जब जब प्रेमचंद की चर्चा शुरू होती है तब तब प्रेमचंद को उनके वैचारिक व रचनात्मक सरोकारों से मुक्त कर
‘प्रेमचंद की परम्परा’ के नाम पर अमूर्त बहस छेड़ दी जाती है। अमूमन इस बहस के दो छोर होते हैं। एक छोर पर इस परंपरा में प्रेमचंद के पूर्ववर्तियों तक को शामिल करने की उदारता बरती जाती है तो दूसरे छोर पर यशपाल सरीखे लेखक भी इससे खारिज कर दिए जाते हैं। उदारता के मूल में ‘सबै भूमि गोपाल की’ की तर्ज़ पर यह भाव रहा है कि जो कुछ भी है वह साहित्य की परंपरा है, यह ‘प्रेमचंद की परंपरा’ कहां से आ टपकी! यशपाल तक को प्रेमचंद की परंपरा से खारिज करने वाले अपना ‘ओके’ उन डॉ. रामविलास शर्मा से लेते हैं जिन्होने रेणु को भी प्रेमचंद की परंपरा में प्रवेश नहीं दिया था।
दरअसल, प्रेमचंद की परंपरा का जितना क्षरण सब कुछ को इसमें शामिल करने से हुआ, उतना ही इसके कथित रक्षकों से भी हुआ है। प्रेमचंद के आचार्य रामचंद्र शुक्ल व नंद दुलारे वाजपेयी सरीखे समकालीनों की दृष्टि इस मामले में स्पष्ट थी। शुक्ल जी उन्हें ‘प्रोपेगैंडिस्ट’ व राजनीतिक, सामाजिक सुधारक के रूप में चिन्हित करते थे तो वाजपेयी जी ने इसे और साफ़ करते हुए लिखा कि “ प्रेमचंदजी के उपन्यास उनकी प्रोपेगेंडा वृत्ति के कारण काफी बदनाम हैं और हिंदी के बड़े से बड़े समीक्षक ने उसकी शिकायत की है।” उल्लेखनीय यह है कि यह सब प्रेमचंद के जीवनकाल में उनके समकालीनों द्वारा ही लिखा गया था।
प्रेमचंद पर कैसे-कैसे लांछन
इसी दौर में प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ ,’हिंदू द्रोही’, ‘ब्राह्मण द्वेषी’ आदि कहकर लांछित किया गया। प्रश्न यह है कि यह सब कहने वाले कौन थे? वही सवर्ण द्विज जो वर्ण व जाति-व्यवस्था के पोषक व पक्षधर थे। जिसके विरुद्ध प्रेमचंद ने यह ऐलान कर रखा था कि “हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन , न कायस्थ, न क्षत्रिय। उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे, या सभी हरिजन होंगे।“
लेकिन इस राष्ट्रीयता का रास्ता बकौल प्रेमचंद उस ‘स्वराज्य’ से होकर गुजरता था जिसे विदेशी जुये से ही नहीं बल्कि ‘सामाजिक जुए’ से भी मुक्त होना था। विदेशी गुलामी के साथ साथ सामाजिक गुलामी से मुक्ति प्रेमचंद के चिंतन का मुख्य आधार थी। ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुंआ’, ‘ दूध का दाम’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘मंदिर’ सरीखी कहानियां भारतीय समाज के वर्ण-जातिगत विभेद व शोषण का ही आख्यान है। ‘गोदान’ के होरी की किसान से मजदूर होने की त्रासदी और दातादीन के पुरोहित से महाजन बनने के तंत्र के मूल में हिंदू धर्म की विभेदकारी सामंती शोषक व्यवस्था ही थी। प्रेमचंद की परम्परा की कोई भी चर्चा ‘सामाजिक पराधीनाता’ के विमर्श के बिना सम्भव नहीं है।
प्रेमचंद पर लिखते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी यांत्रिक वर्गीय दृष्टि के चलते उनके इस पहलू की अनदेखी की। दरअसल डॉ. रामविलास शर्मा का यह स्पष्ट कथन था कि “शोषण का माध्यम वर्ग शोषण है। किसी का शोषण इस वजह से नहीं होता कि वह पंडित है या चमार है या किसी जाति का है।”
डॉ. रामविलास शर्मा के तर्क कितने सही?
