महाराष्ट्र की सियासत में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के बीच सुलह की चर्चा ने एक बार फिर जोर पकड़ा है। शिवसेना यूबीटी के सांसद संजय राउत ने रविवार को कहा कि उद्धव और राज ठाकरे के बीच कोई औपचारिक गठबंधन नहीं है, बल्कि सिर्फ़ भावनात्मक बातचीत चल रही है। राउत का यह बयान उस समय आया, जब राज ठाकरे ने हाल ही में एक पॉडकास्ट में उद्धव के साथ फिर से जुड़ने की इच्छा जताई थी। लेकिन, क्या यह भावनात्मक बातचीत सियासी गठबंधन में बदल पाएगी? या यह सिर्फ़ महाराष्ट्र की जनता के लिए एक भावनात्मक मुद्दा है?

इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले यह जान लीजिए कि राउत ने आख़िर कहा क्या है। मुंबई में मीडिया से बात करते हुए संजय राउत ने रविवार को कहा, ‘अभी तक मनसे और शिवसेना (यूबीटी) के बीच कोई गठबंधन नहीं है, सिर्फ़ भावनात्मक बातचीत चल रही है। राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे भाई हैं। हम वर्षों से साथ हैं। हमारा रिश्ता नहीं टूटा है। गठबंधन का फ़ैसला दोनों भाई करेंगे।’ राउत ने यह भी जोड़ा कि उद्धव ठाकरे ने कोई शर्त नहीं रखी है, सिवाय इसके कि महाराष्ट्र के हित को प्राथमिकता दी जाए और ‘महाराष्ट्र के दुश्मनों’ के साथ कोई समझौता न हो। राउत ने बीजेपी और एकनाथ शिंदे की शिवसेना को ‘महाराष्ट्र का दुश्मन’ क़रार देते हुए कहा कि इनके साथ कोई रिश्ता नहीं रखा जाना चाहिए।

राउत का बयान राज ठाकरे के हालिया पॉडकास्ट साक्षात्कार के बाद आया, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘मेरे और उद्धव के बीच मतभेद छोटे हैं। महाराष्ट्र इनसे कहीं बड़ा है। मराठी मानुस के लिए एक साथ आना मुश्किल नहीं है।’ राज ने यह भी कहा कि यदि महाराष्ट्र की जनता चाहती है कि दोनों भाई एक हों तो वह अपने अहं को आड़े नहीं आने देंगे।

उद्धव और राज ठाकरे, शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के बेटे और भतीजे हैं। दोनों कभी एक ही मंच पर मराठी मानुस के लिए आवाज़ उठाते थे। लेकिन 2005 में राज ने शिवसेना छोड़ दी, जब उन्हें लगने लगा कि उद्धव को उनके ऊपर तरजीह दी जा रही है। 2006 में राज ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाई, जिसने शुरू में मराठी पहचान के मुद्दे पर अच्छा प्रदर्शन किया और 2009 के विधानसभा चुनाव में 13 सीटें जीतीं। लेकिन 2014 और 2019 के चुनावों में मनसे का प्रदर्शन कमज़ोर रहा और 2024 में वह एक भी सीट नहीं जीत सकी।

दूसरी ओर, उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) भी 2022 में एकनाथ शिंदे की बग़ावत के बाद कमज़ोर हुई। 2019 में 56 सीटें जीतने वाली शिवसेना (यूबीटी) 2024 के विधानसभा चुनाव में 20 सीटों पर सिमट गई। दोनों ठाकरे भाइयों की सियासी ताक़त कमज़ोर होने के बीच सुलह की चर्चा को बृहन्मुंबई नगर निगम यानी बीएमसी चुनावों से जोड़ा जा रहा है, जो इस साल होने की संभावना है।

ठाकरे भाइयों की सुलह की चर्चा को बीएमसी चुनावों से जोड़ा जा रहा है, जो महाराष्ट्र की सियासत में अहम हैं। शिवसेना (यूबीटी) और मनसे, दोनों ही मराठी पहचान और क्षेत्रीय गौरव के मुद्दे पर ज़ोर देते हैं।

हाल ही में महाराष्ट्र सरकार के प्राथमिक कक्षाओं में हिंदी को अनिवार्य करने के फ़ैसले का दोनों ने विरोध किया, जिसने सुलह की अटकलों को बल दिया। अगर दोनों एक साथ आते हैं तो बीजेपी-शिंदे गठबंधन के ख़िलाफ़ मराठी वोटों को एकजुट करने की कोशिश हो सकती है।

उद्धव ने सुलह के लिए एक शर्त रखी है कि महाराष्ट्र के ‘दुश्मनों’ (बीजेपी और शिंदे की शिवसेना) के साथ कोई समझौता नहीं होगा। यह शर्त राज ठाकरे के लिए मुश्किल है, क्योंकि उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और बीजेपी को बिना शर्त समर्थन दिया था। हाल ही में एकनाथ शिंदे के साथ उनकी मुलाक़ात ने भी अटकलें लगाई थीं कि राज बीजेपी के क़रीब हैं। ऐसे में उद्धव की शर्त को स्वीकार करना राज के लिए सियासी विश्वसनीयता का सवाल हो सकता है।

