दिशोम गुरु शिबू सोरेन चले गए। 10 बार सांसद, 3 बार मुख्यमंत्री, और उससे भी बढ़कर- वो शख्स जिसने तीर-कमान से नहीं, बल्कि संघर्ष और अपनी सियासी चालों से बिहार के आदिवासियों को उनका हक दिलाया। अलग झारखंड का सपना उठाने वाले कई थे, पर उसे सच करने वाला सिर्फ एक नाम था- दिशोम गुरु। लोग कहते हैं, “गुरुजी सिर्फ नेता नहीं थे, आंदोलन की आत्मा थे।” उनके समर्थकों के लिए वे एक विचार थे, एक प्रतिरोध की पहचान।
शिबू सोरेन: जंगल से संसद तक- दिशोम गुरु की राजनीतिक दास्तान
- श्रद्धांजलि
- |
- |
- 5 Aug, 2025
झारखंड आंदोलन के नायक और दिशोम गुरु के नाम से प्रसिद्ध शिबू सोरेन की यात्रा एक साधारण आदिवासी नेता से संसद तक की प्रेरणादायक कहानी है। उनकी संघर्षपूर्ण राजनीतिक विरासत को कैसे याद किया जाएगा?

शिबू सोरेन का निधन
नेमरा से उठी हुंकार, जिसने पूरा बिहार हिला दिया
भारतीय राजनीति में झारखंड आंदोलन दरअसल आदिवासी पहचान की वह कहानी है, जिसे दिशोम गुरु ने खून-पसीने से लिखा। 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने बचपन में साहूकारों की लूट देखी, खनन कंपनियों का लालच देखा। 1969 का अकाल, जब सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा था और आदिवासी भूख से मर रहे थे, ने उनके भीतर ज्वाला भर दी। उन्होंने कसम खाई- “जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ी जाएगी।”
नेमरा (रामगढ़) की गलियों से उठी उनकी आवाज़ ने 1960–70 के दशक में आवाम को झकझोरा। जब धनकटनी आंदोलन शुरू हुआ, तब आदिवासी महिलाएँ खेतों से धान काटकर ले जाती थीं, पुरुष तीर-कमान लिए पहरे पर खड़े रहते थे। पर सिस्टम भी था- सरेंडर, गिरफ्तारी, गिरफ्तारी वारंट तक जारी।