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क्या PM CARES Fund के लिए कनपटी पर तमंचा तानकर दान लिया जा सकता है?

ये सवाल तो अब भी समझ से परे ही हैं कि PMNRF के रहते PM CARES को बनाने की क्या ज़रूरत थी? और, यदि नया फंड बनाने की कोई सनक ही थी तो पुराने का नया नामकरण करने में क्या हर्ज़ था? यदि दर्ज़नों सरकारी बैंकों का विलय करके चन्द बड़े बैंक बनाये जा सकते हैं तो दोनों आपदा फंड का विलय करके एक ही बड़ा फंड नहीं बनाने के पीछे असली मंशा क्या है? 
मुकेश कुमार सिंह

नये कोरोना वायरस के जन्म और संक्रमण से पनपी वैश्विक आपदा की चुनौतियों के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में 28 मार्च 2020 को PM CARES (Prime Minister’s Citizen Assistance and Relief in Emergency Situations) फंड बनाया गया। हालाँकि, ऐसी चुनौतियों से जूझने के लिए आज़ादी के छह महीने बाद ही जनवरी, 1948 में प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष (PMNRF) मौजूद था। दोनों राहत फंड एक जैसे हैं। यूँ कहें कि PMNRF की फ़ोटो स्टेट कॉपी है PM CARES फंड। इसीलिए यह सवाल लाज़िमी है कि जब बिल्कुल हुबहू फंड पहले से मौजूद था तो फिर एक और नया बनाने की क्या ज़रूरत थी?

इस बुनियादी सवाल को मोदी सरकार से कई बार पूछा गया। बताया गया कि ‘PMNRF का सम्बन्ध सभी तरह की आपदाओं से है, जबकि PM CARES को ख़ास तौर पर कोरोना संकट को देखते हुए बनाया गया है।’ यह जवाब पूरी तरह से ग़लत और भ्रामक है। क्योंकि PMNRF की वेबसाइट पर भी साफ़-साफ़ लिखा है कि इस फंड का इस्तेमाल किसी भी ‘प्राकृतिक आपदा’ में राहत और बचाव के लिए होगा। अब सवाल यह बचा कि क्या कोरोना की आफ़त को ‘प्राकृतिक आपदा’ का दर्ज़ा हासिल नहीं है? बिल्कुल है। पूरी तरह से है। लॉकडाउन के वक़्त से ही मोदी सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को लागू कर रखा है। इसी के मुताबिक़, केन्द्र सरकार की हिदायतों का पालन करना राज्यों के लिए अनिवार्य बनाया गया है।

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PM CARES और PMNRF में समानता

अब सवाल यह है कि PM CARES और PMNRF में समानता क्या है? आयकर क़ानून 1961 के अनुसार, दोनों फंड को धर्मार्थ (चैरिटेबल) ट्रस्ट का दर्ज़ा हासिल है। दोनों फंड में सिर्फ़ दानदाताओं से प्राप्त चन्दे को ही रखा जा सकता है। दोनों फंड ग़ैर-सरकारी श्रेणी के हैं। हालाँकि दोनों के इस्तेमाल की शक्ति प्रधानमंत्री के ही पास है। लेकिन दोनों फंड में कोई सरकारी धन नहीं डाला जा सकता। दोनों फंड को FCRA (विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम, 2010) की रोक-टोक से छूट हासिल है। दोनों फंड में दी जाने वाली रक़म को आयकर क़ानून की धारा 80-G से छूट हासिल है। दोनों फंड में सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) पॉलिसी की रक़म भी डाली जा सकती है। कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 के अनुसार, हरेक कॉरपोरेट कम्पनी सीएसआर पॉलिसी से बँधी हुई है। इसके तहत, उसके लिए बीते वित्तीय वर्ष के मुनाफ़े में से दो फ़ीसदी रक़म सामाजिक कार्यों पर ख़र्च करना अनिवार्य है।

क्या ज़बरन है वेतन कटौती?

