साल 1984 के बाद राष्ट्रीय राजधानी ने पहली बार इतनी हिंसा देखी। उत्तेजक बयानबाज़ी और हिंसक गतिविधियों के सिलसिले की शुरुआत 23-24 फरवरी को ही हो चुकी थी। इलाक़े में 23 फरवरी को भारतीय जनता पार्टी के एक विवादास्पद नेता ने पुलिस के एक बड़े अधिकारी के सामने क़ानून अपने हाथ में लेने की धमकी दे डाली थी।
उस वक़्त सत्ता-प्रतिष्ठान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के भारत-दौरे के जश्नी माहौल में जुटा था। अहमदाबाद, आगरा और दिल्ली के तमाम दर्शनीय और कुलीनों के इलाक़ों में चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा के ज़बरदस्त बंदोबस्त किए गए थे।
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राजधानी के कई उत्तर-पूर्वी इलाक़ों में हिंसा और उपद्रव के सिलसिले को रोकने की कहीं से कोई कोशिश नहीं नज़र आ रही थी। ऐसे में एक न्यायिक-हस्तक्षेप ने हालात को दुरुस्त करने का रास्ता दिखाया।
अदालत का हस्तक्षेप
इससे कुछ घंटे पहले भी मंगलवार-बुधवार की मध्यरात्रि को मामले की सुनवाई हुई थी। न्यायिक हस्तक्षेप की शुरुआत उसी वक़्त हो गई। जस्टिस मुरलीधर और जस्टिस ए. जे. भंभानी ने दो एनजीओ कार्यकर्ताओं की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली पुलिस और प्रशासन को आदेश दिया कि हिंसा में मारे गए लोगों के शवों को उनके परिजनों को सौंपा जाए और उनके अंतिम संस्कार की समुचित व्यवस्था हो। साथ ही घायलों को तत्काल बेहतर अस्पताल-सुविधाएँ मुहैया कराई जाएँ।
दिल्ली के हालात, पुलिस और नागरिक प्रशासन की आपराधिक-निष्क्रियता या कई हलक़ों में दंगाइयों के साथ उसके सहयोगात्मक रुख का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि घायलों की चिकित्सा आदि जैसी बुनियादी और सामान्य सेवा की बहाली के लिए भी कोर्ट को आदेश देना पड़ा।
न्याय, लोकतंत्र का अभूतपूर्व संकट
कोर्ट का यह मानवीय रूप सत्ता पर काबिज ‘महाबलियों’ को तनिक भी पसंद नहीं आया। बुधवार के कोर्ट आदेश के फौरन बाद केंद्रीय कानून मंत्रालय ने आनन-फानन में जस्टिस एस. मुरलीधर को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट स्थानांतरित करने का आदेश जारी कर दिया।आदेश में उन्हें तत्काल चंडीगढ़ जाकर ज़िम्मेदारी संभालने का ‘हुक़्म’ दिया गया। जजों के तबादले की अधिसूचना में ऐसी भाषा शायद ही पहले कभी प्रयुक्त हुई हो! कोर्ट ने इस लंबित मामले में उसी रात यह भी तय कर दिया कि गुरुवार को अब हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. एन. पटेल और जस्टिस सी. हरिशंकर की पीठ इस पर आगे की सुनवाई करेगी।
न्यायपालिका पर दबाव
सुप्रीम कोर्ट की कोलिजियम ने कुछ ही दिनों पहले अपने एक विवादास्पद फ़ैसले में दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ जज मुरलीधर के तबादले की सिफारिश की थी। पर उस सिफारिश को जस्टिस मुरलीधर के एक ऐतिहासिक फ़ैसले के कुछ ही घंटे के अंदर रातों-रात लागू किया जायेगा, ऐसा तो किसी ने सोचा भी नहीं होगा।बहरहाल, जस्टिस मुरलीधर और जस्टिस तलवंत सिंह के बुधवार को दिये आदेश के बाद दिल्ली पुलिस को हरकत में आना पड़ा और कुछ घंटों में जाफ़राबाद-मौजपुर-बाबरपुर सहित तमाम इलाक़ों में हिंसा और उपद्रव का सिलसिला थमता नज़र आने लगा। जिस न्यायिक हस्तक्षेप से दिल्ली को भयानक हिंसा से राहत का एहसास हुआ, उसके सूत्रधार जस्टिस मुरलीधर के चंडीगढ़ स्थानांतरित होने के बाद सरकार को बड़ी राहत मिली।
हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली बेंच ने सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता की दलील मंज़ूर कर ली कि ‘हेट-स्पीच’ करने वाले बीजेपी नेताओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का अभी माहौल नहीं है।
