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प्रतीकात्मक तस्वीर।

प्राण प्रतिष्ठा: चारों शंकराचार्यों के विरोध के मायने और चंपत राय के दावे

श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय का अचानक यह कहना सबको हैरान करता है कि मंदिर रामानंद संप्रदाय का है, शैव, शाक्त और संन्यासियों का नहीं। अयोध्या के नए मंदिर और नई मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की पूजन विधि हफ्ते भर की है और 16 जनवरी से ही शुरू होगी जिसमें 22 को प्रधानमंत्री प्राण प्रतिष्ठा करेंगे। राममंदिर आंदोलन को दुनिया भर के सारे हिंदुओं को एकजुट करने के अभियान के तौर पर चलाने और प्राण प्रतिष्ठा में सभी 125 संत परंपराओं के महात्माओं, सभी तेरह अखाड़ों और सभी षड-दर्शन के महापुरुषों-धर्माचार्यों को न्यौता देने के बाद यह कहने की ज़रूरत क्यों हुई, यह कोई भी समझ सकता है। 

जिस तरह से चारों शंकराचार्यों ने कार्यक्रम के बहिष्कार की घाोषणा के साथ प्रधानमंत्री द्वारा प्राण प्रतिष्ठा करने के कार्यक्रम पर सवाल उठाए उसके बाद इस तरह की सफाई देनी ज़रूरी हो गई थी। शंकराचार्य कोई पोप नहीं हैं। हिन्दू धर्म में कोई पोप, कोई खलीफा नहीं है। लेकिन शंकराचार्य की एक लंबी और मज़बूत परंपरा है, बौद्ध मत के आगे नतमस्तक और बिखरे सनातन समाज को पुनर्जीवित और एकजुट करने से लेकर नए दर्शन की स्थापना और हिंदुस्तान के चारों कोनों में मंदिर स्थापना के साथ समाज को जगाने की प्रेरणा देने वाली। जाहिर तौर पर रामानंद और माध्वाचार्य जैसों की भी बहुत मज़बूत और लंबी परंपरा रही है। शैव, शाक्त, लोकायत, बौद्ध, जैन, नानक, कबीर, रविदास और लिंगायत जैसी परंपराओं की भी परंपरा रही है। जिस किसी ने बड़ा समाज और धर्म सुधार आंदोलन किया उसकी अपनी स्वतंत्र परंपरा मान्य हुई है। इनका टकराव भी हुआ है और मेलमिलाप भी।

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और सबको मिलाकर ही भारतीय परंपरा, सनातन परंपरा बनी है जो निश्चित रूप से एक किताब, एक अवतार और एक जीवन-पद्धति के आग्रह वाले धर्मों से अलग है। पर आज राम मंदिर के तैयार होने के वक्त चंपत राय जिस सच का उद्घाटन कर रहे हैं वह मंदिर आंदोलन के घोषित और प्रचारित सच से अलग है और इसी के चलते ध्यान खींचता है। आंदोलन सारे हिन्दू समाज में नया प्राण फ़ूंकने, हिंदुओं को जगाने, उनमें गौरव भाव विकसित करने के नाम पर चला है और इससे फर्क भी पड़ा है। भाजपा को राजनैतिक लाभ मिलना इसका एक पक्ष है और वह चीज प्राण प्रतिष्ठा तक आ रही है। लेकिन हिन्दू समाज में भी कई सारे बदलाव दिख रहे हैं और कई बार यह भी लग रहा है कि पंथों वाले विभाजन की बात हल्की ही रही है। इसमें आपसी टकराव, हिंसक भिड़ंत या फिर मेलमिलाप की कहानियां भी अविश्वसनीय सी लगती हैं। संघ एक हिन्दुत्व की बात करता है जो कि मामले में पश्चिमी अवधारणा जैसा है। पर यह सब बदलाव संघ परिवार के पुरुषार्थ से हुआ जिसकी खुद की परंपरा विकसित होती दिखती है। अब तो यह प्रयास भी किया जाने लगा है जैसे छुआछूत प्रणाली और जाति व्यवस्था का यह रूप अंग्रेजी हुकूमत ने थोपा है। बहुत सारी बुराइयां औपनिवेशिक शासन से आई हैं लेकिन हमारा अपना योगदान भी कम नहीं है।
इस लेखक जैसे बहुत सारे लोग हैं जिनको शिला-पूजन के दिनों से ही राम मंदिर आंदोलन के विभिन्न कार्यक्रमों की सफलता पर संदेह रहा और अशोक सिंघल तथा विष्णुहरि डालमिया समेत संघ परिवार के कुछेक निष्ठावान कार्यकर्ताओं के श्रम, लगन और सोच ने बार-बार उनको ग़लत साबित किया। इस लेखक का संबंध मिथिला क्षेत्र से है और आज सीता के मायका से राम के लिए दहेज के नाम पर जिस उत्साह से दहेज और उपहारों से भरे ‘भार’ आने की ख़बर आई उसे सबसे ज़्यादा आश्चर्यचकित करता है। 
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इस मंदिर में सीता को राम के साथ स्थान भी नहीं मिला है। और पारंपरिक रूप से मिथिला न सिर्फ शाक्त-शैव प्रभाव वाला क्षेत्र रहा है, बल्कि वहां राम और सीता की जोड़ी को सफल दंपती नहीं माना जाता। मां जानकी को जीवन भर मिले कष्ट को लेकर मिथिला के लोग दामाद राम से नाराज़ ही रहे हैं। वहां हर हाल में गौरी को सुखी रखने का प्रयास करने वाले शिव ही आदर्श दामाद माने जाते हैं। अपने बचपन तक हमने वहां रामनवमी को बहुत ही सीमित रूप में (मोटे तौर पर सरयुपारी ब्राह्मणों के यहां ही) मनते देखा था। उस तुलना में जन्माष्टमी धूमधाम से मना करता था। आम हिन्दू नवमी की तारीख चूल्हा चक्की की नई शुरुआत के लिए पूछता था। सीता को मिले कष्ट और व्यवहार के प्रति यह आक्रोश और चलन स्वाभाविक लगता था।

