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तुलसी तो जाति बंधनों को तोड़ते हैं!

बाबा तुलसीदास एक बार फिर संकट में हैं। उनपर जातिवादी, दलित और स्त्री विरोधी बताते हुए चौतरफा हमला हो रहा है। उनके ‘रामचरितमानस’ को नफ़रत फैलाने वाला ग्रन्थ बताकर पाबंदी की मांग की जा रही है। इस दफा तुलसी पर हमला ‘कुपढ़ों’ ने बोला है। अनपढ़ से कुपढ़ लोग समाज के लिए ज्यादा खतरनाक होते हैं। तुलसी अभिशप्त हैं ऐसे संकट बार-बार झेलने के लिए।

ऐसा संकट तुलसी पर पहली बार नहीं आया है। तुलसीदास जन्मे बांदा में और मरे बनारस में। पहला संकट उनके जन्म लेते ही आया था। जब एक बुरे नक्षत्र में जन्म लेने मात्र से अपशकुन मान उनके माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया। सेविका चुनिया ने ही उन्हें पाला पोसा। अपने घर ले गयी। लेकिन पांच साल की उम्र में धर्ममाता चुनिया भी चल बसी। अब रामबोला दूबे पूरी तरह अनाथ थे। उनका नाम रामबोला इसलिए पड़ा कि जन्मते उनके मुंह से ‘राम’ निकला, इसलिए भी माता-पिता डर गए। अब तुलसी बनने की प्रक्रिया में वे दर-दर ठोकर खाने लगे।

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उनके जीवन का सबसे बड़ा संकट आया। जब पत्नी रत्नावली ने तुलसी को दुत्कार, हाड-मांस की अपनी देहयष्टि से ध्यान हटा भगवान में ध्यान लगाने का फरमान सुना, भगा दिया। पत्नी के इस आघात से तुलसी बिखर गए। बेचारे तुलसी हनुमान की शरण में गए और रामचरित लिखने का संकल्प लिया। संवत 1631 में हनुमान जी के आशीर्वाद से उन्होंने रामचरितमानस लिखना शुरू किया। बनारस में संकटमोचन मंदिर की स्थापना करने के बाद। पर संकट ने यहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। उन्होंने लोक के बीच रामचरित को ले जाने के लिए अपना यह महाकाव्य ‘अवधी’ में लिखना शुरू किया। अब वो काशी के पंडितों के निशाने पर आ गए। क्योंकि भगवत गाथा देवभाषा यानी 'संस्कृत' में ही लिखी जानी चाहिए। वह गंवारों की बोली में कैसे लिखी जा सकती है। सो तुलसी जितना लिखते थे। फौरन उनका लिखा बनारस के संस्कृतनिष्ठ पंडित गंगा में फेंक देते थे। उन्हें मारते-पीटते और अपमानित अलग करते थे। इसीलिए तुलसी ने अस्सी मुहल्ले के पास के इलाके को ‘भयदायिनी’ कहा जो आज ‘भदैनी’ के नाम से जाना जाता है।  

तुलसी के रामचरितमानस की गिनती विश्व साहित्य की महान कृतियों में होती है। अफसोस कि मानस को लिखे जाने के कोई पांच सौ बरस बाद उसे इक्कीसवीं सदी के विमर्शों और सामाजिक आधारों की कसौटी पर कसा जा रहा है। जबकि यह कोई धार्मिक कृति न होकर शुद्ध साहित्य है, प्रबंध काव्य है। गांधी जी ने मानस को "भक्ति साहित्य की श्रेष्ठ कृति" कहा। रामचरितमानस पर अकादमिक बहस हो सकती है। ढोल-गंवार प्रसंग हो या धोखे से बालिबध या फिर सीता की अग्निपरीक्षा, उन सब पर बौद्धिक बहस होती रही है। होनी भी चाहिए। पर किसी महाकाव्य से सिर्फ दो लाईनें उठा समूचे ग्रन्थ के प्रति दुर्भावना फैलाना यह अक्षम्य अपराध है।

‘रामचरितमानस’ तुलसी की शुरुआती कृति है। उन्हें समझने के लिए हमें मानस से लेकर ‘विनय पत्रिका’ तक की पूरी यात्रा करनी पड़ेगी। उनके युग के निर्मम यर्थाथ का ग्रन्थ ‘कवितावली’ है। और भक्ति का चरम ‘विनय पत्रिका’। अगर इस पूरे रचना संसार को देखें तो तुलसी एक सजग और जागरूक युग नेता, लोकमंगल, युग के निस्पृह यर्थाथ का विवेचन करने वाले कवि हैं।
कोई भी रचनाकार अपने कालखण्ड से निरपेक्ष नहीं हो सकता है। तुलसी भी अपने कालखण्ड की उत्पति थे। उस वक्त वे जो देख रहे थे वही लिख रहे थे। उनकी रचनाओं में वही भाषा है जो उस वक्त का समाज बोलता था।

