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प्रधानमंत्री के अंदर भी झाँकने की ज़रूरत है!

देश और दुनिया की बदलती हुई परिस्थितियों में नागरिकों के लिए अब ज़रूरी हो गया है कि वे अपने नायकों की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से अलग उनके/उनमें मानवीय गुणों और संवेदनाओं की तलाश भी करें। ऐसा इसलिए कि अब जो निश्चित है वह केवल नागरिकों का कार्यकाल ही है, शासकों का नही‌। शासकों ने तो इच्छा-सत्ता का स्व-घोषित वरदान प्राप्त कर लिया है।
श्रवण गर्ग

आज़ादी के बाद की स्मृतियों में अब तक के सबसे बड़े नागरिक संकट के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी क्या संवेदनात्मक रूप से उतने ही विचलित हैं जितने कि उनके करोड़ों देशवासी हैं? क्या प्रधानमंत्री के चेहरे पर अथवा उनकी भाव-भंगिमा में ऐसा कोई आक्रोश या पश्चाताप नज़र आता है कि उनके नेतृत्व में कहीं कोई बड़ी चूक हो गई है जिसकी क़ीमत शवों की बढ़ती हुई संख्या के रूप में नागरिक श्मशान घाटों पर चुका रहे हैं? संसद की बैठकों की अनुपस्थिति में सरकार के ख़िलाफ़ निंदा प्रस्ताव पारित करने के आरोप में सज़ा कितने लोगों को दी जा सकेगी? पूरे देश को ही जेलों में डालना पड़ेगा! अभी अस्पताल छोटे पड़ रहे हैं फिर जेलें कम पड़ जाएँगी!

देश को पहली बार महसूस हो रहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जैसे-जैसे ताक़तवर होते जा रहे हैं, नागरिक स्वयं को उतना ही कमजोर और खोखला महसूस कर रहे हैं जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए। राष्ट्राध्यक्ष के साथ देश बाहरी तौर पर मज़बूत होता नज़र आए पर अंदर से उसका नागरिक अपने आप को टूटा हुआ और असहाय महसूस करने लगे, यक़ीन करने जैसी बात नहीं है पर हो रहा है। इस समय जो कुछ महसूस हो रहा है वह राष्ट्र के हित में स्वैच्छिक ‘रक्तदान’ करने के बाद लगने वाली कमजोरी से काफ़ी अलग है।

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किसी भी ऐसे राष्ट्राध्यक्ष का, जो लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के पालन में ‘राष्ट्रधर्म’ जैसा यक़ीन रखता हो, मज़बूत रहना निश्चित ही ज़रूरी भी है। जितना बड़ा राष्ट्र, मज़बूती की ज़रूरत भी उतनी ही बड़ी। इस मज़बूती का सम्बन्ध उम्र से कम और मन की बात और मन की अवस्था से ज़्यादा है। हाल ही में अमेरिका के नए राष्ट्रपति अपने विशेष विमान की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए दो-तीन बार लड़खड़ा गए थे। वे गिरे नहीं। अपनी अठहत्तर साल की उम्र के बावजूद ऐसा नहीं लगने दिया कि वे अशक्त हैं। सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर पहुँचने के बाद उन्होंने अपने चिर-परिचित आत्म विश्वास के साथ पीछे मुड़कर उन लोगों का अभिवादन किया जो उन्हें विदा देने पहुँचे थे।

सत्ता किसी भी तरह की अशक्तता को सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं होने देती। राष्ट्राध्यक्ष जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाते हैं उनके नागरिकों के मन में उनकी ताक़त और कमज़ोरियों को लेकर जिज्ञासा और शंकाएँ भी उतनी ही बढ़ती जाती हैं। उस स्थिति में नागरिक अपने शासनाध्यक्ष के पद और उसके अंदर के व्यक्ति के बीच फ़र्क़ करना प्रारम्भ कर देते हैं। पर चतुर शासनाध्यक्ष अपनी ओर से इस फ़र्क़ को उजागर नहीं होने देते।

बहुत कम लोगों ने कभी इस बारे में भी सोचा होगा कि उन्हें अब एक व्यक्ति के रूप में भी अपने प्रधानमंत्री के बारे में कुछ ऐसा जानना चाहिए जो मार्मिक हो, अंतरंग हो, ऐसा निजी हो जिसे साहस के साथ सार्वजनिक रूप से व्यक्त और स्वीकार किया गया हो।

कुछ जानने की इच्छा का बहुत सारा सम्बन्ध इस बात से भी होता है कि आम नागरिक अपने नायक को लेकर किस तरह की आसक्ति अथवा भय का भाव रखते हैं। इसके उलट यह भी है कि नायक की आँखों और उसके हाव-भाव में ऐसा क्या है जो उसकी एक क्रूर अथवा नाटकीय शासक की छवि से भिन्न हो सकता है!