कोर्ट ने अब इस मामले की सुनवाई 4 हफ़्ते के लिए टाल दी है।
इस बीच, टीवी चैनलों, सत्ताधारी दल और शासन ने दिल्ली की हिंसा और उपद्रव के लिए एक ‘मनचाहा चरित्र’ तलाश लिया है। वह है-ताहिर हुसैन! उसका नाम ख़ुफ़िया ब्यूरो के एक कर्मचारी अंकित शर्मा की हत्या के मामले में सामने आया है। उसने इस आरोप से इंकार किया है।
संभव है, जाँच में वह अंकित की मौत या चांदबाग के एक हिस्से में हिंसा के लिए ज़िम्मेदार साबित भी हो। फ़िलहाल ताहिर-केंद्रित मीडिया-कवरेज में समूचे उत्तर-पूर्वी इलाक़े में व्यापक हिंसा और उपद्रव के कई बदमिजाज़ चरित्रों और संगठनों की भूमिका को छुपाने-बचाने का सुनियोजित प्रबंधन दिखाई देता है।
मीडिया की भूमिका
हिंसा-उपद्रव थमने के बाद सत्ताधारी दल के लिए अपने नेताओं के उत्तेजक बयानों, पुलिस की योजनाबद्ध निष्क्रियता या ख़ास समुदाय के प्रति आक्रामक रवैये पर उठते सवालों से लोगों का ध्यान हटाना बहुत ज़रूरी हो गया था।मौजूदा सत्ताधारी दल इस मामले में भारतीय राजनीति में एक नया प्रयोग कर रहा है कि वह अपने किसी नेता या संस्थान की किसी भी ग़लती के लिए उसके ख़िलाफ़ सिर्फ अपवाद-स्वरूप ही कोई कार्रवाई करता है! इसके उलट वह उत्तेजक और सांप्रदायिक ज़हर उगलने वाले नेताओं को पद-प्रतिष्ठा देकर उपकृत करता है।
इसी योजना के तहत उसने उत्तर-पूर्वी दिल्ली की हिंसा के मामले में भी अपनी सहूलियत का कोई गुनहगार खोजने लगा ताकि विवादों में फंसे अपने नेताओं को मीडिया और सामाजिक चर्चा से बचाया जा सके।
मीडिया, ख़ासकर चैनलों ने इस मामले में उसकी ज़बरदस्त मदद की है।
अगर बारीकी से देखें तो इस बार हालात और घटनाक्रम के बारे में मीडिया में सूचना का संकट नहीं रहा है। कई युवा रिपोर्टरों ने अच्छी रिपोर्टिंग की है। साहस के साथ तथ्यों को सामने लाया है।
इसलिए चैनलों में जो संकट दिख रहा है, वह सूचना का नहीं, ईमान और प्रोफेशनल मूल्यों का संकट है। क्या चैनलों के मालिकों-संपादकों को यह नहीं मालूम था कि दिल्ली में बीते तीन-चार दिनों में बड़े पैमाने पर पत्रकार-छायाकार भी पीटे और अपमानित किये गए हैं?
क्या इन लोगों को नहीं मालूम था कि इस दरम्यान किन लोगों की हिंसक भीड़ ने पत्रकारों-छायाकारों की धार्मिक पहचान करने पर ज़ोर दिया और कई के पैंट तक उतरवाये गए? कई पत्रकारों को बहुत मारा-पीटा गया। एक को गोली भी मारी गई।
जब माहौल अपेक्षाकृत सुधर गया और हिंसा थम गई, अचानक चैनलों ने अपने रिपोर्टरों की बजाय अपने ‘सितारा-एंकरों’ और ख़ास-ख़ास संपादकों को रिपोर्टिंग के लिए उतार दिया। इस मीडिया-अभियान से बीजेपी के नेताओं और पुलिस को बड़ी राहत मिली।
पुलिस पर गंभीर सवाल
पर सवाल तो बरक़रार रहेंगे। इस बात का जवाब कौन देगा कि किसके निर्देश पर दिल्ली पुलिस लगातार दो दिन हिंसा-उपद्रव रोकने से बचती रही? एक इलाक़े में एक समुदाय विशेष के घायलों को अस्पताल भेजने के बजाय दिल्ली पुलिस के जवानों को लाठी-डंडे के ज़ोर पर उनसे ‘वंदे मातरम्’ और ‘जन-गण-मन’ गाने को कहा गया। इसके वायरल वीडियो की सत्यता की पुष्टि हो चुकी है। आखिर दिल्ली पुलिस के जवानों में ऐसा विषैला वायरस कहाँ से पैदा हुआ?अनेक स्थानों पर पुलिस जवानों को पत्थरबाजों के साथ पत्थर चलाते या उनका सहयोग करते देखा गया। एक समुदाय विशेष को चिन्हित करके उनकी दुकानों और कारोबारी प्रतिष्ठानों को पुलिस की मौजूदगी या पुलिस की अनदेखी के बीच जिस तरह जलाकर राख कर दिया गया, वह महज संयोग तो नहीं हो सकता!
