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भारतीय सैनिक चीन के कब्जे में हैं, यह बात जनता से क्यों छुपाई गई?

सेना और विदेश मंत्रालय ने दावा किया था कि कोई भी जवान ‘लापता’ नहीं है लेकिन चीन द्वारा दस भारतीय जवानों को रिहा करने के बाद दोनों की किरकिरी हो रही है। साफ है कि इस मामले में सेना और विदेश मंत्रालय, दोनों ने सामूहिक रूप से देश को ग़ुमराह किया है। दूसरी ओर, चीन पूरी रणनीति के साथ आया है तो फिर क्या सैनिक और राजनयिक स्तर की बातचीत से विवाद को सुलझाने का कोई सुनियोजित ढोंग चल रहा है? 
मुकेश कुमार सिंह

किसी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश की सेना का अराजनीतिक होना ज़रूरी है। लेकिन लगता है कि भारतीय सेना अब इस मान्यता से भटक चुकी है। तभी तो वो भी सरकार और इसके नेताओं की तरह झूठी बयानबाज़ी करने लगी है। अब साफ़ दिख रहा है कि 15 जून को लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ हुई बर्बर झड़प को लेकर भारत सरकार, सेना और विदेश मंत्रालय, ने सामूहिक रूप से देश को ग़ुमराह किया है। 

वरना, बर्बर झड़प के बाद ‘लापता नहीं हुए’ भारतीय सेना के दो मेज़र समेत दस जवानों की युद्धबन्दियों की तरह रिहाई कैसे हो जाती? जबकि सेना और विदेश मंत्रालय ने एक दिन पहले ही तो दावा किया था कि 20 सैनिकों की जान गंवाने और क़रीब 80 जाँबाजों के ज़ख्मी होने के बावजूद हमारा कोई जवान ‘लापता’ नहीं है।

साफ़ है कि सेना पर भी अब ऐसा ‘छद्म राष्ट्रवाद’ हावी दिखाई देता है जिस वजह से वह सरकार के इशारे पर अपने ही देशवासियों से, अपने ही जवानों की सच्चाई को, ‘कूटनीति’ की आड़ में झूठ बनाकर परोस रही है।
इस सारे घटनाक्रम को सरकार की सरासर मक्कारी या पतित व्यवहार या भ्रष्ट आचरण नहीं कहें तो फिर भला क्या कहें? क्योंकि अब जो सच सामने है उसके मुताबिक़, 18 जून की देर शाम को चीन ने दस भारतीय सैनिकों को रिहा किया। इसी रोज़ दिन के वक़्त सेना बता चुकी थी कि उसका कोई सैनिक ग़ायब नहीं है। शायद इसीलिए शाम 5 बजे, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी यही दोहरा दिया। 

जनता को बरगलाने का खेल

अब बरगलाया जा रहा है कि बन्दी बनाये गये सैनिकों की सुरक्षा को देखते हुए सच को छिपाया गया। यदि ये मान भी लिया जाए कि ऐसे सच को छिपाना भी एक सैन्य रणनीति है तो फिर इनकी रिहाई को भी हमेशा के लिए छिपाकर ही क्यों नहीं रखा गया? 

जब कोई सैनिक ग़ायब नहीं था तो बेचारे पत्रकार भी भला कैसे पूछते कि चीन ने कितने सैनिकों को बन्दी बना रखा है? अब जब तीन दिनों तक युद्धबन्दी रहकर, चीनी सेना की यातनाएँ झेलने वाले दस सैनिकों की रिहाई हो गयी है तो भारतीय सेना इस पूरे मामले को ऐसे पेश कर रही है, जैसे उसने कोई मोर्चा जीत लिया हो। 

साफ़ है कि सेना पर भी सरकार की तरह नाहक ढोल पीटने के संस्कार हावी हो चुके हैं। अब ‘लापता’ या ‘ग़ायब’ या ‘Missing’ शब्द के भावार्थ से खेला जा रहा है। ये झूठ फैलाया जा रहा है कि इन शब्दों का मतलब ही होता है, ‘जिसका पता-ठिकाना नहीं हो’। ज़ाहिर है कि सेना को अच्छी तरह से मालूम था कि उसके दस सैनिक जो बर्बर झड़प के बाद अपने शिविरों में नहीं लौटे, उनका पता-ठिकाना क्या है? तभी तो वे लापता नहीं थे और इनकी रिहाई के लिए दो दिनों तक मेज़र जनरल स्तर की बातचीत के तीन दौर चले।

