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कोरोना रोकने में नाकामी छुपाने के लिए वायरस का दोष मढ़ रहे हैं चीन पर?

एक बार फिर से चीन की चर्चा ज़ोरों पर है। चीन को गरियाने का काम लोग खुले दिल से कर रहे हैं। हालाँकि पाकिस्तान को गरियाने में हम लोगों को ज़्यादा खुशी मिलती है, मगर टेस्ट बदलने के लिए हम लोग कभी-कभी चीन को भी टारगेट पर ले लेते हैं। जैसे कि इस समय हमने कोरोना वायरस के बहाने उसे फिर से कोसना शुरू कर दिया है। 

लोग नाराज़ हैं कि चीन ने कोरोना वायरस भेज दिया और अब हम परेशान हो रहे हैं। वे फिर से चीनी माल का बहिष्कार करके उसे सबक़ सिखाने की बातें कर रहे हैं। लेकिन चीन पर यह चर्चा अचानक आयी कहाँ से? 

दरअसल, चीन के ख़िलाफ़ यह ग़ुस्सा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की वजह से पैदा हुआ है। डोनाल्ड ट्रंप ने कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहना शुरू कर दिया था। कहा जा रहा है कि ट्रंप कोरोना से लड़ाई में नाकाम होने की वज़ह से मुद्दे को नस्लवादी रंग दे रहे हैं और एक तरह की ‘कल्चर वार’ छेड़ रहे हैं।

चीन ने कोरोना वायरस को चीनी वायरस कहे जाने पर घोर आपत्ति जताई है। उसके बाद से ट्रंप नरम भी पड़े हैं। उन्होंने चीनी नेतृत्व की तारीफ़ भी की है।

असल में कोरोना को चीनी वायरस का नाम ट्रंप ने नहीं दिया था। अमेरिका के दक्षिणपंथी रूढ़िवादी प्रेस ने इस नाम को ईजाद किया था। चूँकि ट्रंप की राजनीति को ऐसी चीज़ें माफ़िक बैठती हैं इसलिए वह तुरंत इसका उपयोग करने लगे। इससे अमेरिकियों के ग़ुस्से को उन्होंने चीन की तरफ़ मोड़ने की कोशिश की।

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ट्रंप पहले भी चीन के ख़िलाफ़ ताल ठोकते रहे हैं। चीन के ख़िलाफ़ बोलकर वह गोरों के नस्लवाद को हवा देते हैं और उनके गोरे और रूढ़िवादी वोटर खुश होते हैं। यही उनका वोट बैंक भी है। इसीलिए उन्होंने चीन के साथ एक ट्रेड वार तक छेड़ रखी है। 

ट्रंप का यह नस्लवादी राष्ट्रवाद हमने भी आयात कर लिया है। भारत में भी अब कोरोना का दोष चीन पर लगाते हुए उसे कोसा जा रहा है।

एक ख़ास तरह की राजनीति इसे हवा भी दे रही है। वह राजनीति चीन का विरोध करके अंध-राष्ट्रवाद को भड़काती है और फिर अपना वोटबैंक मज़बूत करती है। दरअसल, एक तबक़े को इतना भर दिया गया है कि यह तबक़ा उस पर टूट पड़ने का मौक़ा ढूँढता रहता है। 

चीन से चिढ़ने के हमारे पास कई कारण हैं। अव्वल तो उसने सन् 1962 के युद्ध में हमें हराया और हमारी बहुत सारी ज़मीन पर भी कब्ज़ा कर लिया। इससे हमारा राष्ट्रीय गौरव आहत हुआ। हम ज़मीन वापस लेने के संकल्प तो लेते रहे मगर उस ज़मीन को छुड़ाने का साहस हम कभी नहीं कर पाए। फिर चीन पाकिस्तान की पीठ पर हाथ धरे रहता है इसलिए भी हम उससे खार खाए रहते हैं। 

इसके अलावा हमें यह दुख भी सताता रहता है कि हमसे बाद में आज़ाद होने के बावजूद चीन हमसे हर मामले में कोसों आगे निकल चुका है। उसकी जीडीपी हमसे लगभग पाँच गुना ज़्यादा है। वैश्विक स्तर पर उसकी बात हमसे ज़्यादा सुनी जाती है। उसकी सैन्य शक्ति का हम मुक़ाबला नहीं कर सकते। उसे सुरक्षा परिषद में वीटो पावर हासिल है।

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तो इतनी सारी वजहें हैं हमारे पास खीझने की इसलिए हम बहाने ढूँढते रहते हैं ग़ुस्सा उतारने की। चीनी माल के बहिष्कार की अपीलें इसका उदाहरण हैं। हम कभी चीनी दियों, लड़ियों को लेकर उत्तेजित हो जाते हैं तो कभी पिचकारियों को लेकर। चीनी माल से हमारे बाज़ार पटे पड़े हैं, इसलिए हमारे व्यापारी भी दुखी रहते हैं। 

अपने ही देश में हमारा ही माल न बिके और दूसरा देश कामयाबी के साथ छा जाए तो ग़ुस्सा आना लाज़िमी है।

लेकिन इसके लिए चीनी माल दोषी है या भारत सरकार? क्योंकि अगर भारत सरकार न चाहे तो चीनी माल भारत में आ ही नहीं सकता है। लेकिन वह ऐसा नहीं करती। इसके विपरीत वह चीन से लगातार व्यापार बढ़ाने की कोशिश में लगी रहती है। प्रधानमंत्री भाग-भागकर चीन जाते हैं और चीनी राष्ट्रपति को बुलाकर झूला झुलाते हैं।

वास्तव में, अधिकतर लोग न तो राजनीतिक पैंतरेबाज़ियों को समझते हैं और न ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों को। ऐसे लोगों के ज्ञान का स्तर बहुत सीमित होता है। वे व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से मिलने वाले ज्ञान को ग्रहण करके ही ख़ुद को सर्वज्ञ मान लेते हैं। इसीलिए किसी के उकसाने भर से वे आगबबूला हो जाते हैं। इससे बचना चाहिए क्योंकि इसका हासिल कुछ नहीं है। हाँ, हम राजनीतिज्ञों द्वारा इस्तेमाल ज़रूर हो सकते हैं।

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मुकेश कुमार
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