आपातकाल के बीते पचास साल हो गए। रुदाली आज शुरू कर रहे हो- “आपातकाल सही था”, “जेपी ग़लत थे”, “डॉ. लोहिया और जेपी सीआईए के एजेंट थे”? सच कहूँ तो ग़ुस्सा नहीं आता, तरस आती है, हम ये नहीं कहते कि जब आपातकाल लगा या 74 का छात्र आंदोलन चला तो आप पैदा भी नहीं होंगे, यह कहना जायज नहीं है, आपका पूरा हक है इस वाक़यात को जानें और उस पर जायज़ तार्किक बहस करें। आपकी सुविधा के लिए बता दूँ - अभी वाणी प्रकाशन से एक दमदार किताब आई है “1974“। इसका संपादन किया है उस समाय के दो मशहूर पत्रकार - अम्बरीश कुमार और अरुण कुमार त्रिपाठी ने। 

74 का छात्र आंदोलन क्या था, आपातकाल क्या था, उस समय की परिस्थितियाँ क्या थीं, संघ और जेपी के रिश्ते वगैरह। इस किताब में जिन लोगों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं वे सब के सब अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते हैं।

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छात्र आंदोलन और आपातकाल का अंत जान लेना ज़रूरी है जितना कि उस समय के किरदारों की भूमिका को। 

छात्र आंदोलन क्या था? आपातकाल क्या था, कैसा था? इसे आसान शब्दावली से समझ लीजिए। 

“लोकतंत्र में दो शक्ति समाहित है- जनशक्ति और राजशक्ति। इसी जनशक्ति और राजशक्ति के “तनाव” पर लोकतंत्र फलता-फूलता है। राजशक्ति अगर मज़बूत हुई तो तानाशाही का ख़तरा रहता है, और जनशक्ति ताक़तवर हुई तो अराजकता आएगी। तानाशाही और अराजकता से बचाना हो, लोकतंत्र को ज़िंदा रखना हो तो दोनों के बीच बराबर का तनाव बना रहना चाहिए।“

दुनिया के इतिहासकार कभी लोकतंत्र की बात करेंगे तो 70 के दशक का भारत सामने रखना पड़ेगा जहाँ एक ही साथ जनशक्ति और राजशक्ति का “प्रयोग“ होता है। जनशक्ति के प्रतीक हैं समाजवादी जे पी और राजशक्ति की प्रतीक हैं समाजवादी इंदिरा गांधी।

दोनों गांधीवादी हैं, फर्क है तो बस इतना कि एक एक सरकारी समाजवादी है दूसरा कुजात गांधीवादी (बकौल डॉ. लोहिया - गांधीवादी तीन हैं, सरकारी गांधीवादी (पंडित नेहरू) मठी गांधीवादी (विनोबा भावे) और कुजात गांधीवादी (तमाम समाजवादी)। इन दो शक्तियों के टकराव का अंत इतिहास को चौका कर चौकन्ना करता है, दोनों एक दूसरे से गले मिलते हैं, दोनों में प्रायश्चित की भावना है। दोनों मिल कर इतिहास बनते हैं। भारत का यह कालखंड अपने इस प्रयोग के लिए जाना जाएगा, अंग्रेजी का एक मुहावरा है- both is right on wrong point. ग्रीक ट्रेजडी का बड़ा उदाहरण सामने आता है। दोनों ने अपने “अति“ को स्वीकारा, दोनों इतिहास के हीरो हो गए। खलनायक कोई नहीं। मंजर देखिए।

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आपातकाल खत्म हुआ, चुनाव में इंदिरा गांधी की पराजय हुई, जनता पार्टी सत्ता में आ रही है। सरल भाषा में जनशक्ति जीत रही है और राजशक्ति हार रही है। लेकिन इतिहास तो कहीं और लिखा जा रहा था, नेपथ्य में नहीं, सारेआम। जनता पार्टी अपनी जीत का जश्न राजघाट पर मना रही है। इसके नायक जेपी श्रीमती इंदिरा गांधी के घर पहुंचे हैं, दोनों ने एक दूसरे को देखा, रोक नहीं पाये दोनों अपने आपको, दोनों की नम आँखों ने राज खोल दिया। श्रीमती गांधी का सर जेपी के कंधे पर, जेपी का हाथ इंदू की पीठ पर। दोनों रो रहे हैं। दुनिया की सबसे ताकतवर आयरन लेडी इंदिरा गांधी आनंद भवन की इंदु बनी, पंडित नेहरू के सबसे बड़े चहेते जेपी अतीत में मड गए। दोनों के बीच कुल दो सतर का संवाद हुआ। इंदू ने पूछा 

 - अब क्या होगा? 

- सब ठीक हो जाएगा। 

और सब ठीक हुआ। श्रीमती गांधी ने देश से अपने गलती के लिए माफ़ी मांगी, देश ने माफ़ कर दिया। 

इस पूरे वाक़ये का एक मात्र गवाह हैं गांधी शांति प्रतिष्ठान के भाई कुमार प्रशांत जो जेपी के साथ श्रीमती इंदिरा गांधी के घर गए थे।

समाजवादी और कांग्रेस के रिश्ते पारिवारिक हैं। लाठी मारने से काई नहीं फटती दोस्त। विवाद मत करो। तुम इतिहास लिखने की कोशिश में जिसे अभद्र भाषा में तौल रहे हो, वे ख़ुद इतिहास हैं।