही होगा इस उद्धरण का पहला अंश :

'अबूसिफियान और उनकी टोली के लोग तो धमकियाँ देकर उधर गये इधर अबुलआस ने लकड़ी सम्हाली और ससुराल जा पहुँचे। शाम हो गई थी। हज़रत अपने मुरीदों के साथ मग़रिब की नमाज़ पढ़ रहे थे। अबुलआस ने उन्हें सलाम किया और जब तक नमाज़ होती रही, ग़ौर से देखते रहे। आदमियों की कतारों का एक साथ उठना-बैठना और सिजदे करना देखकर उनके दिल पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। वह अज्ञात भाव से संगत के साथ बैठते, झुकते और खड़े हो जाते थे। वहाँ का एक-एक परमाणु इस समय ईश्वरमय हो रहा था। एक क्षण के लिए अबुलआस भी उसी भक्ति-प्रवाह में आ गये।

जब नमाज़ ख़त्म हो गई तब अबुलआस ने हज़रत से कहा — मैं जैनब को विदा करने आया हूँ।

हजरत ने विस्मित होकर कहा — तुम्हें मालूम नहीं कि वह खुदा और रसूल पर ईमान ला चुकी है?

अबु० — जी हाँ, मालूम है।

हज० — इसलाम ऐसे सम्बन्धों का निषेध करता है।

अबु० — क्या इसका मतलब है कि जैनब ने मुझे तलाक दे दिया?

हज० — अगर यही मतलब हो तो?

अबु० — तो कुछ नहीं, जैनब को खुदा और रसूल की बन्दगी मुबारक हो। मैं एक बार उससे मिलकर घर चला जाऊँगा और फिर कभी आपको अपनी सूरत न दिखाऊँगा। लेकिन उस दशा में अगर कुरैश जाति आपसे लड़ने के लिए तैयार हो जाय तो इसका इल्जाम मुझ पर न होगा। हाँ, अगर जैनब मेरे साथ जायगी तो कुरैश के क्रोध का भाजन मैं हूँगा। आप और आपके मुरीदों पर कोई आफत न आयेगी।

हज० — तुम दबाव में आकर जैनब को खुदा की तरफ से फेरने का तो यत्न न करोगी?

अब० — मैं किसी के धर्म में विघ्न डालना लज्जाजनक समझता हूँ।

हज० — तुम्हें लोग जैनब को तलाक देने पर तो मजबूर न करेंगे?

अबु० — मैं जैनब को तलाक देने के पहले जिन्दगी को तलाक दे दूंगा।

हज़रत को अबुलआस की बातों से इत्मीनान हो गया। अबुलआस को हरम में जैनब से मिलने का अवसर मिला। 

अबुलआस ने पूछा — जैनब, मैं तुम्हें साथ ले चलने आया हूँ। धर्म के बदलने से कहीं तुम्हारा मन तो नहीं बदल गया?

जैनब रोती हुई पति के पैरों पर गिर पड़ी और बोली — स्वामी, धर्म बार-बार मिलता है, हृदय केवल एक बार। मैं आपकी हूँ। चाहे यहाँ रहूँ, चाहे वहाँ। लेकिन समाज मुझे आपकी सेवा में रहने देगा?

अबु० — यदि समाज न रहने देगा तो मैं समाज ही से निकल जाऊँगा। दुनिया में रहने के लिए बहुत स्थान है। रहा मैं, तुम खूब जानती हो कि किसी के धर्म में विघ्न डालना मेरे सिद्धान्त के प्रतिकूल है।'

इस उद्धरण का पहला अंश तार्किक अबुलआस के भीतर बैठे आस्तिक को देख रहा है। वह हम सबके अंदर है। वह आस्तिकता सामूहिकता और आत्म विस्तार ही है।

आधुनिक कल्पना

आगे कहानी मोड़ लेती है। अबुलआस अपने धर्मवालों के साथ मुसलमानों के ख़िलाफ़ जिहाद पर जाना तय करते हैं। जैनब पूछती है कि जब वे मक्का छोड़ गए फिर क्यों उनसे लड़ना? यह भी एक आधुनिक कल्पना है, लेकिन क्या इसे यथार्थ न होना चाहिए कि 

अबु० — मक्का से चले गये, अरब से तो नहीं चले गये, उनकी ज्यादतियाँ बढ़ती जा रही हैं। जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं। मेरा उस जिहाद में शरीक होना बहुत जरूरी है।

जैन० — अगर तुम्हारा दिल तुम्हें मजबूर कर रहा है तो शौक से जाओ लेकिन मुझे भी साथ लेते चलो।

अबु० — अपने साथ?

