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रियाना और ग्रेटा के ट्वीट से फायदा उठाना चाहती है सरकार?

किसान आंदोलन को शुरुआत से ही बदनाम करने की कोशिश की गई। अब वैश्विक हस्तियों के द्वारा इस आंदोलन का समर्थन करने को मोदी सरकार एक अंतरराष्ट्रीय साजिश के तौर पर पेश कर रही है। रियाना के साथ एक सिख का फोटो वायरल करके आंदोलन को फिर से बदनाम करने की कोशिश हो रही है। भारतीय संप्रभुता पर हमले और अंतरराष्ट्रीय साजिश के शोर की आड़ में मोदी सरकार संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त विरोध करने के मौलिक अधिकारों का गला घोटना चाहती है। 
रविकान्त

दिल्ली की सरहदों पर दो माह से ज्यादा समय से चल रहा किसान आंदोलन अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा बन रहा है। अमेरिका की सुपर स्टार पॉप सिंगर रियाना के ट्वीट के बाद मामला बेहद संजीदा हो गया है। रियाना के अतिरिक्त अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस और स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा तनबर्ग (थनबर्ग) जैसी तमाम वैश्विक हस्तियों ने दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को रेखांकित करते हुए चिंता जताई है। 

एक महीने पहले अमेरिका के सदन पर हुए हमले को याद करते हुए मीना हैरिस ने किसानों के उत्पीड़न को लोकतंत्र पर हमला बताया है। इसके जवाब में बीजेपी आईटी सेल के अलावा मोदी सरकार के तमाम आला मंत्रियों ने रियाना जैसी हस्तियों पर किसान आंदोलन के जरिए भारत को बदनाम करने का आरोप लगाया है। 

मोदी समर्थक बॉलीवुड और क्रिकेट के स्टारों ने भी विदेशी हस्तियों द्वारा किसान आंदोलन के समर्थन को भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करार देते हुए उनकी आलोचना की है। 

दरअसल, मोदी सरकार वैश्विक हस्तियों के ट्वीट का अपने हित में इस्तेमाल करना चाहती है। किसानों के समर्थन को भारत के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप बताकर, मोदी सरकार इसे भारत की संप्रभुता पर हमले के रूप में प्रचारित कर रही है।

इसके लिए भारत की सेलिब्रिटीज को लगाया गया है। कंगना रनौत अक्षय कुमार, अजय देवगन, करण जौहर, कैलाश खेर और सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली आदि ने हैशटैग इंडिया अगेंस्ट प्रोपेगेंडा चलाकर वैश्विक हस्तियों के ट्वीट को भारत की संप्रुभता पर हमला कहा है। 

यह उसका पुराना फार्मूला है। हालांकि, उसका पहला हमला खाली चला गया। 26 जनवरी को किसानों की ट्रैक्टर रैली के एक बहुत छोटे हिस्से का लाल किले तक पहुंचना और निशान साहिब फहराना गोया पुरानी पटकथा का नया मंचन था। जेएनयू और शाहीन बाग वाली पुरानी कहानी दोहराई जा रही थी।

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टिकैत के आंसुओं ने बदला माहौल 

इसके बाद कॉरपोरेट मीडिया ने अपनी बहसों को लाल किले पर केंद्रित करके, पूरे मामले को किसानों की साजिश के तौर पर प्रचारित किया। पुलिस ने किसानों पर यूएपीए जैसी संगीन धाराओं में मामले दर्ज किए। इस दुष्चक्र से सरकार आंदोलन को खत्म करना चाहती थी। लेकिन राकेश टिकैत के आंसुओं ने ना सिर्फ लाल किले के कलंक को धो दिया बल्कि अपार जनसमर्थन भी हासिल कर लिया। 

किसान आंदोलन दोगुनी ताकत के साथ फिर से खड़ा हो गया। बड़े पैमाने पर पश्चिमी यूपी, हरियाणा और राजस्थान में किसान महापंचायतें हो रही हैं। इनके जरिए सरकार के सामने बड़ी चुनौती पेश हो रही है।

बदनाम करने की कोशिश 

किसान आंदोलन को शुरुआत से ही बदनाम करने की कोशिश की गई। अब वैश्विक हस्तियों के द्वारा इस आंदोलन का समर्थन करने को मोदी सरकार एक अंतरराष्ट्रीय साजिश के तौर पर पेश कर रही है। रियाना के साथ एक सिख का फोटो वायरल करके आंदोलन को फिर से बदनाम करने की कोशिश हो रही है। भारतीय संप्रभुता पर हमले और अंतरराष्ट्रीय साजिश के शोर की आड़ में मोदी सरकार संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त विरोध करने के मौलिक अधिकारों का गला घोटना चाहती है। 

दरअसल, कंटीले तारों से लेकर लंबी-लंबी नुकीली सरिया और स्थाई कंक्रीट की बैरिकेडिंग करके किसानों की घेराबंदी की जा रही है। किसानों के प्रति सरकार की निर्ममता और गैर-लोकतांत्रिक रवैये की चौतरफा आलोचना हो रही है। इससे ध्यान भटकाने के लिए, लगता है मोदी सरकार को  मौका मिल गया है। 

