कोलकाता से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अख़बार 'द टेलीग्राफ़' के बारे में लिखना हो तो सबसे बड़ी समस्या यह है कि शुरुआत कब से की जाए। पूर्व केंद्रीय विदेश मंत्री एमजे अकबर इसके संस्थापक संपादक हैं और अगर मेरी याद्दाश्त और समझ सही है तो यह पहले दिन से ऐसा ही निकल रहा है। बीच में बहुत कुछ हुआ पर टेलीग्राफ़ कभी नहीं बदला।
दिल्ली में जब इसके छपे हुए अंक आमतौर पर नहीं मिलते थे और इंटरनेट नहीं था तो मैं इसे नियमित रूप से नहीं पढ़ पाता था। पर जब भी देखा, जहां भी देखा - मुझे लगा कि टेलीग्राफ़ की एक ख़ासियत है और वह हमेशा कायम रही। शुरू में निश्चित रूप से लगता था कि यह संपादक के प्रयासों से ही संभव है पर धीरे-धीरे लगने लगा कि यहां की व्यवस्था ऐसी बन गई है कि अख़बार वैसा ही निकलता है।
कई पुरानी बाईलाइनें अब नहीं दिखती हैं। पर ख़बर लिखने की शैली नहीं बदली। ख़बर पढ़ते हुए कभी नहीं लगा कि कोई पहलू या किसी का पक्ष छूटा है। अक्सर आवश्यक पुराने संदर्भ भी होते हैं। पहले पन्ने के शीर्षक और ख़बरों की प्रस्तुति का तो जवाब नहीं। इसमें एक सीमा और गरिमा के अंदर किसी की भी खिंचाई और किसी का भी मजाक बनाना शामिल है।
आज के समय में यह मानना बेवकूफी होगी कि यह सब मालिकानों की सहमति के बिना कोई संपादक या टीम कर सकती है।
निश्चित रूप से 'द टेलीग्राफ़' की सफलता का श्रेय उसकी काबिल टीम, सक्षम नेतृत्व और मालिकानों को है। और यह पूरा पैकेज है। इसका असर ही टेलीग्राफ़ बनाता है। इसके बिना ना टीम ऐसी बनी रहती और ना संपादकों के लिए यह आज़ादी संभव थी।
आइए, अब इसकी कुछ ख़ास ख़बरों, शीर्षकों और प्रस्तुतियों की चर्चा करें। सबसे पहले बालाकोट हमले की ख़बर। यह ख़बर इस साल 27 फ़रवरी को छपी थी। हमले के बाद अख़बारों से जिस संयम की अपेक्षा थी वह तो 'द टेलीग्राफ़' में ही है। अंग्रेजी के अख़बारों ने मोटे तौर पर ख़बर छापी थी पर हिन्दी अख़बार सरकार के पक्ष में युद्ध का प्रचार करते लग रहे थे।
'द टेलीग्राफ़' ने यह ख़बर सबसे अलग अंदाज में दी थी। सात कॉलम की इसकी ख़बर और शीर्षक तो अलग थी ही, मुख्य ख़बर के साथ, क्या हुआ - इसे लेकर दो तरह की बातें प्रमुखता से छापी गई थीं। एक ख़बर दो कॉलम में थी और दो लाइन का इसका शीर्षक था, बम? ‘हां’, मौतें? ‘नहीं’। बालाकोट डेटलाइन से यह अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसी रायटर की ख़बर थी और अंदर के पन्ने पर इसका शेष हिस्सा जारी किया गया था।
इसके ठीक ऊपर लीड के साथ टॉप में दो कॉलम का ही एक बॉक्स था – क्या हुआ, दो विवरण। अगर आपको सरकारी दावे याद हों तो आप समझ जाएंगे कि दो विवरण क्यों थे। दिलचस्प यह है कि ख़बर रायटर की थी और आमतौर पर सभी अख़बारों के पास रही होगी।
देश में आम चुनाव की तारीख़ों की घोषणा की ख़बर भी टेलीग्राफ़ में अलग अंदाज में प्रस्तुत की गई थी। 11 मार्च 2019 की ख़बर के शीर्षक में बताया गया था कि 16 मार्च 2014 को प्रधानमंत्री ने क्या कहा था और पांच साल में हम कहां पहुंचे और 23 मई को नतीजों के साथ कुछ और पता चलेगा। यह बिल्कुल अनूठे अंदाज में कहा गया था। यही नहीं, अख़बार ने पहले पन्ने पर यह भी छापा था कि बंगाल जैसे छोटे से राज्य में सात चरणों में मतदान होंगे। देश भर के मतदान सात चरण में होना एक बात है और बंगाल जैसे छोटे राज्य में सात चरणों में मतदान होना बिल्कुल अलग बात है।
चुनाव की तारीख़ों की इस ख़ासियत को टेलीग्राफ़ ने बाकायदा रेखांकित किया था। आठ कॉलम का फ्लैग शीर्षक था - 16 मई 2014 : भारत जीत गया है...अच्छे दिन आने वाले हैं : मोदी और मुख्य शीर्षक में बताया गया था कि 23 मई 2019 : भारत के अभिप्राय को पता चलेगा कि वह जीता है क्या। इसके साथ ही यह भी प्रमुखता से बताया गया था कि कश्मीर विधानसभा चुनाव अभी नहीं होंगे।
अन्य ख़बरों की चर्चा बाद में करूंगा। अभी यह बता दूं कि इस बार चुनाव नतीजों की रिपोर्टिंग अख़बार ने कैसे की थी। पहले पन्ने पर सिर्फ़, “ही इज बैक” और उसमें भी ‘ही’ शब्द काफ़ी बड़े और गेरुआ अक्षरों में सारी बात कह रहा था। इसके अलावा, अख़बार ने उस दिन पहले पन्ने पर सिर्फ़ यह लिखा था कि एनडीए को 350, यूपीए को 91 और अन्य को 101 सीटें मिली हैं।
