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मुसलमानों की देश विरोधी छवि बनाने में जुटा मीडिया का एक वर्ग

कोरोना संकट के इस बेहद कठिन दौर में भी मीडिया के एक वर्ग द्वारा पूरी ताक़त के साथ यह बताने की कोशिश की गई है कि इस वायरस के संक्रमण के लिए तब्लीग़ी जमात पूरी तरह जिम्मेदार है। इस वर्ग ने मुसलमानों को आतंकवादी और राष्ट्र विरोधी नागरिकों के रूप में प्रस्तुत किया है। इसके बाद देश भर में मुसलमानों पर हमले और उनसे भेदभाव किए जाने की ख़बरें सामने आई हैं। 
जस्टिस मार्कंडेय काटजू

भारत में हाल के कुछ महीनों में मुसलमानों पर अत्याचार और उत्पीड़न बढ़े हैं तथा मीडिया के कुछ लोगों द्वारा उन्हें आतंकवादी और राष्ट्र विरोधी नागरिकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

मैं इसे लेकर कुछ विशेष उदाहरण देना चाहता हूं:

(1) कई मीडिया चैनलों ने तब्लीग़ी जमात के प्रमुख मौलाना साद को एक शैतान के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 304 (ग़ैर इरादतन हत्या) के तहत एफ़आईआर दर्ज की गई है और उनके घर पर छापा भी मारा गया है।

यह आरोप कि उन्होंने जानबूझकर भारत में कोरोना वायरस फैलाया है, सरासर झूठ और हास्यास्प्रद प्रतीत होता है। मुसलमान दशकों से निजामुद्दीन के मरकज़ में इकट्ठा होते रहे हैं और इसलिए मार्च में भी हुए थे। मरकज़ में कई लोग मलेशिया, इंडोनेशिया, किर्गिस्तान आदि से आए थे और यह संभव है कि कुछ लोग कोरोना से संक्रमित रहे हों जिन्होंने अनजाने में जमात के दूसरे लोगों में भी बीमारी फैलायी। लेकिन यह कहना कि ऐसा जानबूझकर किया गया, यह बिल्कुल बेतुका है। इसलिए मौलाना के ख़िलाफ़ यह एफ़आईआर पूरी तरह से अनुचित और आधारहीन है।

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कुछ लोग पूछते हैं कि मौलाना साद पुलिस के सामने आत्मसमर्पण क्यों नहीं करते? कोई भी इसके सही कारण का अनुमान नहीं लगा सकता है लेकिन यह बहुत संभव है कि वह डर गए हों कि ऐसा करने पर पुलिस उन पर थर्ड डिग्री (प्रताड़ना) का उपयोग करेगी। 

शरजील इमाम का मामला

(2) शरजील इमाम नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में अपने भाषण के लिए राजद्रोह के आरोप का सामना कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर भारत से असम को काटने का आह्वान किया था।

शरजील के पास आईआईटी, मुंबई से मास्टर डिग्री है और वह जेएनयू में पीएचडी की पढ़ाई कर रहे हैं। अपने भाषण में उन्होंने कहा था, ‘‘असम और भारत कट कर अलग हो जाएं तभी ये हमारी बात सुनेंगे।’’ इससे यह स्पष्ट है कि शरजील केवल सरकार को सीएए के विरूद्ध अपनी भावना बताना चाहते थे न कि वह असम को भारत से काटने के बारे में गंभीर थे।

इसके अलावा, यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अरूप भुयान बनाम असम राज्य (2011) के मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय ब्रांडनबर्ग बनाम ओहायो के सिद्धान्त का अनुसरण किया जिसमें अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तभी प्रतिबंध लगाया जा सकता है जब वह क़ानून और व्यवस्था के लिये ख़तरा पैदा करे। 

शरज़ील ने ऐसा कोई भाषण नहीं दिया, इसलिए उनका भाषण भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा से परे नहीं था।