क्या डॉ. रामविलास शर्मा की इस स्थापना के सहारे ‘सद्गति’ औए ‘ठाकुर का कुंआ’ या होरी की त्रासदी को समझा जा सकता है? इतना ही नहीं, उन्होने प्रेमचंद को ‘तुलसी के त्याग, सहृदयता और शूरता की परम्परा का उत्तराधिकारी’ तक घोषित कर दिया था। जिन प्रेमचंद ने तुलसी जयंती की अध्यक्षता का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया था और जिन्हें ‘रामचरितमानस’ में ईश्वरीय चमत्कार के चलते कोई रुचि नहीं थी, उन्हें तुलसी की परम्परा का उत्तराधिकारी घोषित करना मार्क्सवाद को ब्राह्मणवाद के कवच के रूप में इस्तेमाल करना था।
स्वीकार करना होगा कि जहां नंददुलारे वाजपेयी, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय और निर्मल वर्मा आदि ने साहित्य के शाश्वत मूल्यों की आड़ में प्रेमचंद को निशाने पर लिया, वहीं डॉ. रामविलास शर्मा ने वर्ग के आवरण में अपनी स्थापनाओं द्वारा प्रेमचंद की वैचारिक धार को गोठिल किया। यह अनायास नहीं था कि राहुल, यशपाल, रांगेय राघव, रेणु सहित जिन भी बौद्धिकों–लेखकों ने ब्राह्मणवाद, तुलसीदास और वर्णाश्रम व्यवस्था को प्रश्नांकित किया उन सभी को डॉ. रामविलास शर्मा ने यांत्रिक मार्क्सवाद की वर्गीय लाठी से लहूलुहान किया। ‘मैला आंचल’ को प्रेमचंद की परंपरा से बहिष्कृत करने के पीछे रेणु की सामाजिक न्याय को लेकर यह अवधारणा ही थी कि “सामाजिक असमानता को पहले तोड़ना होगा। आर्थिक असमानता को यही तो बलवान बनाती है।”
हिंदू- मुस्लिम विभाजन पर प्रेमचंद
इसके विपरीत डॉ. रामविलास शर्मा ‘सामाजिक न्याय’ को इस तर्क के साथ खारिज करते थे कि “सामाजिक न्याय की लड़ाई में न वर्गों को स्थान है, न वर्ग संगठनों और वर्ग-संघर्ष के लिए।” कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रेमचंद की परंपरा में वर्ग और वर्ण दोनों से मुक्ति शामिल थी। इसलिए वर्ण भेद पर आधारित शोषण के विमर्श के बिना न प्रेमचंद की वैचारिकता को समझा जा सकता है और न ‘प्रेमचंद की परंपरा’ को।
भारतीय राष्ट्र के निर्माण की दूसरी बड़ी बाधा प्रेमचंद हिंदू- मुस्लिम विभाजन मानते थे। तीस के दशक में जब हिंदू-मुस्लिम विवाद चरम पर था तब प्रेमचंद ने लगभग पचास से अधिक लेख और टिप्पणियां साम्प्रदायिकता को लेकर लिखी थीं। उन्होने ‘इस्लाम का विषवृक्ष’ सरीखी वैमनस्य फैलाने वाली पुस्तक के लेखक आचार्य चतुर सेन को कड़ी फटकार लगाई थी और स्वयं ‘कर्बला’ सरीखा नाटक और पैगम्बर मोह्हम्मद पर प्रशंसात्मक लेख लिखा था। प्रेमचंद उर्दू-हिंदी की भाषाई एकता के पक्षधर ही नहीं थे, वे स्वयं मूलत: उर्दू लेखक थे। हिंदी में उन्होंने बाद में लेखन शुरू किया। ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ की संकीर्ण मनोवृत्ति के लेखकों को इसीलिए वे फूटी आंखों भी नहीं सुहाते थे। इसे समझने के लिए उनके लेख ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ को जरूर पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद की परंपरा में इस अवदान को शामिल किए बिना ‘प्रेमचंद की परंपरा’ विकलांग और अधूरी ही रहेगी।