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इतिहास से अंजान नहीं है सेना

याद कीजिए कि क्या इसी बातचीत को सरकारी तंत्र और उसका पिछलग्गू मेनस्ट्रीम मीडिया, ऐसे पेश नहीं कर रहा था कि मानो चीनी सेना को नये सिरे से वापस अपनी अप्रैल वाली ‘पोज़िशन्स’ पर लौटने के लिए मनाया जा रहा हो? अरे! देश भूला नहीं है कि आख़िरी बार चीनी सेना ने भारतीय सैनिकों को 1962 में युद्धबन्दी बनाया था। वो बाक़ायदा युद्ध था, लेकिन अभी तो किसी ने युद्ध की घोषणा नहीं की। फिर झूठी छवि क्यों बनायी गयी? यदि इसका सम्बन्ध सेना के हौसले पर ज़ोखिम पड़ने से था, तो क्या अब रिहाई की ख़बर से सैनिकों का हौसला सातवें आसमान पर पहुँच गया होगा? क्या हमारे सैनिक नहीं जानते हैं कि 1975 के बाद, 45 साल बाद, उनके 20 निहत्थे साथी बर्बर झड़प में शहीद हुए हैं? 

वीर-रस से ओतप्रोत भाषण और बयान देने वाले हमारे सियासी हुक़्मरानों की सच्चाई 135 करोड़ भारतवासियों के सामने है। हमने बीते छह सालों में सेना के आला जनरलों और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के भी सियासी बयान ख़ूब देखे हैं।

हमारे इलाक़ों पर हक़ जता रहा चीन 

बात बड़ी सीधी सी है कि डेढ़ महीने से ज़्यादा का समय बीत गया। लद्दाख में कई जगहों पर चीन ने भारतीय सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर पीछे धकेल रखा है। सैकड़ों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर चीनी सेना आगे बढ़कर जमी हुई है। जिन इलाकों को लेकर दोनों देशों के बीच कभी कोई सीमा विवाद नहीं रहा, वहाँ भी भारतीय इलाके को अचानक वह अब अपना बता रही है। 

गलवान घाटी और पैंगोंग झील की फिंगर्स भी ऐसी ही जगहें हैं। साफ़ दिख रहा है कि इतिहास की अनदेखी करके जिन्होंने सपोलों के प्रति प्यार दिखाया उन्हीं सपोलों ने परिपक्व साँप बनने के बाद उन्हें ही डस लिया है।

रणनीति के साथ आई चीनी सेना

भारत के सियासी और सैनिक हुक़्मरान अब भी ये समझने को तैयार नहीं कि चीनी सेनाएँ जहाँ तक और जिन चोटियों पर आकर रुकी हुई हैं, वहाँ तक आने की उसकी बाक़ायदा रणनीति और तैयारी थी। तो फिर क्या सैनिक और राजनयिक स्तर की बातचीत से विवाद को सुलझाने का कोई सुनियोजित ढोंग चल रहा है? 

चीनी अतिक्रमण को हटाने के लिए भारतीय रणनीतिकार पहली बार अपने सैनिकों को निहत्था रहकर शहीद बनने के लिए भेज रहे हैं। सेना, अनुशासन के बोझ तले दबकर अपने प्राणों की आहुति दे रही है, क्योंकि उसे हुक़्म ही यही मिला है!