आम जनता के लिए PM CARES और PMNRF, दोनों ही फंड में दान या अंशदान देना पूरी तरह से स्वैच्छिक है। लेकिन सरकार ने बाद में नीतियों में बदलाव करके इस ‘स्वैच्छिक’ का चरित्र बदल दिया। 17 अप्रैल को केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की ओर से जारी हुए सर्कुलर में सरकारी कर्मचारियों से अपील की गयी थी कि वो मार्च 2021 तक हर महीने अपनी एक दिन की तनख़्वाह को PM CARES फंड में दान करें। इसी सर्कुलर में यह भी लिखा था कि ‘जो कर्मचारी स्वेच्छा से दान करना चाहते हैं’ वो अपने वेतन-विभाग को इसकी लिखित अनुमति दें।

लेकिन 12 दिन बाद 29 अप्रैल को राजस्व सचिव ने पिछले सर्कुलर में रद्दोबदल करके यह लिख दिया कि ‘जो कर्मचारी स्वेच्छा से दान नहीं करना चाहते हैं’ वो अपने वेतन-विभाग को लिखित में सूचना दें।

साफ़ है कि बहुत चतुराई से और चुटकी बजाकर सरकार ने ‘नहीं’ शब्द का इस्तेमाल करके व्यावहारिक तौर पर PM CARES फंड को भरने का रास्ता बना लिया। इस सर्कुलर का कमाल यह रहा कि अप्रैल से ही कर्मचारियों के वेतन में एक दिन की कटौती लागू हो गयी। अब जिसे अपनी तनख़्वाह नहीं कटवानी, जिसे ज़बरन दान देने से ऐतराज़ है वो अपने वेतन-विभाग को लिखकर दे और कटौती रुकवाये। इसीलिए, करोड़ों सरकारी कर्मचारियों को लग रहा है कि कोरोना की आफ़त के नाम पर सरकार ने PM CARES फंड बनाकर उनकी कनपटी पर तमंचा तानकर दान लिया है।

इससे सरकार ख़ुश है कि उसकी अपील को देखते हुए हरेक कर्मचारी कथित ‘स्वेच्छापूर्वक’ क़ुर्बानी दे रहे हैं। PMNRF के लिए कभी भी ऐसी कोशिश नहीं की गयी। हालाँकि, अतीत में भी अनेक आपदाओं के वक़्त सरकारें अपने कर्मचारियों से वेतन-दान देने की अपील करती रही हैं, लेकिन पिछले दरवाज़े से होने वाली ज़बरन कटौती का खेल पहले कभी नहीं हुआ।

दिलचस्प बात यह भी है कि सरकार की इस ‘चाल’ के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में भी गुहार लगायी गयी, लेकिन वो वेतन-कटौती में दख़ल देने से मुकर गया। ज़ाहिर है, इससे सरकार को अपने सर्कुलर को ‘न्यायिक’ मानने की सहूलियत मिल गयी।

PM CARES और PMNRF में क्या फ़र्क़ है?

अब सवाल यह है कि PM CARES और PMNRF में क्या कोई भी अन्तर नहीं है? जवाब है, कुछेक फ़र्क़ ज़रूर हैं। मसलन, PMNRF के इस्तेमाल की सारी शक्तियाँ प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हैं। जबकि PM CARES फंड के मामले में यही शक्तियाँ पदेन ट्रस्टियों के समूह को दी गयी है। 

जो भी देश का प्रधानमंत्री होगा वो अपने आप ही PM CARES फंड के ट्रस्टियों का मुखिया होगा। इसी तरह केन्द्रीय वित्त मंत्री, गृह मंत्री और रक्षा मंत्री भी ख़ुद-ब-ख़ुद ट्रस्टी बनते रहेंगे। प्रधानमंत्री के पास इसके तीन ट्रस्टियों को मनोनीत करने का भी अधिकार होगा।

मनोनीत ट्रस्टी का रिसर्च, स्वास्थ्य, विज्ञान, सामाजिक कार्य, क़ानून, लोक प्रशासन और जनहित (philanthropy) के क्षेत्र में सक्रिय रहने वाला नामचीन व्यक्ति होना ज़रूरी है। इस तरह, राज्यसभा के लिए मनोनीत होने वालों के मुक़ाबले PM CARES फंड के ट्रस्टियों के मनोनयन का दायरा कहीं ज़्यादा व्यापक है। दोनों फंड के बीच अगला अन्तर यह है कि PM CARES में जहाँ न्यूनतम 10 रुपये जमा किये जा सकते हैं, वहीं PMNRF के लिए यह सीमा 100 रुपये की है।

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सिर्फ़ फंड का नाम क्यों नहीं बदला?

