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तीसरे मोर्चे की सोच न सैद्धांतिक रही, न व्यावहारिक

कोलकाता में ममता बनर्जी और अखिलेश यादव की मुलाकात के बाद क्या तीसरे मोर्चे का पुनर्जन्म होगा? क्या केसीआर जिस कोशिश में जुटे रहे हैं यह उसी की परिणति है? सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्षेत्रीय दलों का एक जुट होना क्या आम चुनाव में बीजेपी के लिए चुनौती है? कांग्रेस के लिए भी क्या यह चुनौती है?

ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, केसीआर, नवीन पटनायक की पार्टियों के पास कुल (23+3+9+12)=47 लोकसभा की सीटें हैं। ये पार्टियां निश्चित रूप से बीजेपी और कांग्रेस से लड़कर ही खड़ी हैं। निस्संदेह संसद में इन दलों की ताकत अपने दम पर है। यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इनमें से कोई भी दल चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने के लिए एक-दूसरे की मददगार नहीं है। ऐसे में इन पार्टियों के एकजुट होने का 2024 में लोकसभा चुनाव के मद्देनजर खास मतलब नहीं रह जाता।
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एनसीपी प्रमुख शरद पवार तीसरे मोर्चे में रुचि नहीं ले रहे हैं तो इसकी वजह यही है कि महाराष्ट्र में महाअघाड़ी सरकार के घटक दल एक-दूसरे को चुनाव जिताने में भूमिका निभा सकते हैं। कांग्रेस, एनसीपी और उद्धव की शिवसेना एक-दूसरे के लिए जीत की वजह और बीजेपी के लिए हार का फॉर्मूला हैं। 
बिहार में भी यूपीए मजबूत गठबंधन है। यहां जेडीयू महत्वपूर्ण है। बिहार की सियासत में जेडीयू जिस गठबंधन के साथ होता है उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहताहै। 2024 के लिए जेडीयू का महागठबंधन में रहना कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए केलिए शुभ साबित हो सकता है। महाराष्ट्र में उद्धव की शिवसेना और बिहार में जेडीयूयूपीए में नहीं होकर भी खुद को यूपीए से दूर नहीं रख सकेंगे क्योंकि उनकी चुनावीसफलता की यह शर्त रहने वाली है।

क्यों ख्याली पुलाव है तीसरा मोर्चा?

तीसरा मोर्चा ख्याली पुलाव इसलिए है क्योंकि इस मोर्चे में 90 के दशक वाला जनता दल जैसी कोई पार्टी केंद्रीय भूमिका में नहीं है जिसकी अखिल भारतीय स्तर पर मौजूदगी हो। जनता दल के कारण तीसरा मोर्चा जीवंत हुआ था और क्षेत्रीय दलों के साथ ‘तीसरा मोर्चा’में जान आयी थी। आज तीसरे मोर्चे में यह स्थान खाली है। तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने भरपूर कोशिश की है कि वह इस भूमिका में आने के लिए खुद को तैयार कर सके, लेकिन वह संभव नहीं हो सका। यही कारण है कि 2024 के चुनाव में कई दल अकेले अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र वाले राज्यों में चुनाव तो लड़ेंगे लेकिन किसी मोर्चा की शक्ल में उन्हें कोई चुनावी फायदा या कांग्रेस और बीजेपी को इसका चुनावी नुकसान नहीं हो सकेगा।
यूपी में बीएसपी ने गैर बीजेपी-गैर समाजवादी सियासत की राह पकड़ी है। यहां मायावती ने अखिलेश यादव को बीजेपी विरोधी गठबंधन की सियासत में कमजोर कर दिया है। स्वयं ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में अकेली हैं। उनके साथ न कांग्रेस है और न ही वाम मोर्चा। अपने-अपने प्रदेश में सियासी गठबंधन नहीं कर सकी पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ कर रही है। इसे तीसरा मोर्चा का नाम दिया जा रहा है। मगर, क्षेत्रीय स्तर पर प्रभावहीन यह गठजोड़ 2024 में लोकसभा चुनाव में कोई अतिरिक्त नतीजे नहीं दे सकेगी। मगर, क्या इससे कांग्रेस या बीजेपी को कोई नफा-नुकसान होगा?-यह बड़ा सवाल है।

बंगाल में ममता के खिलाफ भी कांग्रेस-लेफ्ट मोर्चा?