प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के लेखक
प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के लेखक थे, लेकिन वे खुली आंखों से इसकी कमियों और कुलीन संरचना पर भी निगाह रखते थे। राय साहबों, खन्नाओं और ओंकार नाथों पर भी वे निगाह रखते थे। इसीलिए ‘गबन’ के दलित पात्र देवीदीन से वे कहला सके कि “जब तुम सुराज का नाम लेते हो, तो उसका कौन-सा रूप तुम्हारी आंखों के सामने आता है? …अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-विलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायगा, तब तो तुम गरीबों को पीसकर पी जाओगे।” हिंदी साहित्य की प्रभुत्ववादी कुलीन परंपरा को चुनौती देने के लिए ही प्रेमचंद ने कहा था कि ‘साहित्य की कसौटी बदलनी होगी।’ अप्रैल 1936 में जब प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ के स्थापना सम्मेलन में प्रेमचंद ने यह आह्वान किया था तो वे अपने कथात्मक और वैचारिक लेखन द्वारा साहित्य की कसौटी बदल चुके थे। इस बदली हुई कसौटी का ही परिणाम था प्रेमचंद के साहित्य में होरी, धनिया, गोबर, हल्कू, दुखी, सुखिया, शंकर और सिलिया सरीखे जीवंत पात्रों की केंद्रीयता। प्रेमचंद ने हिंदी लेखन की यथार्थवादी परम्परा को जनतांत्रिक बनाया। प्रेमचंद की परंपरा के सूत्र यहां तलाशे जाने चाहिए।
प्रेमचंद को महानता के फ्रेम में मढ़कर उनकी परंपरा को झुठलाने के प्रयास पहले भी हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। इसी के चलते जब अज्ञेय ने प्रेमचंद को ‘महाकरुणा’ का लेखक कहकर प्रेमचंद शताब्दी वर्ष में उनका ‘मैथिलीशरणीकरण’ किया था, तब डॉ. नामवर सिंह ने कहा था कि प्रेमचंद महाकरुणा के नहीं संघर्ष के लेखक थे। उन्हीं के शब्दों में “संघर्ष के बिना प्रेमचंद की जीवनदृष्टि की व्याख्या नहीं की जा सकती है। …अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और इस संघर्ष के पक्ष और विपक्ष दोनों के प्रति जो दृष्टिकोण बनता है। संवेदना शत्रु के प्रति नहीं है, संवेदना मित्र के प्रति है, मित्र-वर्गों के प्रति है।” तो प्रेमचंद की परंपरा के जीवंत संदर्भ यही हैं। इसे समझने के लिए उनके चार लेख पढ़े जाने जरूरी हैं– 1- क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? ( (इस लेख का उपशीर्षक है- टकेपंथी पुजारी, पुरोहित और पंडे हिदू जाति के कलंक हैं)। 2-साम्प्रदायिकता और संस्कृति 3- महाजनी सभ्यता 4-साहित्य का उद्देश्य। ( 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में दिया गया अध्यक्षीय भाषण)।
कृपया ‘प्रेमचंद की परंपरा’ के सूत्र यहां तलाशें।
प्रेमचंद की परंपरा पर फातिहा न पढ़ें।
(वीरेंद्र यादव के फ़ेसबुक वाल से साभार)