नागरिक विमानन क्षेत्र के हमारे सबसे बड़े संकट के बीच राज्यसभा में जब विमानन मंत्री के. राममोहन नायडू दोषी इंडिगो कंपनी को ‘एकजेम्पलरी’ सजा देने की घोषणा कर रहे थे तभी इस विमानन कंपनी का एक विमान गोवा नाइट क्लब की आगजनी के मुख्य दोषियों को लेकर फुकेट पहुंचाने उड़ा। उस दिन भी पाँच सौ से ज़्यादा उड़ानें रद्द हुई थीं और उस दिन भी बड़े पैमाने पर यात्रियों के सामान आगे पीछे हुए या नहीं लौटये जा सके। उस दिन भी टिकटों की जमकर ब्लैक मार्केटिंग हुई और जाहिर तौर पर गोवा नाइटक्लब वाले महानुभावों ने भी कथित सर्ज प्राइस पर ही टिकट लिया हो। संभव है उन्होंने फ्लाइट रद्द होने के बीच अपनी यात्रा सुनिश्चित करने के लिए एयरलाइंस को कुछ अतिरिक्त चढ़ावा भी चढ़ाया हो या उनकी मित्रता रही हो। इसलिए मंत्री जी के दावों की तुलना में एयरलाइन्स और धंधेबाजों की ताक़त का ज़्यादा लगाना स्वाभाविक है।
इस हंगामे के बीच बाकी एयरलाइन्स द्वारा सर्ज प्राइस के नाम पर आठ से दस गुना तक ज़्यादा भाड़ा वसूलने का खेल भी चलता रहा और सरकार सब जानकर खामोश बनी रही। मंत्री और सरकार के दावों को खोखला मानने का एक और आधार यह भी है कि पिछले पंद्रह वर्षों में हमारे तीन एयरलाइंस ध्वस्त हो गए लेकिन नागरिक विमानन के मामले में कोई नई पहल या नये कायदे लाने की बात नहीं हुई। और विमानों की स्थिति, बाजार में मोनोपॉली, किराए की लूट, कर्मचारियों और विमानों पर भी ज़रूरत से ज़्यादा वर्कलोड वाली स्थिति बदहाल ही होती गई है।
हवाई चप्पल में विमान यात्रा का क्या हुआ?
सस्ता विमानन, हवाई चप्पल वालों को विमान यात्रा का सुख देने और सौ दो सौ किमी की दूरी वाले शहरों में भी हवाई अड्डे बनाकर नई क्रांति (और वोट पाने) का खेल जारी रहा। जब रख-रखाव की साफ़ कमी की वजह से एअर इंडिया की एक अंतरराष्ट्रीय उड़ान दुर्घटनाग्रस्त हुई और रोज रख-रखाव की कमी और पाइलटों पर ज्यादा बोझ का मामला सामने आने लगा तब सरकार को कुछ कदम उठाने की मजबूरी हुई।
पायलटों के अलावा ग्राउंड स्टाफ भी कितने बोझ से दबा जा रहा है, यह बात इस बार के संकट में सामने आई है तब भी चर्चा सिर्फ पायलटों की कमी या उनके वर्क-लोड मैनेजमेंट की ही है। पर इसे हमारी विमानन नीति, बाजार की दादागीरी और सरकार द्वारा ठीक से अपनी ताक़त का इस्तेमाल भी न करने का उदाहरण ही मानना चाहिए कि दुर्घटना के बाद सरकार ने वर्क-लोड मैनेजमेंट के जो नये दिशानिर्देश दिए थे उनका पालन भी नहीं हो रहा था और अब मौजूदा संकट के बाद उन दिशानिर्देशों में ही ढील दी गई है। यह सिर्फ बाजार पर इंडिगो की 65 फीसदी मोनोपॉली भर का मामला नहीं है, यह अधिकारियों और सरकार पर उसके शत प्रतिशत एकाधिकार का ज्यादा बढ़िया उदाहरण है।जब से निजी विमानन कंपनियों के लिए आकाश खुला है तब से यात्रियों के मामले में उनको जितनी सफलता मिली है उससे ज्यादा सफलता सरकार और अधिकारियों पर अपना जादू चलाने में मिली है।
सारे हवाई अड्डे अडानी समूह के हवाले