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट ‘तीसरा मोर्चा’वाली भूमिका में हैं। टीएमसी और बीजेपी से समान दूरी रखते हुए लोकसभा चुनाव में ये अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल के सागरदिघी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 67 प्रतिशत वोट मिलने के बाद कांग्रेस और लेफ्ट उत्साहित हैं। लेकिन, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि त्रिपुरा में कांग्रेस और लेफ्ट साथ आकर भी वांछित परिणाम नहीं पा सके।

बीजेडी को ओडिशा में किसी सहयोगी की जरूरत नहीं रही है। कांग्रेस और बीजेपी को वह बहुत आसानी से चुनाव में हराते रहे हैं। यहां त्रिकोणीय मुकाबलों में बीजेडी और बीजेपी आमने-सामने रहते हैं लेकिन राष्ट्रीय फलक पर बीजेडी का रुख बीजेपी से सहयोग का रहता आया है। 2024 के आम चुनाव में भी बीजेडी इस बात से बेपरवाह है कि वह किसी मोर्चा का हिस्सा बने या न बने। इसलिए टीएमसी, एसपी और टीआरएस के कुनबे में बीजेडी के रहने या नहीं रहने का विशेष महत्व नहीं है।
जमीनी स्तर पर असरदार नहीं तीसरे मोर्चे की सियासतः बीजेपी के नजरिए से यह अच्छा है कि देश की गैर बीजेपी पार्टियांअलग-अलग कारणों से बिखरीं रहे। चुनाव बाद के परिदृश्य में भी यह स्थिति उसके लिएफायदेमंद हो सकती है। तीसरे मोर्च की खिचड़ी पका रही पार्टियों में समाजवादीपार्टी और टीआरएस का रुख बीजेपी से दूर रहने का है जबकि टीएमसी और बीजेडी के लिएराष्ट्रीय स्तर की सियासत में बीजेपी विरोध कोई मजबूरी नहीं है। आवश्यकता पड़ने परयूपीए के साथ भी इनके रूख में परिवर्तन हो सकता है।
लब्बोलुआब यह है कि देश में तीसरे मोर्चे के लिए न सैद्धांतिक वजह दिखती है और न ही व्यावहारिक रूप से यह कोई नतीजे बदलने वाली कोई कवायद नजर आती है। एक बात अवश्य उल्लेख करने की है कि जिस पहले मोर्चे की वकालत नीतीश कुमार करते रहे हैं, उस सोच को इससे धक्का लगा है। अब पहला मोर्चा भी संभव नहीं रह गया है। पहले मोर्चे का अर्थ है कि बीजेपी को हराने के लिए सीट दर सीट साझा उम्मीदवार देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा बने। कुछ समय पहले तक ममता बनर्जी भी यही बात कह रही थीं, लेकिन अब वह इससे पीछे हट गयी हैं।

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सच यह है कि तीसरा मोर्चा की कवायद करने वाले दल बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी के सिद्धांत पर अड़े दिख तो रहे हैं लेकिन इनमें से कुछ दल कांग्रेस के लिए नरम हैं तो कुछ दल बीजेपी के लिए नरम। अब तक तीसरा मोर्चा का अस्तित्व कांग्रेस और बीजेपी के प्रति सख्त तेवर के साथ हुआ करता था। अब नरम रुख रखते हुए समान दूरी की बात की जा रही है। इसे अवसरवाद या सहूलियत की सियासत का नाम ही दिया जा सकता है। इतना तय है कि ऐसे मोर्चे से राष्ट्रीय स्तर र सियासत में कोई हलचल पैदा नहीं होने वाली है।
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क़मर वहीद नक़वी
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