भटकी नहीं है चीनी सेना

अरे! भारत को अभी तक इतनी बात समझ में क्यों नहीं आ रही है कि चीन इसलिए पीछे नहीं जा रहा क्योंकि वो कोई भटककर तो आगे आया नहीं कि चेताने पर लौट जाए। ज़ाहिर है कि चीन वापस जाना ही नहीं चाहता, क्योंकि वो पीछे जाने के लिए तो आगे आया नहीं था। 

चीन ने ख़ूब सोच-विचारकर मौजूदा वक़्त चुना है। उसे मालूम है कि भारत इस वक़्त कोरोना के सामने पस्त पड़ा है। हमारा स्वास्थ्य ढाँचा और हमारी अर्थव्यवस्था भी अभी इतनी चरमराई हुई है कि हमारी सरकारें सीधे तनकर खड़ी भी नहीं हो पा रही हैं।

युद्ध-शास्त्र कहता है कि दुश्मन पर तब हमला करो जब वो सबसे कमज़ोर या नाज़ुक दौर में हो या कमोबेश सो रहा हो। इसे ही Tactical Surprise कहते हैं। क्या चीन ने यही नहीं किया है? क्या उसने पहली बार धोखा या दग़ा किया है?

चीन को बताया था दुश्मन नम्बर-1

सभी जानते हैं कि हमारी मौजूदा सरकार को काँग्रेसी अनुभवों से चिढ़ है। लेकिन इसे अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फ़र्नांडीस का वो बयान भी क्यों याद नहीं रहा, जिसमें दोनों ने ही चीन को भारत का दुश्मन नम्बर-1 बताया था। राम मनोहर लोहिया और मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी भी चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बता चुके हैं। 

लेकिन इतिहास को नज़रअन्दाज़ करके हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने छह साल के कार्यकाल में पाँच बार चीनियों से अपनी मेहमान नवाज़ी करवायी, 18 बार वैश्विक या द्विपक्षीय मंचों पर अपने उस ‘दग़ाबाज़ दोस्त’ से गलबहियाँ की जो सिर्फ़ चीन का राष्ट्रपति ही नहीं, उसका असली सेनानायक भी है, जिसकी सहमति के बग़ैर चीनी सेना में कुछ नहीं होता।

बिरयानी खाने पहुँचे लाहौर 

यही नहीं, एक बार तो वो इस क़दर ‘चुपके-चुपके और चोरी-चोरी’ दुश्मन नम्बर-2 के साथ बिरयानी खाने के लिए लाहौर भी पहुँच गये कि हमारी तत्कालीन विदेश मंत्री तक को हवा नहीं लगी, जबकि विदेश मंत्री के ही मातहत रहने वाले हमारे राजदूत ने सारा इन्तज़ाम सम्भाला था। 

ख़ैर, ये भी क्या विकट संयोग है कि भारत के शीर्ष स्तरीय बयान-वीरों की कलई खोलने का, उन्हें बेनक़ाब करने का बीड़ा भी उनके ही ‘पक्के दोस्तों’ ने उठाया। वाजपेयी जी बस लेकर लाहौर गये थे तो उन्हें रिटर्न गिफ़्ट में कारगिल मिला। कारगिल की तरह ही इस बार भी लद्दाख में दुश्मन ख़ूब सोच-विचारकर और पूरी तैयारी के साथ ही एलएसी पर चढ़ आया है।

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मोदी राज में 1025 बार घुसपैठ की कोशिश

‘चुपके-चुपके और चोरी-चोरी’ का ये जाना-पहचाना चीनी वर्जन है। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016 से लेकर 2018 के बीच चीनी सेना ने भारतीय सीमा पर 1025 बार घुसने की कोशिश की है। ये आँकड़े विशुद्ध रूप से मोदी राज के हैं और लगातार बढ़ते रहे हैं। इसीलिए, अब तो बस इतना तय होना है कि ‘मोदी-02’ अपने चहेते दोस्त के साथ ‘कारगिल-02’ करेंगे या यूँ ही हाड़ कँपाने वाली सरहद पर अन्ताक्षरी का खेल चलता रहेगा? 

इस बीच, चीन की दग़ाबाज़ी को कोसते वक़्त आप चाहें तो आडवाणी, जोशी, यशवन्त, शौरी, शत्रुघ्न जैसों की पीठ में छुरा भोंकने वालों का स्मरण भी अवश्य करें। याद रखें कि नेता की सबसे बड़ी ख़ूबी यही होती है कि उसे दोस्त और दुश्मन की पहचान बहुत जल्दी हो जाती है। वो नेता ही क्या जिसे इंसान की पहचान न हो! साफ़ दिख रहा है कि भगवा जमात इस मोर्चे पर भी फिसड्डी रही है।

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