जाहिर तौर पर वैसी मिथिला से राम के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में इस स्तर की भागीदारी करा लेना कोई सामान्य बात नहीं है। इस बीच जानकीधाम तीर्थ भी कहां से कहां तक पहुँच गया है। गौर से देखेंगे तो यह बदलाव देश और हिन्दू समाज के पचासों मामलों में दिखेगा और भिन्न भिन्न रूपों में इसका असर दिखेगा। इसकी शुरूआत गणेश जी को दूध पिलाने से लेकर करोना को दिए जलाकर और घंटी बजाकर भगाने जैसे कार्यक्रमों तक में दिखेगी। और यह लेख इसे सिर्फ मजाक या राजनैतिक द्वेष भाव की चीज नहीं मानता। यह बहुत बड़ी योजना, बहुत समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज, बहुत लगन से काम करने के साथ ही बहुत दूरदृष्टि से चलाने वाला कार्यक्रम रहा है जिसे सफल बनाने में अशोक सिंघल जैसों भर की भूमिका नहीं है। इससे हिन्दू समाज भी बदला है और देश का एक बड़ा हिस्सा भी। 

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अब इसके राजनैतिक फलितार्थ देखकर हम आप इससे असहमति रखते हों तो अलग बात है। लेकिन इसके राजनैतिक विरोधी जिस तरह की हरकतें करते रहे हैं वह इस अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के साथ बाकी लोगों के सोच की सीमाएँ भी बताता है। बीच आंदोलन के समय सरकारी धन से सीता को राम की बहन बताने वाली प्रदर्शनी लगाने से लेकर मंदिर को बुरा-भला कहने तक यह परंपरा आ रही है। दूसरी ओर हर मंदिर विरोधी को पाकिस्तान भेजने के साथ मंदिर जाने पर अस्पताल जाने की ज़रूरत न रहने का दावा करने वाले भी रहे हैं पर उनको संभालने और चीजों को एक दिशा में ले जाने वाले भी रहे हैं।

पर जाहिर तौर पर संघ परिवार और देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी भाजपा जिस हिन्दुत्व की बात करते हैं वह चंपत राय द्वारा घोषित मंदिर के असली स्वामी रामानंद संप्रदाय वाली बात से भिन्न है। वह असली बात है। हिन्दू परंपरा में कोई आसमान से नहीं टपकता। और यह बात श्री राय ने एक मजबूरी में ही कही होगी क्योंकि चारों शंकराचार्यों के विरोध का स्वर तेज ही नहीं हुआ है, परंपराओं से अनजान अधिकांश हिन्दू समाज के लिए हैरानी का भी विषय है। पर तय मानिए कि मंदिर आंदोलन को इस मुकाम तक लाने वाले अब इसे टकराव को बढ़ाने वाला काम न करके इसे संभालने का काम करेंगे। लेकिन संभवत: वे भी चुनाव बीतने का इंतज़ार करेंगे।

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अरविंद मोहन
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