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उदाहरण के तौर पर जवाहरलाल नेहरू की भारत के प्रधानमंत्री के रूप में, गांधी जी के साथ बैठे कांग्रेस के नेता या फिर चीनी हमले में हुई पराजय से हताश सेनापति के रूप में जो छवियाँ दस्तावेज़ों में इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं वे उनके उस आंतरिक व्यक्तित्व से भिन्न हैं जो उनके निधन के साढ़े पाँच दशकों से अधिक समय के बाद भी लोगों के दिलों पर राज कर रही हैं। इस व्यक्तित्व में नेहरू द्वारा जेल में लिखी गई ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ और बेटी इंदिरा के नाम लिखे गए पत्र हैं, निधन के वक़्त बिस्तर के पास पाई गई अंग्रेज कवि रॉबर्ट फ़्रॉस्ट की कविता है, छोड़ी गई वसीयत के अंश हैं, सिगरेट से धुआँ उगलती तस्वीर है, एडवीना के साथ अंतरंगता को ज़ाहिर करते हुए फोटोग्राफ़्स हैं। उनके इर्द-गिर्द ऐसा क्या नहीं है जो उन्हें अपने समकालीन राष्ट्राध्यक्षों से अलग नहीं करता हो? अटलजी को लेकर भी उत्पन्न होने वाली भावनाएँ उन्हें एक प्रधानमंत्री से अलग भी कुछ अन्य कोमल छवियों में प्रस्तुत करती हैं। युद्ध तो अटल जी ने भी जीता है।

pm modi response to covid crisis in india - Satya Hindi

नरेंद्र मोदी में निश्चित ही किसी नेहरू की तलाश नहीं की जा सकती। की भी नहीं जानी चाहिए। पर उस नरेंद्र मोदी की तलाश अवश्य की जानी चाहिए जिसके बचपन से प्रारम्भ होकर प्रधानमंत्री बनने तक की लम्बी कहानी के बीच के बहुत सारे पात्र और क्षण छूटे हुए होंगे। भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर को उनके सानिध्य में बिना किसी भय अथवा संकोच के खड़े हुए देखकर उनके अनछुए व्यक्तित्व के प्रति दो तरह की जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती हैं: पहली तो यह कि प्रधानमंत्री का पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम क्या प्राकृतिक है? क्या वह पहले भी कभी इसी प्रकार से व्यक्त या अभिव्यक्त हो चुका है? दूसरा यह कि अपनी दूसरी तमाम व्यस्तताओं के बीच इस तरह का समय पक्षियों के लिए कैसे निकाल पाते होंगे?

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मोदी को काम करने की जिस तरह की आदत और अभ्यास है उसके बीच प्रधानमंत्री निवास में मोरों को दाना चुगाने या केवड़िया में तोतों को अपने नज़दीक आमंत्रित करने का उपक्रम उनके वास्तविक व्यक्तित्व को लेकर चौंकाने वाले भ्रम उत्पन्न करता है; क्योंकि उनके प्रशंसक इसके बाद यह भी जानना चाहेंगे कि प्रधानमंत्री ने आख़िरी फ़िल्म कब और कौन सी देखी थी, कौन सी किताब पढ़ी थी, वे जब अकेले होते हैं कौन सा संगीत सुनते हैं और यह भी कि उनकी पसंदीदा सिने तारिका कौन रही है। उनके मन में कभी किसी के प्रति कोई प्रेम उपजा था क्या? और क्या उसके कारण किसी अवसाद में भी डूबे थे कभी?

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देश और दुनिया की बदलती हुई परिस्थितियों में नागरिकों के लिए अब ज़रूरी हो गया है कि वे अपने नायकों की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से अलग उनके/उनमें मानवीय गुणों और संवेदनाओं की तलाश भी करें। ऐसा इसलिए कि अब जो निश्चित है वह केवल नागरिकों का कार्यकाल ही है, शासकों का नही‌। शासकों ने तो इच्छा-सत्ता का स्व-घोषित वरदान प्राप्त कर लिया है। नागरिक जब अपने शासकों को उनकी पीड़ाओं, संघर्षों, आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं की परतें उघाड़कर जान लेते हैं तो वे अपने आपको उस भविष्य के साथ जीने अथवा न जीने के लिए तैयार करने लगते हैं जो व्यवस्था के द्वारा तय किया जा रहा है। क्योंकि नागरिकों को अच्छे से पता है कि ऑक्सिजन की कमी या साँसों का अभाव सिर्फ़ उनके ही लिए है, शासक तो बड़े से बड़े संकट से भी हमेशा सुरक्षित बाहर निकल आते हैं। वर्तमान संकट का समापन भी ऐसा ही होने वाला है।
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