प्रधानमंत्री मोदी ने सुदर्शन चक्र रक्षा प्रणाली की घोषणा की है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर लाल क़िले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए 15 अगस्त और उसके दूसरे दिन पड़ने वाले जन्माष्टमी के पावन पर्व का युग्म बनाकर राष्ट्र की सुरक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र जैसी सुरक्षा देने का संकल्प जताया। साथ ही उन्होंने दशहरे पर शस्त्र पूजा करने वाले और रोज प्रातः शाखा में लाठी भांजने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सौ साल पूरे होने पर उनकी देश सेवा का स्मरण दिलाया। उसी के साथ भारत सरकार के पेट्रोलियम मंत्रालय ने स्वतंत्रता दिवस की बधाई देने वाला ऐसा पोस्टर जारी किया जिसमें भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के भी ऊपर विनायक दामोदर सावरकर को चित्रित किया गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारत सरकार की ओर से खड़ा किया जा रहा यह ऐसा आख्यान है जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी की प्रमुख भूमिका को धकिया कर उस पर सावरकर को प्रभावी करने के लिए वर्षों से सक्रिय है। इसी के साथ वह गांधी को कभी भगत सिंह की लाठी से पीटता है, कभी सावरकर की तो कभी सुभाष चंद्र बोस की। वह हिंदू देवी देवताओं को युद्धोन्मादी रूप में प्रस्तुत करके अपनी हिंसा और घृणा की विचारधारा को वैधता प्रदान करता है। यह महज संयोग नहीं है कि वे राम के सत्य, करुणा, प्रजा वत्सलता, राज-त्याग और मर्यादा के मूल्यों को दरकिनार करके ‘भय बिनु होइ न प्रीति’ के कथन को ही अपने आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं। प्रधानमंत्री ने अयोध्या में जब राम मंदिर का शिलान्यास किया था तो रामचरित मानस के उसी दोहे को उद्धृत किया गया था जिसमें कहा गया था कि ‘’विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।’’
उसी तरह यह सरकार लोगों के भीतर आतंकवाद, बिगड़े पड़ोसियों और घुसपैठियों का भय दिखा कर लोगों को पहले असुरक्षित करती है और फिर कृष्ण के सुदर्शन चक्र के रूपक से सुरक्षा देने की बात करती है। किसी राजनीतिशास्त्री ने ठीक ही कहा है कि तानाशाही सुरक्षा देने के बहाने आती है और असुरक्षा देकर जाती है। वास्तव में राम के चरित्र का तो सांप्रदायीकरण संघ ने कर दिया है और शिव के चरित्र पर लगा हुआ है, लेकिन अब कृष्ण को भी उसी योजना में लाने की तैयारी है। जबकि कृष्ण का जन्म ही संकीर्णता और दमन के विरुद्ध स्वतंत्रता का उद्घोष है। यह उद्घोष जेल में पड़े अपने माता पिता की स्वतंत्रता का है और कंस के अत्याचार से पीड़ित मथुरा और गोकुलवासियों की स्वतंत्रता का है। वे जैसे जैसे बड़े होते हैं वैसे वैसे न सिर्फ गोकुलवासियों में प्रेम और स्वतंत्रता की भावना भरते हैं बल्कि गोवंश से लेकर गोवर्धन तक की स्वतंत्रता का अर्थ समझाते हैं। वे स्त्रियों की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं तो पशु पक्षियों की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं। कृष्ण दरअसल अपने भक्त नहीं पैदा करते बल्कि सखा पैदा करते हैं। इसी साख्य भाव की तलाश लोकतंत्र के बंधुत्व की स्थापना है।
जो लोग मानते हैं कि महाभारत का आख्यान सतत युद्ध का आह्वान है, वे भूल करते हैं। वास्तव में महाभारत सत्य और शांति का संदेश देने वाली कथा है। इस कथा के अंत में वेदव्यास कहते हैं कि-
ऊर्ध्व बाहुर विरोमि एष न च कश्चित श्रुणोति में।
धर्माद अर्थास्च कामश्च स किमर्थे न सेव्यते।।
अर्थात मैं दोनों हाथ उठा कर कहता हूँ कि धर्म से ही काम और अर्थ की सिद्धि होती है लेकिन मेरी कोई सुनता नहीं। एक और श्लोक में वे समूचे धर्म का अर्थ समझाते हैः- परोपकाराय पुण्याय पपाय पर पीड़म। यानी परोपकार से बड़ा कोई पुण्य नहीं है और पर पीड़ा से बड़ा कोई पाप नहीं है।
पूरे महाभारत में कृष्ण इसी धर्म को चरितार्थ करते हैं और उसके सत्व की व्याख्या कभी भगवतगीता तो कभी अपने कर्म के माध्यम से करते हैं। इतने महत्त्वपूर्ण युद्ध में कृष्ण का शस्त्र न उठाना भी एक बड़ा संदेश है जिसे महाभारत का स्थूल अर्थ ग्रहण करने वाले और हिंसा में यकीन करने वाले समझ नहीं सकते।
