कभी महात्मा गांधी ने कहा था कि असली खतरा समाज के बर्बरीकरण का है। लगता है वह समय आ गया है। राज्य की संस्थाएं निर्मम हो सकती हैं, क्रूर हो सकती हैं लेकिन समाज की करुणा, क्षमा और दया का भाव उस पर लगाम लगाती हैं। लेकिन जब समाज ही बर्बर हो जाए तो राज्य को तो सब कुछ करने की छूट मिल ही जाती है। राज्य अपने बर्बर होने के बहाने ढूंढता है। अगर वह अपनी परंपरा में नहीं है तो दूसरे देशों की परंपरा से उधार लेता है। अगर वह अपने संविधान में नहीं है तो उसमें संशोधन कर देता है। अगर वह वर्तमान में नहीं है तो निकट अतीत में ढूंढता है। अगर वह निकट अतीत में नहीं है तो इतिहास में तलाश की जाती है। इस तरह कुछ प्रतीकों, कुछ शब्दों और कुछ आयोजनों के माध्यम से ऐसे प्रतिपक्ष तैयार किए जाते हैं कि उनकी प्रतिक्रिया में समाज को हिंसक होने के लिए तैयार किया जा सके।

पिछले दिनों अपने गांव में एसआईआर की कार्रवाई में गया था। एसआईआर करने वाले तो तनाव में हैं ही, वे लोग भी तनाव में हैं जिनके पास सारे दस्तावेज हैं। क्योंकि एसआईआर करने वाले बीएलओ का मानना है कि अगर आरंभिक सर्वर ने आप का नाम स्वीकार कर लिया तो ऊपर के सर्वर से कट सकता है। ऊपर का आदेश और ऊपर का सर्वर इस लोकतंत्र की नई रवायत हो गई है। यह पत्रकारिता, राजनीति से लेकर समाज के हर तंत्र पर हावी है। यह ऊपर वाला ही वास्तव में सबसे ऊपर वाले का सृजन करता है और उसके नाम पर तमाम तरह से राजनीतिक कार्य और धार्मिक कार्य संपन्न करता है। लेकिन वास्तव में उसने राजनीतिक और धार्मिक कार्यों को इतना मिला दिया है कि यह तय कर पाना मुश्किल है कि इसमें कितनी राजनीति है और कितना धर्म है। वास्तव में वर्तमान राजनीतिक जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को ही धर्म बताया जा रहा है। बीएलओ पर दर्ज होने वाले एफआईआर और उनकी आत्महत्याओं की खबरों से कोई विचलित नहीं है। हालांकि वे मंदिर मस्जिद और हिंदू मुस्लिम की खबरों से न सिर्फ उत्तेजित होते हैं बल्कि दूसरों को भी उत्तेजित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
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ऐसे ही एक महोदय ने कहा कि एक तो बीएलओ की आत्महत्या की खबरें विपक्षी दलों का आरोप हैं। फिर जिस अनुपात में वे आत्महत्या कर रहे हैं वह तो आत्महत्या के राष्ट्रीय औसत से भी कम है। फिर दूसरे महोदय ने कहा कि यह सब लोग तनख्वाह लेते हैं, रिश्वत लेते हैं तो काम क्यों नहीं करेंगे। इसी बीच एक अखबार ने प्रदेश के एक पूर्व पुलिस अधिकारी और मौजूदा राजनेता का इस बारे में इंटरव्यू छापा था कि विदेशी घुसपैठियों और आतंकवादियों से कैसे निजात पाया जाए। इसी प्रक्रिया में प्रदेश सरकार ने जिलों के अधिकारियों को आदेश दिए हैं कि जल्दी से जल्दी विदेशी नागरिकों की पहचान की जाए और असम की तरह उनके निग्रह भवन यानी डिटेंशन सेंटर बनाए जाएं। विडंबना देखिए कि अयोध्या में रामायण विश्वविद्यालय बनाने वाला समाज रामचरित मानस की उन पंक्तियों को विस्मृत कर चुका है जो राम ने विभीषण को अपने शिविर में स्वीकार करते हुए कही थी। सुग्रीव ने जब विभीषण पर शक किया तो राम ने कहा कि-

सरनागत को जे तजहिं निज अनहित अनुमानि
ते नर पावंर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि।

अगर रामायण के लिहाज से देखा जाए तो यह रामराज्य की शरणार्थी नीति कही जा सकती है। शायद यही नीति संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनाई है। लेकिन इस समाज को तो सिर्फ यही याद है कि—बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।

वास्तव में देशव्यापी हो चुका एक संगठन जो देशभक्ति को व्यापक बनाने का दावा करता है, वह वास्तव में राज्यभक्ति की भावना को स्थापित करने में लगा है।

राज्यभक्ति में क्या होता है?