डॉ. कफील ख़ान का मामला

(3) एक चिकित्सक (बाल रोग विशेषज्ञ) डॉ. कफील ख़ान को 12 दिसंबर, 2019 को अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में नागरिकता क़ानून विरोधी प्रदर्शन के संबंध में भाषण देने के लिए इस साल जनवरी के महीने में गिरफ्तार किया गया था। कफील पर आरोप था कि उन्होंने अपने भाषण में धर्मों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने वाली बात कही। (धारा 153 ए आईपीसी के तहत एक अपराध)।

कफील का यह भाषण यू ट्यूब पर सुना जा सकता है और उसे सुनने पर स्पष्ट होता है कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा। उन्होंने कहा कि मोटा भाई (यानी गृह मंत्री अमित शाह) मुसलमानों को 'दूसरी श्रेणी के नागरिकों' में परिवर्तित कर रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारी औकात नहीं कि तुम हमसे कुछ छीन सको, हमें डरा सको। हम (यानी भारतीय मुसलमान) 25 करोड़ हैं। ना तुम हमें मॉब लिंचिंग से डरा सकते हो। ये हिंदुस्तान हमारा है।’’ यह समझना मुश्किल है कि ये शब्द धारा 153 ए आईपीसी को कैसे आकर्षित करते हैं?

डॉ. कफील को जमानत दी गई थी लेकिन उसके बाद उन्हें तुरंत राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और वह अभी भी जेल में हैं।

डॉ. कफील को इससे पहले 2017 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज, गोरखपुर में 60 से अधिक बच्चों की मौत के आरोप में गिरफ्तार किया गया था क्योंकि कॉलेज के अस्पताल में ऑक्सीजन सिलेंडर की आपूर्ति कम थी। लेकिन जांच में यह पता चला कि डॉ. कफील ने बार-बार ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी के बारे में अधिकारियों को सूचित किया था और संकट के दौरान मरीजों को कुछ सिलेंडर लेने के लिए अपनी जेब से पैसे दिए थे

(4) हाल के दिल्ली दंगों (फ़रवरी 2020) में मुसलमानों को चुनिंदा तौर पर गुंडों और असामाजिक तत्वों द्वारा निशाना बनाया गया था। इस मामले में पुलिस मूकदर्शक बनी रही।

(5) राजस्थान के भरतपुर के एक सरकारी अस्पताल में एक गर्भवती महिला को भर्ती करने से मना कर दिया गया क्योंकि वह मुसलिम थी। भर्ती न किए जाने से उसके बच्चे की मौत हो गई।

(6) कई मीडिया वालों ने भारतीय मुसलमानों को कोरोना वायरस को फैलाने की साज़िश का दोषी बताया, खासकर तब्लीग़ी जमात से जुड़े लोगों को।  

परंतु भारतीय वैज्ञानिकों के एक समूह (Indian Scientists Response to Covid 19 group) ने जाँच करके अपनी रिपोर्ट दी। इसमें उन्होंने कहा है कि "उपलब्ध डेटा उन अटकलों का समर्थन नहीं करता है जिनमें यह कहा जा रहा है कि भारत में कोरोना वायरस महामारी के लिए मुख्य रूप से तब्लीग़ी जमात का दोष है।”

कई हैशटैग जैसे #कोरोना जिहाद, #कोरोना टेररिज़्म और #कोरोना तब्लीग़ी ट्विटर पर ट्रेंड कर चुके हैं। हैशटैग #CoronaJihad में लगभग 3 लाख ट्वीट हुए हैं और ट्विटर पर लगभग 16.5 करोड़ लोगों ने इसे देखा है।

'सुपर स्प्रेडर' बताया

मुख्यधारा के मीडिया ने बार-बार जोर देकर कहा कि तब्लीग़ी जमात के सदस्य 'सुपर स्प्रेडर' हैं और कुछ लोगों ने मांग की कि उन्हें गोली मार दी जानी चाहिए। उन पर डॉक्टर्स और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर थूकने, अस्पताल के वार्डों में शौच करने, नर्सों के साथ दुर्व्यवहार करने, मूत्र की बोतलें फेंकने, चिकन बिरयानी की मांग करने आदि का आरोप लगाया गया। 

