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आख़िर क्यों अमेरिका चीन को खलनायक बनाकर पेश कर रहा है?

यह स्थापित नियम है कि झूठ को इतना फैला दो कि लोग उसे ही सच समझने लगें। इस बार भी यही दाँव खेला जा रहा है। राजनीति में कोई भी दूध का धुला नहीं होता। चीन भी नहीं हो सकता लेकिन यह किससे छिपा है कि अमेरिका में पहला संक्रमित 20 जनवरी को मिला। भारत से 10 दिन पहले। अगले 40 दिन तक ट्रम्प प्रशासन के पास बयानबाज़ी के सिवाय कोरोना से लड़ने की कोई ख़ास तैयारी नहीं थी।
मुकेश कुमार सिंह

सवाल है कि आख़िर वुहान में फटे कोरोना ज्वालामुखी के बाद विकसित देशों और ख़ासकर अमेरिकी मीडिया ने चीन के ख़िलाफ़ मोर्चा क्यों खोल रखा है? चीन को सारी दुनिया में खलनायक बनाकर क्यों पेश किया जा रहा है? क्या इसका कोई सियासी मक़सद भी है?

कोरोना को लेकर अमेरिका और उसके मित्र देशों ने चीन की जैसी आलोचना की, वैसे उन्होंने यदि अपने गिरेबान में झाँकने को लेकर किया होता तो शायद हालात इतने भयावह नहीं होते। अमेरिकी और मित्र देशों के मीडिया ने चीन का चरित्र-हनन करने वाली ख़ूब ‘प्लांटेड ख़बरें’ चलायीं। किसी ने कहा कि कोरोना को प्रयोगशाला में जैविक हथियार की तरह बनाया गया है, तो किसी ने कहा कि वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी से कोरोना लीक हो गया, किसी ने कहा कि कोरोना का पता चलने के बाद चीन ने जानबूझकर इसका सारा ब्यौरा दुनिया को नहीं दिया और अपने मृतकों की तादाद को छिपाया। यहाँ तक कि अमेरिका और जर्मनी की निजी कम्पनियों ने चीन से भारी-भरकम हर्ज़ाना भी माँग डाला।

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राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प तो अमेरिकी जाँच दल को वुहान भेजने का शिगूफ़ा भी छोड़ चुके हैं। ऐसी माँग को ठुकराते हुए चीन ने कहा कि ‘हम दोषी नहीं, पीड़ित हैं। हमने ज़िम्‍मेदारी से काम किया।’ हालाँकि, यह भी किसी से छिपा नहीं है कि चीन और उत्तर कोरिया की सरकारें और वहाँ का मीडिया कभी पारदर्शी नहीं रहा। वहाँ वही छपता या दिखता है जिसमें सरकार की रज़ामन्दी हो। तो फिर कोरोना के कहर के वक़्त चीनी ढर्रा कैसे बदल जाता?

लिहाज़ा, यदि एक बार को हम ये मान भी लें कि चीन ने कोरोना से जुड़ी कुछेक जानकारियों को ज़रूर दबाया-छिपाया है, तो भी चीन जैसा रवैया कमोबेश दुनिया के सभी देशों में रहा है। फिर चाहे वो भारत हो या अमेरिका या ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, फ़्रांस वग़ैरह। 

आमतौर पर सभी देशों का मीडिया अपनी सरकारों की ओर से तय राष्ट्रीय हितों के मुताबिक़ क़दम-ताल करके ही चलता है। फिर भी यह नहीं माना जा सकता कि चीनी प्रशासन में कोरोना के विनाश से कोई अफ़रातफ़री नहीं मची होगी, या वहाँ कोई लापरवाही नहीं हुई होगी। चीन में भी क़रीब 4,500 मौतें हुई हैं। चीन की भी अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है।

कम से कम विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने तो चीन की दलीलों पर यक़ीन किया है। 

जर्मन हो या अमेरिकी मीडिया, कोरोना को कृत्रिम बता रहे हैं तो नेचर पत्रिका में प्रकाशित शोध कह रहे हैं कि कोरोना पूरी तरह से प्राकृतिक ही है। ज़ाहिर है, जब वायरस के कृत्रिम होने का झूठ फैलेगा तभी तो सारा विज्ञान धरा का धरा रह पाएगा। यही हो रहा है।

कोई बता रहा है कि चीनी कम्पनियों ने अपने सुरक्षा उपकरण पीपीई, वैक्सीन, वेंटिलेटर, टेस्टिंग किट, मॉस्क वग़ैरह के धंधे को चमकाने के लिए दुनिया को कोरोना की आग में झोंक दिया है।

