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प्लाज़्मा दान क्यों नहीं करते कोरोना से ठीक हुए लोग?

प्लाज्मा थेरैपी को मेडिकल साइंस की भाषा में प्लाज़्माफेरेसिस नाम से जाना जाता है। प्लाज़्मा थेरैपी से तात्पर्य ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें खून के तरल पदार्थ या प्लाज्मा को रक्त कोशिकाओं से अलग किया जाता है। ...क्या है तकनीक, बता रही हैं मनीषा जैन।
देश में कोरोना के मरीज़ों की संख्या 10 लाख पार कर गयी है। अमेरिका और ब्राज़ील के बाद भारत दुनिया का तीसरा ऐसा देश है, जहाँ दस लाख लोग संक्रमित हैं। इस रोग से मुक्ति के लिये ढेरों प्रयास हो रहे हैं। इन प्रयासों में जो सबसे प्रमुख प्रणाली चर्चा में आई है, वह है प्लाज़्मा थेरैपी। इसने बहुत सारे कोरोना पीड़ित गंभीर रोगियों का जीवन बचाया है। दिल्ली राज्य सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन इसके उदाहरण हैं, जिन्हें दो बार प्लाज़्मा थेरैपी देकर बचा लिया गया।

क्या होती है प्लाज़्मा थेरैपी?

प्लाज्मा थेरैपी को मेडिकल साइंस की भाषा में प्लाज़्माफेरेसिस नाम से जाना जाता है। प्लाज़्मा थेरैपी से तात्पर्य ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें खून के तरल पदार्थ या प्लाज्मा को रक्त कोशिकाओं से अलग किया जाता है। इसके बाद यदि किसी व्यक्ति के प्लाज्मा में अनहेल्थी टिशू (अस्वास्थ्यकर कोशिकायें )  हैं तो उसका इलाज समय रहते शुरू किया जा सकता है।
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प्लाज्मा थेरैपी कराने का सबसे बड़ा लाभ रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना है। कोरोना से निरोग हुए व्यक्ति से प्लाज़्मा लेकर रोगी को दिया जाता हैं, जिससे उसके ख़ून में एंटीबॉडीज़ बनती हैं और उसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।

प्लाज़्मा थेरैपी ही क्यों?

किसी भी क़िस्म की सर्जरी में काफी समय लगता है, वहीं दूसरी तरफ़ प्लाज्मा थेरैपी में काफी कम यानी 3-5 घंटे ही लगते है। प्लाज़्मा थेरैपी का अन्य लाभ दर्द महसूस न होना भी है। जब इस थेरैपी को किया जाता है तो इसे कराने वाले को किसी तरह का दर्द महसूस नहीं होता है।
हालाँकि इस थेरैपी की माँग बहुत ज़्यादा है, लेकिन कोरोना से निरोग हुए लोगों में अपना प्लाज़्मा देकर दूसरे रोगियों की जान बचाने का उत्साह बहुत ही कम है। दिल्ली राज्य सरकार इसके लिए अपनी तरह के इकलौते और अनूठे मामले का बड़े पैमाने पर प्रचार प्रसार कर रही है।

लोग क्यों नहीं करते प्लाज़्मा दान?

विज्ञापनों में बताया जा रहा है कि इस रक्तदान से किसी क़िस्म की कमज़ोरी नहीं होती न ही इसमें डरने वाली कोई बात है। बल्कि यह मानवता की सेवा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली के सभी अस्पतालों से अपील की है कि वे अपने यहाँ कोरोना से ठीक होने वाले मरीज़ों को अस्पताल से छुट्टी देते समय प्लाज़्मा दान के लिए मानसिक रूप से तैयार करें।
बाबा साहेब आंबेडकर अस्पताल के नर्सों के संगठन प्रमुख सुजीत एस का कहना है कि दो सौ के क़रीब तो हेल्थ केयर वर्करों ने ही कोरोना की बीमारी को हराया है, लेकिन उनमें से सिर्फ़ तीन ही प्लाज़्मा दान के लिए वापस लौटे। उन्होंने कहा कि उनको समझाने बुझाने का कोई फ़ायदा नहीं हुआ। 
लोगों में भ्रम फैला हुआ है कि प्लाज़्मा दान करने से शरीर में कमज़ोरी आ जाती है और दान किया हुआ रक्त बनने में बहुत समय लगता है। सच यह है कि मानव शरीर में दो-तीन दिनों में ही कम हुई रक्त कणिकाओं यानी की प्लाज़्मा की भरपाई हो जाती है।