विदेशी हस्तियों के ट्वीट को भारतीय अस्मिता पर हमला बताकर सरकार जनमानस में राष्ट्रवाद और देशभक्ति के जुनून को पैदा करना चाहती है।

हालाँकि अब तक बीजेपी की दिक्कत यह रही है कि सीएए-एनआरसी की तरह, चाहकर भी मोदी सरकार किसान आंदोलन को धार्मिक रंग नहीं दे पायी पर बीजेपी और उसके आनुषांगिक संगठन अभी भी इस मुद्दे को खालिस्तानी बनाने की पुरज़ोर  कोशिश कर रहे हैं। लेकिन सरकार का मंसूबा पूरा होता नहीं दिख रहा है। 

किसान आंदोलन पर देखिए वीडियो- 

दरअसल, बीजेपी का राष्ट्रवाद भारतीय राष्ट्रवाद नहीं है। आजादी के आंदोलन में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ उपजा भारतीय राष्ट्रवाद अपनी बुनियाद में समावेशी है। महात्मा गांधी के शब्दों में राष्ट्रवाद का मतलब है, 'अंतिम व्यक्ति के आंखों से आंसू पोंछना।' एरिक हाब्सबॉम जैसे विचारकों और विस्टन चर्चिल जैसे नेताओं ने यूरोपीय राष्ट्रवाद के नजरिए के कारण ही भारत के बिखर जाने की संभावनाएं व्यक्त की थी। उनकी नजर में भारत जैसा बहुल सांस्कृतिक राष्ट्र स्थाई नहीं हो सकता। लेकिन भारत के बहुल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने एक पहचान पर आधारित नस्लवादी और साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद को खारिज कर दिया। 

हिटलर का जर्मन राष्ट्रवाद 

आजादी के बाद स्थापित मजबूत लोकतंत्र ने भारतीय राष्ट्रवाद और बहुलतावाद के विचार को साबित कर दिखाया। यूरोपीय राष्ट्रवाद दुश्मन के सिद्धांत पर विकसित हुआ। इसमें एक बाहरी और एक भीतरी शत्रु की अवधारणा निहित है। मसलन, हिटलर का जर्मन राष्ट्रवाद शुद्ध आर्य नस्ल पर आधारित था। हिटलर ने यूरोप के दूसरे राष्ट्रों को जर्मनी का बाहरी और यहूदियों को भीतरी शत्रु घोषित किया। यहूदियों का बर्बरतापूर्वक नरसंहार किया गया। 

हिटलर के इस कृत्य और इतिहास के काले अध्याय को आज का जर्मनी याद भी नहीं करना चाहता। नस्ली राष्ट्रवाद के इन भयावह नतीजों और विश्वयुद्ध की विभीषिका को झेलने वाले यूरोप में आज राष्ट्रवादी होना कतई गर्व की बात नहीं है।

बीजेपी और संघ का राष्ट्रवाद 

दुर्भाग्य से, बीजेपी और संघ का राष्ट्रवाद यूरोपीय राष्ट्रवाद का ही क्लोन है। बीजेपी के हिन्दू राष्ट्रवाद में पाकिस्तान स्थाई तौर पर बाहरी शत्रु है और मुसलमान भीतरी दुश्मन। लेकिन बीजेपी-संघ के विचार और सत्ता का विरोध करने वाले तमाम समुदाय विशेष देशकाल में भीतरी दुश्मन बना दिए जाते हैं। इन दुश्मनों का पहले दानवीकरण किया जाता है। फिर इनका दमन किया जाता है। तभी यह राष्ट्रवाद फलता-फूलता है। 

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जेएनयू, जामिया पर हमला

नस्लवादी राष्ट्रवाद की यह विशेषता है कि इसके खिलाफ खड़ा होने वाला प्रत्येक विचार, समुदाय या आंदोलन शत्रु बना दिया जाता है। इसलिए वामपंथी गढ़ माने जाने वाले जेएनयू पर हमला किया गया। मुसलिम पहचान से जुड़े हुए जामिया और शाहीन बाग आंदोलन पर हमला किया गया। इस दमन चक्र में कभी कभार दलित और आदिवासी भी आ जाते हैं।

इस समय किसान संघी राष्ट्रवाद के दमन चक्र का शिकार हो रहा है। अपने समर्थकों के साथ बीजेपी के एक विधायक का गाजीपुर बार्डर के करीब जा धमकना और दूसरे विधायक की कैमरे पर धमकी इसी दमन चक्र का हिस्सा हैं। आज भारतीय जनमानस में अंतरराष्ट्रीय साजिश और संप्रुभता के खतरे का भय दिखाकर संघ और बीजेपी सरकार किसान आंदोलन को खत्म करना चाहती है। लेकिन फिलहाल सरकार के मंसूबे पूरे होते नहीं दिख रहे हैं।

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