और इसका ही परिणाम है कि सरकार ने सारे हवाई अड्डों को अडानी समूह के हवाले कर दिया है और पूरा आसमान निजी कंपनियों को मनमानी के लिए सौंप दिया है। और हमारे यहाँ जिस रफ्तार में यात्रियों की संख्या बढ़ी है उसने भी विमानन कंपनियों को मनमानी करने को ललचाया है। वे दुनिया में कहीं से भी सेकंड हैंड या भाड़े के पुराने विमान लाकर यहां जिस तिस रूट पर चलाने लगे हैं। उनकी देख-रेख ठीक नहीं होती और पोर्टर से लेकर पायलट तक पर ज्यादा से ज्यादा काम का दबाव है। हर फ्लाइट में अगर दसेक मिनट भी बचा लिए जाएँ तो इंडिगो जैसी कंपनी को साल में कई सौ अतिरिक्त फेरे लगाने की गुंजाइश बन जाती है। और इसका हिसाब करोड़ों में भी बहुत बड़ा है।
कंपनी का लाभ ही आठ हजार करोड़ को छू रहा है जबकि सस्ता और सुविधाजनक के नाम पर आई यह या इस जैसी कंपनियां खिड़की वाली सीट, आगे-पीछे की मनचाही सीट और हर सहूलियत का अतिरिक्त पैसा वसूलने लगी हैं। जो थोड़ा समय हो उसमें हवा में ही मार्केटिंग शुरू हो जाती है और चाय काफी से ही भारी कमाई होने लगी है। कहीं किसी चीज पर कोई सरकारी या कानूनी सीमा या बंदिश हो, यह नहीं समझ आता। और अगर कोई विरोध करे या सुविधा मांगे तो उसे हवाई पट्टी पर ही पीटने की ख़बरें भी आने लगी हैं।होना यह चाहिए कि सरकार विमानन या बाजार की किसी भी कंपनी को अनुमति और सुविधाएँ देने के साथ उनकी लठैटी की जगह ग्राहकों और अपने नागरिकों के हितों की रखवाली वाली लठैती करनी चाहिए। और यह काम जब सबसे ऊपर स्तर से शुरू होगा तब नीचे के अधिकारी और कर्मचारी भी बदलेंगे। नियमों में किसी किस्म की ढील की कीमत क्या होती है यह हर बार के हादसों के बाद शोर मचाता ही है। लेकिन उनसे सीख नहीं ली जाती। पर मुश्किल यह है कि जब सरकार रेलवे को बगैर निजी हाथों में सौंपे सारी सेवाएं निजी कंपनियों को देने लगी है, स्टेशन और प्लेटफार्म नीलाम होने लगे हैं, जब वह खुद सर्ज प्राइस जैसी व्यवस्था से रेल टिकटों में ज्यादा कमाई करने लगी है, जब रेल मंत्रालय के लिए राजनेताओं और दलों में खींचतान चलती हो (जाहिर तौर पर कमाई ही कारण है) तब उससे निजी विमानन कंपनियों पर डंडे चलाने की उम्मीद कौन कर सकता है।
विदेशों में कैसा नियम?
विदेशों में ऐसा नहीं है। निजी क्षेत्र सब करता है लेकिन रेगुलेशन के तहत। तानाशाही और राजतन्त्र की बात अलग है लेकिन चुनी हुई सरकारों वाले देशों, खासकर अमेरिका और यूरोप में सरकारें कंपनियों की जगह लोगों और कानून की लठैती करती दिखती हैं। ट्रम्प लाख बावले दिखते हों पर अपने नागरिकों के हकों के खिलाफ नहीं जाते। और सबसे बड़ा फर्क वहां के ग्राहक आंदोलन और उनके दबाव में बने कानूनों के चलते आता है। वहां कोई भी महाबली कंपनी गलत उत्पाद, खराब सेवा और इस तरह से ग्राहकों का नुकसान करके बच नहीं सकती। किसी की शादी रुक जाए, कोई मरते मां-बाप से न मिल पाए, किसी की अगली फ्लाइट मिस हो जाए यह गुनाह करके आप बच नहीं सकते। विमानन के मामले में तो और भी सख्ती है-टिकट वापसी, उसकी कीमत से कई गुना ज्यादा जुर्माना, होटल और ट्रांसपोर्ट का बिल भुगतान जैसी सजा भुगतनी ही होती है। और सरकारी डंडा जितना नुकसान करे ग्राहकों की भरपाई में कंपनियों की हालत खराब हो जाती है। फिर वे डरती है। यहाँ कोई डर नहीं है- न सरकार का न ग्राहक का। इसकी असली वजह यह भी है कि हमारी सरकार भी हमारी कम परवाह करती है। उसे नागरिकों का डर तो शायद है ही नहीं।