क्वरेन्टाइन के बाद प्लाज़्मा दान

तीस साल के नर्सिंग अफ़सर अमरचंद को कोरोना हो गया था। उन्होंने सुल्तानपुरी स्थित सरकारी क्वरेन्टाइन सेंटर में पंद्रह दिन गुज़ारे थे। उनका कहना है कि 28 दिन की कुल क्वरेन्टाइन अवधि पूरी करने के बाद और निगेटिव टेस्ट रिपोर्ट आने के बाद उन्होंने खुद ही प्लाज़्मा दान किया। इसके लिये उन्हें किसी ने न समझाया न बुझाया, यह उनका खुद का निर्णय था। उन्हें किसी तरह की कमज़ोरी का अहसास नहीं हुआ और उन्होंने अपने सहकर्मियों के साथ बने हुए व्हाट्सएप ग्रुप में अपने अनुभव साझा किए। वे तमाम लोगों को इसके बारे में समझाते बुझाते हैं।
जीतेंद्र भी इसी अस्पताल में काम करते हैं, जिनका अनुभव भी इससे अलग नहीं है। ड्यूटी करते वक़्त उन्हें अप्रैल में ही संक्रमण हुआ था। उन्हें विवेक विहार के जिंजर होटल में चौदह दिनों तक का अनिवार्य क्वरेन्टाइन पूरा करना पड़ा। गुरु तेग़ बहादुर अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मियों ने वहाँ उनकी देखभाल की और दवाएँ दीं। 13 मई को उनका टेस्ट निगेटिव आया।  उन्हें सीएम रिलीफ़ फंड से एक फ़ोन आया था जिसमें कहा गया कि यदि वे प्लाज़्मा दान कर देंगे तो एक गंभीर रोगी की जान बच सकती है जो इस समय ख़तरे में है। उन्होंने कहा,

'मैंने पहली जून को उसके लिये प्लाज़्मा दान किया। मुझे पता है कि लोग कोरोना के मरीज़ों के साथ कैसा दुर्व्यवहार और भेदभाव करते हैं। मैं तुरंत तैयार हो गया। मैं जॉगिंग करता हूँ और क्रिकेट खेलता हूँ। मुझे किसी तरह की कमज़ोरी महसूस नहीं हुई।'


जीतेंद्र, स्वास्थ्य कर्मी

कोरोना मुक्त होने वालों की सूची बने

बाबा साहेब आंबेडकर अस्पताल की कोरोना मामलों की नोडल अफ़सर डॉक्टर मीनाक्षी सिधार का कहना है कि उन्होंने कोरोना से ठीक हुए मरीज़ों की लिस्ट, उनके नाम-पते और संपर्क नंबर समेत, तैयार की है। इनमें से सौ के क़रीब तो अस्पताल के हाउसकीपिंग और सुरक्षा कर्मी ही हैं पर सब के सब प्लाज़्मा दान करने से बचते हैं। ये सब लोग कोरोना और प्लाज़्मा थेरेपी को लेकर फैली झूठी धारणाओं से प्रभावित हैं। और तो और, कोरोना से ठीक होने के बाद अस्पताल आने से डरते हैं कहीं प्लाज़्मा न देना पड़ जाये। 
लोक नायक जय प्रकाश अस्पताल की नर्सों के संगठन की महासचिव  जीमोल शाजी कहती हैं कि 17 मार्च से अब तक 3,423 कोरोना मरीज़ अब तक इस अस्पताल से ठीक करके घर वापस  भेजे गए हैं। इनमें से तीन हेल्थ वर्कर (दो नर्सों समेत) और दो लैब टेक्नीशियन ही प्लाज़्मा डोनर बने। 
ठीक हुए बहुत सारे मरीज़ों को उनके घरों में क्वरेन्टाइन करवाया गया है और कुछ को नज़दीकी बैंक्वेट हॉल में क्वरेन्टाइन किया गया है। गुरुनानक आई सेंटर में 184 बिस्तरों का कोविड-19 वार्ड बना दिया गया है। माइल्ड लक्षणों वाले 51 मरीज़ वहाँ भर्ती है। सत्तर के क़रीब नर्सों को कोरोना से बीमार होने पर इलाज किया गया है, जिनमें से सिर्फ़ दो ने प्लाज़्मा दान किया।  बाक़ी को समझाया बुझाया जा रहा है।
इधर सरकार के प्लाज़्मा बैंक में काग़ज़ी मामलों और तौर-तरीकों को लेकर भी भारी असमंजस फैला हुआ है। अभी इस सिलसिले को चुस्त-दुरुस्त किये जाने की ज़रूरत है, वरना प्लाज़्मा दाता लाल फ़ीताशाही से भी निराश होकर वापस लौट सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थाएँ और वॉलंटियर इस मामले में ज़्यादा उपयोगी हो सकते हैं। 
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मनीषा जैन
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