सिर्फ ‘एक खलनायक’ या ‘एक गुनहगार’ की तलाश कर चुके बड़े न्यूज़ चैनल दिल्ली में तैयार किए उस ज़हरीले माहौल पर पर्दा डालने की चाहे जितनी कोशिश करें पर दिल्ली को दहलाने वाले तीन-चार दिनों में पुलिस की भूमिका, कुछ संगठनों और सियासतदानों की सम्बद्धता साफ-साफ दिखाई देती है।
सियासत की भूमिका
पुलिस ने राज्य के लिए नहीं, नागरिकों के लिए नहीं, संवैधानिक व्यवस्था और शासकीय मूल्यों के हिसाब से नहीं, सिर्फ सत्ताधारियों के राजनीतिक-संकेतों के हिसाब से काम किया। विपक्ष के तमाम राजनीतिक दल इस दरम्यान बेहाल अवाम से दूर रहे। जो चुनावों में गली-गली घूमकर वोट माँगते हैं, वे हिंसा की आग में झुलसती बस्तियों में झाँकने भी नहीं आए।केंद्रीय सत्ता पर काबिज़ लोगों ने इस दरम्यान दिल्ली के बहाने पूरे देश और व्यवस्था के हर निकाय को एक ख़ास संदेश दिया कि देश अब संविधान और क़ानून से नहीं, उनकी निजी सोच, सांगठनिक मान्यता और उनकी मर्जी से चलेगा।
डोभाल की पहल के मायने
इस दरम्यान एक और दिलचस्प वाकया हुआ। सत्ताधारी खेमे की तरफ से पहली बार जो अति महत्वपूर्ण व्यक्ति हिंसा-उपद्रव से प्रभावित इलाक़ों में हालात का जायज़ा लेने गया, वह कोई निर्वाचित या राजनीतिक प्रतिनिधि नहीं था। वह थे-देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल। वह एक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं और ख़ुफ़िया एजेंसी के चीफ़ रहे चुके हैं।अनुच्छेद-370 सम्बन्धी सरकार के विवादास्पद फ़ैसले के कुछ दिनों बाद जम्मू कश्मीर में भी पहली बार वही गए थे। मीडिया में नियोजित ढंग से आई तसवीरों और ख़बरों के मुताबिक़ वहाँ उन्होंने स्थानीय लोगों से मुलाकात की, उनके साथ खाना खाया और कुछ बातचीत भी की।
कहाँ हैं जनप्रतिनिधि?
बाद के दिनों में सत्ताधारी दल ने अपने मंत्रियों और सांसदों को भी वहाँ भेजा, पर विपक्षी सांसदों-नेताओं को उन्मुक्त होकर कश्मीर जाने की इजाज़त अब भी नहीं है। लेकिन उत्तर पूर्वी इलाके में स्थितियाँ अलग दिखीं। यहां लोगों का दुख-दर्द समझने और शांति-मार्च करने कोई विपक्षी नेता भी अपने कार्यकर्ताओं के साथ नहीं गया।हाल ही में दिल्ली के चुनाव हुए थे। आम आदमी पार्टी को लोगों ने भारी बहुमत से जिताया था। पर मुख्यमंत्री केजरीवाल, उनकी सरकार और पूरी पार्टी खामोश रही।
दिल्ली में इतनी बड़ी ताकत रखने वाले दल को हिंसाग्रस्त इलाक़ों में शांति-स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर उतरना चाहिए था। पर टीम-केजरीवाल शांति-बहाली के न्यायिक कदम के बाद ही उस इलाक़े में कुछ देर के लिए पहुँची।
अपने देश की सियासी रवायत रही है कि ऐसी घटनाओं या बड़े हादसों के बाद सियासी लोग, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या मुख्यमंत्री या पार्टी के बड़े पदाधिकारी लोगों के बीच जाते रहे हैं। पर इन दिनों राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इस भूमिका में अक्सर नजर आ रहे हैं। निश्चय ही वह जानकार और कुशल व्यक्ति हैं। पर ऐसे मामलों में उन्हें निर्वाचित या सियासी प्रतिनिधि के विकल्प के तौर पर पेश करने के अलग मायने दिखते हैं।
मुझे तो भारतीय शासन-व्यवस्था के चरित्र और मिजाज में तेज़ी से हो रहे बदलाव का ठोस संकेत नज़र आता है। राजनीतिक-लोकतांत्रिक विमर्श और संवैधानिक व्यवस्था की पहल की जगह सुरक्षा से जुड़े ओहदेदारों को ऐसे मामलों में सीधे उतार कर संभवतः एक सैन्य-सुरक्षात्मक संरचना को स्थापित करने का प्रयोग चल रहा है।
ऐसा लगता है कि भारतीय समाज और आम नागरिक जीवन में निर्वाचित राजनीतिक-संरचना को पृष्ठभूमि में डालकर सुरक्षा की सैन्यीकृत-सोच प्रेरित संरचना को प्रमुखता देने की कोशिश हो रही है। भारत के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है।
बीते दिनों दिल्ली के समाज, राजनीति, न्यायिक क्षेत्र और मीडिया के स्तर पर जो कुछ घटित होते देखा गया, बहुत संभव है, वह किसी बड़े राजनीतिक प्रयोग का हिस्सा हो।
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