महात्मा गांधी और विनोबा जैसे दार्शनिक महाभारत और गीता से सत्य और अहिंसा का संदेश इसीलिए निकाल पाते हैं क्योंकि वे दोनों उससे मानवता के लिए विश्वदृष्टि प्राप्त करते हैं। गांधी तो गीता को माता ही कहते थे और अपने सत्य की व्याख्या महाभारत में भीष्म द्वारा युद्धिष्ठिर को दिए गए उपदेश से करते थे और विनोबा ने ऋग्वेद से लेकर महाभारत और भागवत पुराण तक में एक साख्य भाव के दर्शन किए हैं। यही कारण है कि विनोबा भारत माता की जय बोलने के बजाय ‘जय जगत’ कहते हैं। भारत की साझी और महान विरासत का सार यही है। इसमें विविधता है, बहुवचनीयता है भिन्नता के प्रति सम्मान है। हम कृष्ण के पूरे जीवन में इसे पा सकते हैं जिनके जन्म से लेकर मृत्यु तक माता-पिता, भ्राता, सखा सभी में द्वैधता का सतत प्रवाह है।
विनोबा भावे, गांधी और कृष्ण के जीवन की विसंगतियों की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि गजब का संयोग है कि एक का जन्म अरब सागर के तट पर होता है और वह यमुना के किनारे अपने प्राण त्यागता है तो दूसरे का जन्म यमुना के किनारे होता है और वह अरब सागर के तट पर प्राण त्यागता है।
गांधी और सावरकर वैचारिक द्वंद्व
वास्तव में गांधी और विनायक दामोदर सावरकर भारतीय धर्म दर्शन की परंपरा की व्याख्या की दो दृष्टियां हैं। इन दृष्टियों का अंतर तभी से स्पष्ट होने लगा था जब पहली बार दशहरे के मौके पर सावरकर ने गांधी को व्याख्यान देने के लिए लंदन में आमंत्रित किया था। सावरकर ने राम और रावण के युद्ध को भारत और ब्रिटेन के बीच संघर्ष के रूप में चित्रित किया था और गांधी ने उसे मानव के भीतर चलने वाले सत और असत के संघर्ष के रूप में।
गांधी और सावरकर के इस वैचारिक द्वंद्व को समाजवादी रुझान के प्रसिद्ध (कन्नड़) भारतीय लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने 2014 में अपने चर्चित लेख ‘हिंदुत्व आर हिंद स्वराज’ में व्यक्त किया है। अनंतमूर्ति ने गोडसे और नरेंद्र मोदी में सावरकर की प्रेरणा देखी थी और देखी थी यूरोपीय तर्ज पर एक हिंसक, दमनकारी और पर्यावरण विनाशक राष्ट्र की स्थापना की दृष्टि। यह सभ्यता सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान की क्रूर शक्ति पर टिकी है और उसके प्रत्यक्ष रूप हम इसराइल-फिलस्तीन युद्ध और रूस-यूक्रेन युद्ध में देख रहे हैं। यह दृष्टि किसी भी प्रकार अपनी विजय देखना चाहती है चाहे उसके लिए कितने भी असत्य, हथियार और क्रूरता का सहारा लेना पड़े। और शायद इसी दिशा में बढ़ने के लिए हमारा देश लालायित है। उसके लिए जिस तरह की घृणा और शस्त्र पूजा की आवश्यकता है उसी दिशा में आज की सभ्यता जा रही है। दूसरी ओर उन्होंने गांधी के ‘हिंद स्वराज’ में एक अहिंसक और पर्यावरण प्रेमी सभ्यता की तलाश देखी थी जहां मानवाधिकारों और पर्यावरण रक्षा की दृष्टि है और वहां राज्य का चरित्र निरंतर अहिंसक होने की दिशा जाता है।
अहिंसा और सत्य की परंपरा
इस पुस्तक की भूमिका लिखते हुए शिव विश्वनाथन ने इसे नई सभ्यता का घोषणा पत्र कहा है। निश्चित तौर पर हमें प्रधानमंत्री के भाषण और मंत्रालय के पोस्टर में उन दोनों दृष्टियों का द्वंद्व दिखाई पड़ता है। अब यह हमें तय करना है कि हमें सिंधु घाटी से लेकर आज तक चली आ रही पाँच हजार साल पुरानी सभ्यता की श्रेष्ठ और अहिंसक विरासत को अपनाना है या फिर प्राचीन और आधुनिक युद्धोन्मादी विरासत को गौरवान्वित करके उसके साथ जीना है। जो लोग मानते हैं कि अहिंसा तो गांधी की रणनीति थी और वे उसे समय-समय पर छोड़ते रहते थे, बुद्ध की अहिंसा भी अपने समय में कारगर नहीं थी, वे लोग कृष्ण के हाथ से बांसुरी छीन कर उन्हें सुदर्शन चक्र थमाने में सुख, शांति और सुरक्षा का अहसास करते हैं। लेकिन मिथकों की नए क़िस्म की व्याख्या करने वाले देवदत्त पटनायक तो सिंधु घाटी की सभ्यता को भी अहिंसा की सभ्यता बताते हैं। यानी अहिंसा और सत्य की परंपरा मानवता के साथ वैसे ही जुड़ी है जैसे युद्धिष्ठिर के साथ उनका धर्म रूपी श्वान।
आज दुनिया में कम से कम नौ राष्ट्र ऐसे हैं जो परमाणु बम का सुदर्शन चक्र लिए घूम रहे हैं। लेकिन उससे दुनिया में शांति कायम नहीं हो पा रही है। काश! कोई कृष्ण, ईसा मसीह और गांधी की तरह प्रेम की बांसुरी बजाता तो शायद हमारी सभ्यता अपने श्रेष्ठ मार्ग पर बढ़ पाती।