जैन० — हाँ, मैं वहाँ आहत मुसलमानों की सेवा-सुश्रुषा करूँगी।

अबु० — शौक से चलो।

जैनब और अबुलआस का इस तरह साथ जाना एक आधुनिक कल्पना है, लेकिन क्या इसे यथार्थ न होना चाहिए?
कुरैशों की शिकस्त होती है:
'दोनों दल वाले वीर थे। अंतर यह था कि मुसलमानों में नया धर्मानुराग था, मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की आशा थी, दिलों में आत्मविश्वास था जो नवजात सम्प्रदायों का लक्षण है। विधर्मियों में बलिदान का यह भाव लुप्त था।कई दिन तक लड़ाई होती रही। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी, पर अन्त में उनके धर्मोत्साह ने मैदान मार लिया।'
अबुलआस गिरफ्तार होते हैं। प्रथानुसार वे फदिया (मुक्तिधन) देकर आज़ाद हो सकते हैं।  जैनब फदिया के तौर पर वही हार भेजती है जो खुदैजा ने मायके से विदा होते वक्त उसे दिया था। लेकिन अबुलआस का इन्साफ करने को बैठे पञ्च इस मौके का इस्तेमाल अबुलआस से पुरानी अदावत सधाने में कर लेना चाहते थे:

'उनमें अधिकांश ऐसे थे जिनको अबुलआस से पारिवारिक द्वेष था, जो उनसे किसी पुराने खून का बदला लेना चाहते थे। इसलाम ने उनमें क्षमा और अहिंसा के भावों को अंकुरित न किया हो, पर साम्यवाद को उनके रोम-रोम में प्रविष्ट कर दिया था। वे धर्म के विषय में किसी के साथ रू-रियायत न कर सकते थे, चाहे वह हज़रत का निकट सम्बन्धी ही क्यों न हो।'

अबुलआस कैदी हैं, पराजित हैं, लेकिन विजेताओं के धार्मिक अहंकार को स्वीकार नहीं करते:

'जैद ने अबुलआस की ओर कटाक्ष करके कहा — देखा, खुदा इसलाम  की कितनी हिमायत करता है। तुम्हारे पास हमसे पंचगुनी सेना थी, पर खुदा ने तुम्हारा मुँह काला किया। देखा या अब भी आँखें नहीं खुलीं?

अबुलआस ने विरक्त भाव से उत्तर दिया — जब आप लोग यह मानते हैं कि खुदा सबका मालिक है तब वह अपने एक बन्दे को दूसरे की गर्दन काटने में मदद न देगा। मुसलमानों ने इसलिए विजय पायी कि ग़लत या सही उन्हें अटल विश्वास है कि मृत्यु के बाद हम स्वर्ग में जायेंगे। खुदा को आप नाहक बदनाम करते हैं।'

पंच उस बेशकीमती हार को फदिया के तौर पर कबूल नहीं करते, जैनब की माँग करते हैं, वरना उन्हें मुसलमानों का ग़ुलाम बन कर रहना पड़ेगा।

आगे की कहानी: 

'एक तरफ हज़रत मुहम्मद निकट बैठे हुए ये बातें सुन रहे थे। वे जानते थे कि जैनब और आस एक-दूसरे पर जान देते हैं। उनका वियोग दोनों ही के लिए घातक होगा। दोनों घुल-घुलकर मर जाएँगे। सहाबियों को एक बार पंच चुन लेने के बाद उनके फ़ैसले में दखल देना नीति-विरुद्ध था। इससे इसलाम  की मर्यादा भंग होती थी। कठिन आत्मवेदना हुई। यहाँ बैठे न रह सके। उठकर अन्दर चले गये। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि जैनब की गर्दन पर तलवार फेरी जा रही हैं। जैनब की दीन, करुणापूर्ण मूर्ति आंखों के सामने खड़ी मालूम होती थी। पर मर्यादा, निर्दय, निष्ठुर मर्यादा का बलिदान माँग रही थी।'

आज़ाद दिमाग और मर्यादा का विचार

एक तरफ एक आज़ाद दिमाग है, दूसरी तरफ मर्यादा का विचार। दोनों में कौन बड़ा है?

