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क्या ब्लैक डेथ या प्लेग की महामारी का दौर लौट सकता है?

चीन सरकार ने जब मंगलवार को यह स्वीकार किया कि मंगोलिया के भीतरी इलाक़े में ब्यूबोनिक प्लेग से एक व्यक्ति की मौत हुई है तो कोरोना वायरस से त्रस्त दुनिया को दहशत का एक नया कारण मिल गया। चीन ने सिर्फ़ यह ख़बर ही नहीं दी, मौक़े की नज़ाकत के हिसाब से ही स्थानीय स्तर पर सतर्कता की चेतावनी भी जारी कर दी। इस ख़बर ने लोगों को डराया ही नहीं, बल्कि चीन के ख़िलाफ़ ग़ुस्से का एक और कारण दे दिया। ट्विटर वगैरह पर ऐसी टिप्पणियाँ भी दिखीं कि चीन के लोग जिस तरह से चूहें आदि का भक्षण करते हैं यह उसी का नतीजा है। हालाँकि प्लेग का सच इससे काफ़ी अलग है।

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यह सच है कि इस समय हम सब कोरोना के ज़रिये फैल रही कोविड-19 की महामारी से बेहतर परेशान हैं, लेकिन यह भी सच है कि अतीत में इस दुनिया को जितना आतंकित प्लेग ने किया है, शायद किसी और महामारी ने नहीं किया। तेज़ी से फैलने वाली इस महामारी ने अतीत में 30 से 85 फ़ीसदी तक मरीज़ों की जान ली है। एक ऐसा भी दौर था जब कई जगहों पर पूरे-पूरे गाँव और कस्बे ही इसकी वजह से साफ़ हो गए थे। इसीलिए इसे ‘ब्लैक डेथ’ का नाम दिया गया था। इस महामारी ने एक-दो साल नहीं, सदियों तक मानवता को हिलाए रखा है।

क्या प्लेग फिर लौट रहा है? इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या प्लेग सचमुच लौट सकता है?

प्लेग के ताज़ा मामले की ख़बर उसी चीन से आई है जहाँ से कोरोना निकल कर पूरी दुनिया में फैला था, इसलिए भी चिंताएँ चरम पर हैं। पिछले कुछ दशक में हमने यह मान लिया है कि प्लेग अब दुनिया से विदा हो गया है। प्लेग को लेकर हमारी याददाश्त ज़्यादा से ज़्यादा नब्बे के दशक तक जाती है जब गुजरात के सूरत में प्लेग फैलने की ख़बर आते ही पूरा देश दहशत में आ गया था।

हालाँकि यह धारणा ठीक नहीं है। न तो प्लेग का उन्मूलन ही हुआ है और न ही प्लेग का जीवाणु इस दुनिया से कहीं विदा हुआ है। यह अक्सर पूरी दुनिया में कहीं न कहीं सक्रिय हो जाता है। यह ज़रूर है कि अब इसका दायरा काफ़ी सीमित होता है। मसलन, अगर हम चीन को ही लें तो पिछले साल भी वहाँ प्लेग के कारण दो लोगों की मौत हुई थी। अमेरिका में तो हाल फ़िलहाल तक इसके कई मामले सामने आते रहे हैं। सेंटर फ़ॉर डिज़ीज कंट्रोल के आँकड़ों को देखें तो साल 2000 तक अमेरिका में हर साल प्लेग के औसतन 17 मामले दर्ज हुए। बाद में इसमें कुछ कमी आई। 2015 में वहाँ इसके 16 मामले सामने आए और 2016 में सिर्फ़ चार मामले। विश्व स्तर पर देखें तो 2017 में इसके 600 मामले दर्ज किए गए थे।

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यानी प्लेग के ख़िलाफ़ मानवता की लड़ाई अभी बाक़ी है लेकिन इस सबके बावजूद प्लेग से अब किसी तरह की दहशत खाने की ज़रूरत नहीं है। एक महामारी के तौर पर प्लेग के ख़िलाफ़ जंग हमने बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में ही जीत ली थी। पहले प्लेग की वैक्सीन और फिर एंटीबायोटिक ने यह आशंका हमेशा के लिए ख़त्म कर दी कि ब्यूबोनिक, न्यूमोनिक या किसी और तरह का प्लेग एक दिन लौटेगा और आबादी के बड़े हिस्से का सफाया कर देगा। यह आतंक उस समय तक ही था जब प्लेग का दुनिया के पास कोई इलाज नहीं था और इससे संक्रमित होने वाले ज़्यादातर लोगों की मौत लगभग निश्चित होती थी।

लेकिन यह आशंका अब पूरी तरह ख़त्म हो चुकी है कि प्लेग महामारी की तरह विस्तार पा सकता है। इसका आसान और सर्वसुलभ इलाज एंटीबाॅयोटिक है। मौत सिर्फ़ उन्हीं मामलों में होती है जहाँ समय रहते इलाज न हो सके।

अब प्लेग का ख़तरा उसी हालत में हो सकता है जब सुपर बग की तरह प्लेग के बैक्टीरिया पर एंटीबॉयोटिक असर करना बंद कर दे। लेकिन न तो अभी तक ऐसा हुआ है और न ही हाल-फ़िलहाल में इसका कोई ख़तरा ही है। 

इस समय प्लेग से ज़्यादा ख़तरा इसे लेकर सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे आतंक का है, वह भी उस सयम जब कोविड-19, लॉकडाउन और आर्थिक मंदी को लेकर दुनिया की ज़्यादातर आबादी मनोवैज्ञानिक दबाव में है।

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क़मर वहीद नक़वी
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