दोनों फंड के बीच आख़िरी अन्तर यह है कि एक को नेहरू ने बनाया था, तो दूसरे को मोदी ने। सभी जानते हैं कि मोदी को नेहरू बेहद नापसन्द हैं। उन्हें अपनी पसन्द-नापसन्द तय करने का अक्षुण्य लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन महज इसी वजह से PM CARES फंड को बनाने की कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए थी। एक ही उद्देश्य के लिए दो तरह या दो नामों के फंड का कोई तार्किक औचित्य नहीं हो सकता। मोदी चाहते तो नेहरू वाली योजना का नाम बदलकर उसे अपना वाला नाम दे देते। नये फंड के गठन की कवायद करने की क्या ज़रूरत थी?

PM CARES के ऑडिट का फंडा

PM CARES फंड को लेकर विपक्ष और ख़ासकर कांग्रेस ने मोदी सरकार पर फ़ालतू के हमले किये। विरोध सिर्फ़ इस बात का करना था कि पुराने फंड के रहते नये फंड का गठन फ़िज़ूल है। लेकिन कहा गया कि नया ट्रस्ट तय करेगा कि उसे ऑडिट किससे करवाना है? किसी चार्टर्ड एकाउन्टेंट से या भारत के नियंत्रक और लेखा परीक्षक (सीएजी) से। यहाँ विपक्ष ने तथ्यों को ठीक से पेश नहीं किया। सच तो यह है कि क़ानून में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है कि दानदाताओं की राशि से बनने वाला PM CARES और PMNRF में यदि कोई सरकारी रक़म नहीं डाली जा सकती, तो सरकार के ऑडिटर से उसका ऑडिट करवाना ज़रूरी नहीं हो सकता। क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 के मुताबिक़ गठित सीएजी पर सिर्फ़ सरकारी रक़म के ऑडिट का दायित्व है।

विचार से ख़ास

सरकारी धन के दो रूप हैं। अनुच्छेद 266 में इन्हें Consolidated Fund of India और Public Account कहा गया है। इनके ख़र्च का ऑडिट करने की ज़िम्मेदारी सीएजी पर है। इसके अलावा, सरकार किसी भी अन्य तरह के ऑडिट के लिए सीएजी से अनुरोध कर सकती है। लेकिन यह अनिवार्य नहीं हो सकता। अब चूँकि PM CARES और PMNRF दोनों ही चैरिटेबल ट्रस्ट के फंड हैं इसलिए ट्रस्ट को पूरी छूट है कि वो अपना ऑडिट मनचाहे चार्टर्ड एकाउन्टेंट से करवा सकता है। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। आख़िर, चार्टर्ड एकाउन्टेंट ही तो देश के हज़ारों ट्रस्ट या निजी कम्पनी का ऑडिट करते हैं।

अनुच्छेद 267 के तहत आपदा फंड

संविधान के अनुच्छेद 267 के ज़रिये केन्द्र और राज्य सरकारों को विशेष आपदा फंड बनाने का अधिकार हासिल है। ऐसे फंड को संसद और विधानसभा की अनुमति लेकर बनाया जा सकता है। इसमें सरकारी धन का अंशदान भी किया जा सकता है। ये अंशदान बाक़ायदा बजट का हिस्सा समझा जाएगा। इसके इस्तेमाल का ऑडिट करने का दायित्व स्वाभाविक तौर पर सीएजी के पास ही होगा। लिहाज़ा, ग़ौर करने की बात यह है कि चाहे नेहरू वाला फंड हो या मोदी वाला, दोनों ही अनुच्छेद 267 के दायरे में नहीं आते।

लिहाज़ा, ये सवाल तो अब भी समझ से परे ही हैं कि PMNRF के रहते PM CARES को बनाने की क्या ज़रूरत थी? और, यदि नया फंड बनाने की कोई सनक ही थी तो पुराने का नया नामकरण करने में क्या हर्ज़ था? यदि दर्ज़नों सरकारी बैंकों का विलय करके चन्द बड़े बैंक बनाये जा सकते हैं तो दोनों आपदा फंड का विलय करके एक ही बड़ा फंड नहीं बनाने के पीछे असली मंशा क्या है? यदि यह कोई सियासी शिगूफ़ा भी है तो इससे किसी को क्या अतिरिक्त फ़ायदा मिल सकता है?

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