अबुलआस जैनब का त्याग करते हैं क्योंकि 

'उन्होंने निश्यच किया, यह वेदना सहूँगा, अपमान न सहूँगा। प्रेम को गौरव पर समर्पित कर दूंगा।'
जैनब के विरह में अबुलआस खुद को काम में डुबा देते हैं। फिर उनके काफ़िले पर मुसलमानों का हमला होता है और वे गिरफ़्तार हो जाते हैं। अब उनकी किस्मत का फ़ैसला करने को बैठे पंच हज़रत को ही अपना प्रधान बना लेते हैं। यह उनके लिए परीक्षा की घड़ी है। लेकिन यह वही प्रेमचन्द हैं जो ‘पंच परमेश्वर’ लिखते हैं। हज़रत अपने दामाद के साथ रियायत नहीं कर सकते। उनके बनाए तार्किक कायदे के मुताबिक़ या तो अबुलआस फदिया दें या उन्हें बेचकर रुपया मुसलमानों में बाँट दिया जाए:

'जैनब दरवाजे के पास आड़ में बैठी हुई थी। हज़रत का यह फ़ैसला सुनकर रो पड़ी, तब घर से बाहर निकल आयी और अबुलआस का हाथ पकड़कर बोली — अगर मेरा शौहर ग़ुलाम है तो मैं उसकी लौंडी हूँ। हम दोनों साथ बिकेंगे या साथ क़ैद होंगे।

हज़रत — जैनब, मुझे लज्जित मत करो, मैं वही कर रहा हूँ जो मेरा कर्त्तव्य है; न्याय पर बैठने वाले मनुष्य को प्रेम और द्वेष दोनों ही से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि इस नीति का संस्कार मैंने ही किया है, पर अब मैं उसका स्वामी नहीं, दास हूँ। अबुलआस से मुझे जितना प्रेम है यह खुदा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। यह हुक्म देते हुए मुझे जितना मानसिक और आत्मिक कष्ट हो रहा है उसका अनुमान हर एक पिता कर सकता है। पर खुदा का रसूल न्याय और नीति को अपने व्यक्तिगत भावों से कलंकित नहीं कर सकता।'   

तार्किक अबुलआस हज़रत मुहम्मद की इन्साफपसंदी से हैरान रह जाते हैं: 

'अबुलआस हज़रत मुहम्मद की न्यायपरायणता पर चकित हो गये। न्याय का इतना ऊँचा आदर्श! मर्यादा का इतना महत्त्व! आह, नीति पर अपना सन्तान-प्रेम तक न्यौछावर कर दिया! महात्मा, तुम धन्य हो। ऐसे ही ममता-हीन सत्पुरुषों से संसार का कल्याण होता है। ऐसे ही नीतिपालकों के हाथों जातियाँ बनती हैं, सभ्यताएँ परिष्कृत होती हैं।'   

न्यायपरायणता, नीति, सभ्यताओं का परिष्कार; कहानी ख़त्म करने की हड़बड़ी में इन्हें नज़रअंदाज न कर डालिए! अबुलआस हज़रत की न्यायप्रियता से प्रभावित होकर मुसलमान हो जाते हैं।
कहानी क्या इसलाम की तारीफ़ है? या वह इस तरह भी पढ़ी जा सकती है कि आखिरकार धर्म, वह कितने ही उतने ऊँचे आदर्शों का वाहक क्यों हो, विचारस्वातंत्र्य से उसका हमेशा तनावपूर्ण रिश्ता होगा। इसलाम हो या कोई और धर्म, वह व्यक्ति, इंसान से कैसे पेश आए, यह सवाल तो बचा ही रह जाता है। फिर हम जैनेंद्र पर ही लौटें और आज का किस्सा ख़त्म करें:

'हिन्दू का पहला और अंतिम कर्तव्य यदि हिन्दुत्व के प्रति है,और मुसलमान का समझे गए इसलाम के प्रति, तो दोनों ही इन्सान से विमुख होते हैं।। उनका पहला ईमान और पहला धर्म मनुष्य के प्रति है...ऐसा हो तो हिन्दू और मुसलिम इन दो धाराओं में बहनेवाली संस्कृतियों का पानी मिलकर एक नहीं होगा, यह मैं मान नहीं सकता हूँ। ….दोनों धाराएँ सूख जाएँगी, मिट जाएँगी, अगर आग्रह रखेंगी कि पानी उनका अलग-अलग ही बहे, अंत तक कहीं मिले नहीं। आवश्यक है कि दोनों में पानी इन्सानियत का हो और इन्सानियत एक होगी।'     

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अपूर्वानंद
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