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राउत ने बार-बार भावनात्मक बातचीत पर ज़ोर दिया, जो दिखाता है कि ठाकरे भाइयों के बीच पारिवारिक रिश्ते मज़बूत हैं। दोनों को हाल ही में एक शादी समारोह में साथ देखा गया था, जिसने सुलह की अटकलों को हवा दी। लेकिन, सियासी गठबंधन के लिए भावनाएँ काफ़ी नहीं हैं। दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच पुरानी कटुता और अलग-अलग सियासी रणनीतियाँ गठबंधन की राह में रोड़ा बन सकती हैं।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने ठाकरे भाइयों की सुलह की संभावना का स्वागत किया और कहा, ‘अगर दोनों एक साथ आते हैं, तो हमें ख़ुशी होगी। मतभेद सुलझाना अच्छी बात है।’ लेकिन, फडणवीस ने यह भी दावा किया कि बीएमसी चुनाव में बीजेपी-शिंदे गठबंधन को हराना मुश्किल होगा।

उधर, एकनाथ शिंदे की शिवसेना के सांसद नरेश म्हस्के ने सुलह की संभावना पर सवाल उठाए और कहा कि उद्धव ने पहले राज को पार्टी में ज़िम्मेदारी देने का विरोध किया था। शिंदे के क़रीबी और पूर्व सांसद संजय निरुपम ने तंज कसते हुए कहा, ‘दो ज़ीरो मिलकर भी ज़ीरो ही रहेंगे।’ उनका इशारा था कि दोनों पार्टियों की कमज़ोर सियासी स्थिति के बावजूद गठबंधन का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होगा।

कांग्रेस और एनसीपी (एसपी) जैसे महा विकास अघाड़ी यानी एमवीए के सहयोगी दलों ने सुलह का स्वागत किया है, क्योंकि इससे बीजेपी के ख़िलाफ़ मराठी वोटों का ध्रुवीकरण हो सकता है। एनसीपी (एसपी) की सुप्रिया सुले ने कहा कि ठाकरे भाइयों का एक साथ आना महाराष्ट्र के लिए अच्छा होगा।

तो सवाल है कि क्या इनका साथ आना, इतना आसान है? राज ठाकरे की हालिया बीजेपी-समर्थक रुख और उद्धव की बीजेपी-विरोधी नीति के बीच सामंजस्य बिठाना आसान नहीं होगा। अगर राज उद्धव की शर्त मानते हैं तो उन्हें बीजेपी के साथ अपने रिश्ते तोड़ने पड़ सकते हैं, जो उनकी सियासी छवि को नुक़सान पहुंचा सकता है।

शिवसेना (यूबीटी) और मनसे के कार्यकर्ताओं के बीच सालों की दुश्मनी एक दिन में खत्म नहीं हो सकती। खासकर, मनसे की उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ हिंसक कार्रवाइयों ने शिवसेना (यूबीटी) के मॉडरेट कार्यकर्ताओं को नाराज़ किया था। दोनों पार्टियों को एक मंच पर लाने के लिए ज़मीनी स्तर पर बहुत मेहनत करनी होगी।

विश्लेषकों का मानना है कि ठाकरे भाइयों का गठबंधन मराठी वोटों को एकजुट कर सकता है, लेकिन इसका कितना सियासी लाभ होगा, यह साफ़ नहीं है। मनसे की कमज़ोर स्थिति और शिवसेना (यूबीटी) की हालिया हार से दोनों की सियासी ताक़त सीमित है। बीजेपी-शिंदे गठबंधन अभी भी मज़बूत स्थिति में है।

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उद्धव के करीबी राउत इस सुलह की चर्चा में अहम भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन, उनकी आक्रामक बयानबाजी और बीजेपी पर लगातार हमले राज ठाकरे के लिए असहज हो सकते हैं, क्योंकि राज ने हाल तक बीजेपी का समर्थन किया था। राउत की छवि एक कट्टर उद्धव समर्थक की है, जिसके कारण मनसे कार्यकर्ता उन पर भरोसा करने में हिचक सकते हैं।

संजय राउत का ‘भावनात्मक बातचीत’ वाला बयान ठाकरे भाइयों की सुलह की संभावना को ज़िंदा रखता है, लेकिन यह साफ़ है कि सियासी गठबंधन की राह आसान नहीं है। उद्धव और राज के बीच पारिवारिक रिश्ते मज़बूत हो सकते हैं, लेकिन सियासी मतभेद, कार्यकर्ताओं की कटुता, और अलग-अलग रणनीतियाँ इस सुलह को जटिल बनाती हैं। बीएमसी चुनाव इस गठबंधन के लिए एक बड़ा मौक़ा हो सकता है, लेकिन इसके लिए दोनों भाइयों को न केवल अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखना होगा, बल्कि अपने कार्यकर्ताओं को भी एकजुट करना होगा।

फिलहाल, ठाकरे भाइयों की सुलह की चर्चा महाराष्ट्र की सियासत में एक भावनात्मक लहर तो पैदा कर रही है, लेकिन यह लहर सियासी तट तक पहुंचेगी या नहीं, यह आने वाले दिन बताएंगे।