दरअसल, कोरोना ने यूरोप, अमेरिका और कनाडा में ऐसी तबाही मचायी है, जैसा उन देशों ने अपने इतिहास में कभी नहीं देखा। विश्व युद्धों में भी नहीं। खाड़ी के देशों ने भी दशकों तक युद्ध में ख़ूब तबाही देखी, लेकिन वो तबाहियाँ भी जान और माल दोनों की हुआ करती है। पहली बार ऐसा है कि सारी दुनिया में इंसान को छोड़कर बाक़ी सारी सम्पदा सलामत है। कोरोना के अवतार से पहले विकसित या सम्पन्न देशों को गुमान था कि वो अजेय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं, सबसे ज़्यादा सक्षम और उन्नत हैं। लेकिन कोरोना ने अब उनमें अज़ीब-ओ-ग़रीब हीनभावना भर दी है।

विकसित देशों के आम लोगों को लगता है कि उनकी सारी तरक्की उस वायरस के सामने धरी की धरी रह गयी। इस हीनता से लोगों को उबारने के लिए और ख़ुद को अजेय ही समझते रहने के लिए यूरोपीय देशों ने सारी तबाही का ठीकरा चीन पर फोड़ दिया। आख़िर उन देशों के राजनीतिक नेतृत्व को भी तो अपने भविष्य की चिन्ता है। अमेरिका में तो इसी साल अगला राष्ट्रपति भी चुना जाना है। 

विचार से ख़ास

हक़ीक़त यह है कि यूरोप और अमेरिका ने कोरोना से निपटने के लिए वक़्त रहते वैसे उपाय नहीं किये जैसा कि दक्षिण कोरिया, हाँगकाँग और ताइवान ने करके दिखा दिया। दक्षिण कोरिया, हाँगकाँग और ताइवान में भी कोरोना पहुँचा। काफ़ी लोग संक्रमित भी हुए। मौतें भी हुईं। लेकिन 11 जनवरी के बाद जारी हुई विश्व स्वास्थ्य संगठन की हिदायतों को पढ़ने और उसे देखते हुए इन देशों ने अपनी रणनीति बनाने में कोताही नहीं की। लिहाज़ा, इन्हें लॉकडाउन की नौबत नहीं झेलनी पड़ी। इनकी अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता रहा। जबकि बाक़ी दुनिया में ऐसा नहीं हुआ। जर्मनी ज़रूर थोड़ी देर से जगा। व्यापक स्तर की टेस्टिंग करके हालात क़ाबू में कर लिया वैसे ही जैसे दक्षिण कोरिया, हाँगकाँग और ताइवान ने किया है।

कमियों पर पर्दा डालने के लिए अमेरिका ने दो खलनायकों की पहचान की – WHO और चीन। WHO को तो अमेरिका ने अपना अंशदान रोककर सज़ा भी दे दी। इसके बाद ट्रम्प ने एक तीर से दो शिकार करते हुए चीन और अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी, दोनों को लपेट लिया।
उन्होंने कहा कि ‘चीन, पूर्व उपराष्ट्रपति जो बाइडन का समर्थन कर रहा और, यदि बाइडन जीत गये तो अमेरिका पर चीन का कब्ज़ा हो जाएगा।’ बाइडन डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होंगे।
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यह स्थापित नियम है कि झूठ को इतना फैला दो कि लोग उसे ही सच समझने लगें। इस बार भी यही दाँव खेला जा रहा है। राजनीति में कोई भी दूध का धुला नहीं होता। चीन भी नहीं हो सकता लेकिन यह किससे छिपा है कि अमेरिका में पहला संक्रमित 20 जनवरी को मिला। भारत से 10 दिन पहले। अगले 40 दिन तक ट्रम्प प्रशासन के पास बयानबाज़ी के सिवाय कोरोना से लड़ने की कोई ख़ास तैयारी नहीं थी। वहाँ भी सोशल डिस्टेन्सिंग और लॉकडाउन या ‘स्टे एट होम’ का फ़ैसला बहुत देर से लिया गया। व्यापक टेस्टिंग की तैयारी नहीं थी। पर्याप्त वेंटिलेटर्स नहीं थे। पीपीई की भारी किल्लत थी। टेस्टिंग किट्स का अकाल था। हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन जैसी दवा भी नहीं थी। वहाँ भी कोरोना से हो रही मौतों का आँकड़ा यह कहकर छिपाया जा रहा है कि मृत्यु के बाद टेस्टिंग पर धन-श्रम खर्च करने से बेहतर है कि इसको ज़िन्दा लोगों पर ही लगाया जाए। वहाँ भी बेरोज़गारी रोज़ाना नये कीर्तिमान बना रही है। अर्थतंत्र चरमरा गया है। ऐतिहासिक मन्दी दरवाज़े पर खड़ी है।

साफ़ है कि यदि चीन को खलनायक बनाने का दाँव चल गया तो ठीक, वर्ना ट्रम्प क्या नहीं जानते होंगे कि कोरोना की चौतरफा मार के आगे उनकी सियासी नैया का पार उतरना बेहद मुश्किल है।

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