नीचे छोटे अक्षरों में आख़िरी लाइन थी, उत्तर, पूर्व और पश्चिम में पार्टी को चौंकाने वाले लाभ मिले हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने उस दिन हिन्दी में शीर्षक लगाया था, “चौकीदार का चमत्कार”। पर यह किसी हिन्दी अख़बार में नज़र नहीं आया। कोई दो राय नहीं है कि टेलीग्राफ़ का शीर्षक सबसे अलग और अनूठा रहा।
रफ़ाल मामले में सुप्रीम कोर्ट में चली सुनवाई के दौरान जो सब हुआ उसपर भी अख़बार ने शानदार शीर्षक लगाए थे और रोज ख़बर पता होने के बावजूद मेरी दिलचस्पी 'द टेलीग्राफ़' में उसकी प्रस्तुति और शीर्षक को लेकर रहती थी।
![the telegraph news paper working boldly - Satya Hindi the telegraph news paper working boldly - Satya Hindi](https://satya-hindi.sgp1.digitaloceanspaces.com/app/uploads/24-09-19/5d89a428daa2e.jpg)
कहने की ज़रूरत नहीं है कि टेलीग्राफ़ ने कभी भी निराश नहीं किया। और वे सभी अंक देखने ही नहीं संभाल कर रखने लायक हैं। इसी तरह, लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री के भाषणों के लिए चुनाव आयोग द्वारा उन्हें क्लीन चिट दिए जाने पर अख़बार ने 7 मई 2019 के अपने अंक की लीड ख़बर बनाई थी - क्लीन चिट कंट्री। दूसरी लाइन में लिखा था, ईईएसईई : झक सफेद नेताओं पर लगे दाग मिटाने में सर्वश्रेष्ठ है। इसमें एक तरफ़ काले निशान के नीचे तारीख़ वार प्रधानमंत्री के उन भाषणों का जिक्र था जिससे लोगों को शिकायत थी। दूसरी तरफ सफेद परिधान में प्रधानमंत्री की फोटो थी और नीचे बताया गया था कि चुनाव आयोग ने किस भाषण के लिए क्लीन चिट देने में कितने दिन लगाए।
जहां तक ख़बरों की प्रस्तुति में अख़बार की रीढ़ दिखने का सवाल है, हाल के समय में ऐसा सबसे अच्छी तरह तब हुआ था जब चुनाव प्रचार के अंत में वाराणसी में मतदान से पहले मोदी चुनावी तीर्थ पर चले गए। 19 मई को देश के लगभग सभी अख़बारों में मोदी की गेरुआ वस्त्रों में फ़ोटो थी।
फ़ोटो तो 'द टेलीग्राफ़' में भी थी पर टेलीग्राफ़ मुख्यधारा का संभवतः अकेला अख़बार है जिसने केदार यात्रा को चुनावी तीर्थ बताने की हिम्मत की थी। टेलीग्राफ़ ने फ़ोटो के साथ बताया था कि न्यूज़ एजेंसी एएनआई ने यह तसवीर ट्वीट की और लिखा, "प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केदारनाथ मंदिर की एक गुफा में ध्यान मग्न"।(अंग्रेजी से अनुवाद)। 50 मिनट बाद जब सोशल मीडिया पर यह सवाल उठा कि क्या गुफा में उनके साथ फोटोग्राफ़र भी हैं तो एएनआई ने सूत्रों के हवाले से लिखा, “प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दो किलोमीटर पैदल चलकर गुफा तक पहुंचे और मीडिया के आग्रह पर कैमरों से शुरुआती तसवीर उतारने की इजाजत दी गई। यह भी बताया कि प्रधानमंत्री अपना ध्यान कुछ घंटे में शुरू करेंगे जो कल सुबह तक चलेगा। गुफा के आस-पास किसी मीडिया वाले को नहीं रहने दिया जाएगा।”
![the telegraph news paper working boldly - Satya Hindi the telegraph news paper working boldly - Satya Hindi](https://satya-hindi.sgp1.digitaloceanspaces.com/app/uploads/24-09-19/5d89a30e929df.jpg)
ऐसे में केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो का ग़ुस्सा किसी एक ख़बर से नहीं होगा और ना ही वह टेलीग्राफ़ में छपी किसी ख़बर का हवाला दे रहे थे। यह सब छप चुका है। मुद्दे की बात यह है कि बीजेपी की पोल खोलने वाली ख़बरों और टेलीग्राफ़ की रिपोर्टिंग से बाबुल सुप्रियो लंबे समय से नाराज चल रहे होंगे। और जाधवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच घिरने और मंत्री होने की धौंस दिखाने का असर कहीं नहीं हुआ तो लगा होगा कि इसका माहौल अख़बारों से ही बना है और इसीलिए टेलीग्राफ़ उनके ग़ुस्से का निशाना बना।
![the telegraph news paper working boldly - Satya Hindi the telegraph news paper working boldly - Satya Hindi](https://satya-hindi.sgp1.digitaloceanspaces.com/app/uploads/24-09-19/5d89a6ea55c18.jpg)
अपनी राय बतायें