यह भी कहा गया कि तब्लीग़ियों का उद्देश्य है कि जितना संभव हो सके कोरोना का संक्रमण लोगों में फैलाया जाए। यह आरोप हिटलर के नाज़ी मंत्री गोएबल्स के एक सिद्धांत 'जितना बड़ा झूठ, उतनी ही आसानी से वह जनता द्वारा निगला जाएगा' की याद दिलाता है।
यह सही हो सकता है कि तब्लीग़ी जमात ने ऐसे समय में मरकज़ में धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन करके लापरवाही की। परन्तु ऐसा ही अन्य धार्मिक समूहों, राजनीतिक समूहों ने भी किया, जिसमें कोरोना वायरस से सम्बन्धित दिशा-निर्देशों की धज्जियां उड़ा दीं गई। उदाहरण के तौर पर - यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में 25 मार्च को एक प्रमुख हिंदू उत्सव में भाग लिया और इस दौरान देश भर में लॉकडाउन लागू था। 

इसी दौरान लाखों प्रवासी श्रमिक विभिन्न जगहों पर इकट्ठा हुए थे और निश्चित रूप से ये सभी मुसलिम नहीं थे। मुम्बई के धारावी की मलिन बस्तियों में एक कोरोना पॉजिटिव मरीज था जो मुसलिम नहीं था। फिर भी पूरा दोष मुसलमानों पर लगाया गया। जैसे कि वे इसके लिए अकेले जिम्मेदार हैं। हाल के दिनों में भारत के कई हिस्सों में मुसलमानों पर हमला हुआ और उनका उत्पीड़न हुआ है।

कर्नाटक में वाट्सएप पर एक ऑडियो क्लिप व्यापक रूप से शेयर की गई जिसमें लोगों से आग्रह किया गया कि वे अपने क्षेत्रों में मुसलिम फल और सब्जी विक्रेताओं को आने की अनुमति न दें क्योंकि वे अपने माल के माध्यम से कोरोना फैलाते हैं।

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मैंगलोर में लगाए गए पोस्टर्स में कहा गया है कि कुछ खास मोहल्लों में मुसलमानों को जाने की अनुमति नहीं है। एक पोस्टर में कहा गया है, ‘‘जब तक कोरोना पूरी तरह से नहीं चला जाता है, तब तक किसी भी मुसलिम व्यापारी को हमारे गृह नगर तक पहुंचने की अनुमति नहीं होगी।’’

ग्राम अंकनाहल्ली में ग्राम पंचायत अध्यक्ष ने एक चेतावनी जारी की कि यदि किसी हिंदू को मुसलिम के साथ मिलते हुए पकड़ा गया तो उस पर 500 से 1000 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा।

इसी तरह के कई उदाहरण भारत के कई हिस्सों से दिए जा सकते हैं, जिससे ज़ाहिर होता है कि कैसे 20 करोड़ से अधिक भारतीय मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। उन्हें आतंकित और बदनाम किया जाता है।

एक ख़ास तबक़े द्वारा मुसलिमों पर पहले से ही हमले हो रहे हैं और उन्हें देशविरोधी बताने की कोशिश की जा रही है। अब इसके साथ कोरोना वायरस भी आ गया। जैसा कि दिल्ली के जेएनयू में एक असिस्टेंट प्रोफेसर ने कहा, ‘‘इस्लामोफोबिया को कोरोना मुद्दे पर ट्रांसपोज़ किया गया है।’’

मेरे लेख Bad days are ahead for Indian Muslims published in nayadaur.tv (भारतीय मुसलमानों के लिए आगे बुरे दिन हैं) में मैंने भारतीय मुसलमानों के भविष्य के लिए एक गंभीर तसवीर चित्रित की थी। कोरोना के साथ, यह तसवीर और भी गंभीर हो गई है।

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