देशभक्ति में नागरिकों के मौलिक अधिकारों और उनकी गरिमा का सम्मान किया जाता है। मानवाधिकारों का सम्मान किया जाता है। विपक्ष का सम्मान किया जाता है और विपरीत मतों का आदर किया जाता है। मानव मात्र के प्रति संवेदना होती है। लेकिन राज्यभक्ति राज्य की हर बात और हर कार्यक्रम का आंख मूंद कर समर्थन करने को बाध्य करती है। वह एक आज्ञापालक समाज बनाती है जो लोकतांत्रिक समाज के मूल्यों को तिलांजलि देकर ही बनाया जा सकता है। लेकिन जो लोग सोचते हैं कि ऐसा समाज बहुसंख्यकों के लिए स्वर्ग होगा और अल्पसख्यकों और दलितों के लिए नरक होगा वे गलतफहमी में हैं। वह समाज बहुसंख्यक समाज के समृद्ध वर्ग के लिए भी नरक हो सकता है इसकी झलक हाल में इंडिगो एअरलाइंस की उड़ानों के रद्द होने पर हवाई अड्डों पर नरक भोग रहे हजारों यात्रियों ने देखी भी होगी और उसे भोगा भी होगा। रोते बिलखते इन यात्रियों के लिए न तो इंडिगो ने दया दिखाई न ही सरकार ने। बाद में सरकार ने उस आदेश को भी वापस ले लिया जो नागरिकों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर पालयटों की ड्यूटी को नियमित करने के सिलसिले में जारी किए थे। यानी बर्बरीकरण की आंच उन तक भी पहुँ चती है जो दूसरों पर होने वाले दमन और अत्याचार पर खुश होते हैं।
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मजदूरों के अधिकार छीने जा रहे

नागरिक अधिकारों और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के निरंतर विरुद्ध होते समाज को न तो इस बात की चिंता है कि लंबे संघर्ष के बाद हासिल किए गए मजदूरों के अधिकारों को छीन लिया जा रहा है और न ही इस बात की चिंता है कि संचार साथी एप के माध्यम से वह जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 1984 के निगरानी युग में प्रवेश कर रहा है। अगर रॉयटर जैसी विदेशी एजेंसी ने इसके खतरे पर खबर न चलाई होती तो लोगों में यह समझ ही न आती कि मोबाइल सेट में अनिवार्य किया जा रहा यह ऐप आपकी निजता का हरण करने वाला है। तमाम लोग फोन सेट की सुरक्षा पाने और फ्रॉड से बचने की गलतफहमी में उसे डाउनलोड कर चुके थे। लोग इस बात का स्मरण ही नहीं करना चाहते और मजदूरों ने कितनी लंबी लड़ाई के बाद अपने हितों के लिए 29 कानून पारित कराए थे और सामूहिक सौदेबाजी और आठ घंटे काम करने के हक हासिल किए थे। चार लेबर कोड ने उन पर ग्रहण लगा दिया है। इनसे कार्यस्थल पर स्त्रियों की सुरक्षा का कानून भी हाशिए पर ठेल दिया गया है। ऐसे लोग भला यह कैसे याद करेंगे कि मनुष्य ने सभ्यता के लंबे इतिहास में कितनी कठिनाई से निजता का अधिकार पाया है। वे उसे सहज ही गंवा देना चाहते हैं।

भला वे लोग यह कैसे बताएंगे कि बुलडोजर न्याय की पटकथा इसराइल से लाई गई है जो कि फिलस्तीनियों के नरसंहार के लिए तैयार की गई थी। बुलडोजर न्याय का मकसद सिर्फ अतिक्रमण हटाना या अवैध निर्माण हटाना नहीं है उसका लक्ष्य राज्य की सत्ता का आतंक पैदा करना है। राज्य वह आतंक नागरिकों के साथ साथ मीडिया के भीतर भी पैदा करना चाहता है ताकि वह या तो बुलडोजर न्याय का गौरवगान करे या फिर चुप रहे। अगर कोई प्रशासन के भ्रष्टाचार पर लिखने और बोलने का साहस करता है तो उसकी स्थिति ‘न्यूज सहर’ के अरफाज अहमद डैंग जैसी होगी। जिसे अपने घर पर बुलडोजर चलने की रिपोर्ट खुद ही करनी होगी। गज़ा पट्टी में इसराइल ने यही सब किया है।

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विपक्ष, नागरिक संगठनों के सामने चुनौती

ऐसे समय में विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों की चुनौती बड़ी हो गई है। यह चुनौती वोट बैंक बचाने और अगला चुनाव जीतने के लिए धन इकट्ठा करने और उसे छुपाने से बड़ी है। वह चुनौती समाज को संवेदनशील बनाने की चुनौती है। वह चुनौती समाज में फिर से लोकतांत्रिक चेतना जगाने की चुनौती है। वह चुनौती यह बताने की है कि नागरिकों की सहमति का अर्थ क्या है और उसे कैसे नियमित तौर पर हासिल करना चाहिए। वह चुनौती उन लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति नागरिकों को सचेत करने की है। वह चुनौती समाज में फिर से साझापन पैदा करने की है। वह चुनौती यह बताने की है भारत क्या है और भारत क्या नहीं है। भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता ही नहीं उसकी प्राकृतिक विविधता भी उसकी पूंजी है। उसका समतलीकरण करना न तो भारत की देशभक्ति है और न ही सच्चा राष्ट्रवाद। भारत की नागरिकता न तो धार्मिक है और न ही भाषाई। उसकी नागरिकता क्षेत्रीय है। यह काम बड़ा है और कठिन है लेकिन इसके किए बिना न तो विपक्षी राजनीतिक दलों का अस्तित्व बचने वाला है, न नागरिक संगठनों का और न ही भारतीय समाज का। समाज के बर्बरीकरण रोकने का यही मार्ग है।