उन्होंने ऐसा क्यों लिखा इसे समझने के लिए हमें उस वक्त की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था की पड़ताल करनी होगी। तुलसी पूरी संवेदना के साथ अपने समाज के यथार्थ से टकराते हैं। सिर्फ टकराते ही नहीं, वे रामराज्य का विकल्प भी देते हैं। आज भी आदर्श राज्य व्यवस्था के लिए रामराज्य को ही नजीर माना जाता है। चाहे वे महात्मा गांधी हों या नरेन्द्र मोदी। गोर्की कहते थे, “सबसे सुंदर बात है अच्छी बातों की कल्पना करना। यह कल्पना किसी रचनाकार की उदात्तता का प्रमाण होती है।” तुलसी किसी भी युग के रचनाकारों से इसलिए भिन्न हैं कि वे सबसे कठिन समय में ‘आदर्श युग’ की कल्पना करते हैं। ‘रामराज्य’ उनका आदर्श युग है। रामराज्य की कल्पना से वे ऐसे युग का सपना रोपते हैं जहां- “बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥ सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥”

इस कल्पना का सबसे मनोरम दृश्य यह है कि ‘उत्तरकाण्ड’ में राम को सिंहासन पर बिठाकर अपनी कथा समाप्त नहीं करते। वे राम के राजकाज संभालने के बाद उन्हें अमराई में ले जाते हैं। भरत का उत्तरीय बिछा धरती पर बिठाते हैं। और फिर ज्ञान की दिशा में बढ़ जाते हैं। यानी तुलसी को वही राम भाते हैं जो लोगों के बीच अमराई में धरती पर बैठते हैं। इसलिए तुलसी बनवासी राम पर जितने शब्द लिखते हैं। ‘राक्षसहंता’ राम और ‘सम्राट’ राम पर उसका आधा भी नहीं। यह राम का जनपक्ष है।

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ताजा विवाद में गड़बड़ दोनों तरफ़ है। तुलसी के पक्ष और विरोध दोनों तरफ़ खड़े लोग अति कर रहे हैं। न उन्हें परम्परा का ज्ञान है और न इतिहास का। तुलसी का रचना संसार उन्हें भगवान मानने और कुछ न मानने वालों के बीच में फंस गया है। एक तरफ़ वे मूढ़ हैं जिन्हें मानस में हर तरफ़ घृणा और नफ़रत दिखती है। उन्हें यह भी नहीं मालूम कि जब तुलसीदास लिख रहे थे। उस वक्त न मण्डल कमीशन आया था न सिमोन द बुआ का नारी विमर्श आया था। पांच सौ बरस पुराने साहित्य को आज के सन्दर्भों में खरे उतरने की मांग कैसे की जा सकती है? इसे समझने के लिए हमें रामचरितमानस को धर्मग्रन्थ की पीठिका से उतार एक सजग, जागरूक, युगचेता महाकाव्य के तौर पर देखना होगा।

दूसरी तरफ वे लोग हैं जो मानस को धार्मिक और पूजा भाव से पढ़ते हैं। जिनकी धार्मिक भावनाएँ इतनी कमजोर हैं कि खांसने और वायुमुक्त करने से भी ख़तरे में पड़ जाती है। उन्हें यह पता ही नहीं कि रामचरितमानस धार्मिक ग्रन्थ नहीं है। असल समस्या ही तब शुरू होती है जब मानस को हम धार्मिक ग्रंथ मानने लगते हैं। हमें यह समझना पड़ेगा कि मानस किसी भी महाकाव्य की तरह आलोचना के दायरे में है। रामचरितमानस वैसा ही प्रबंधकाव्य है, जैसा उनके समकालीन जायसी का 'पद्मावत', केशव की 'रामचंद्रिका', नाभादास का 'भक्तमाल', सूर का ‘सूरसागर' या कबीर की ‘रमैनी', 'सबद' और 'साखी'। सब अपने-अपने समय के समाज की आवाज को अभिव्यक्त कर रहे थे। फिर जब यह धार्मिक ग्रंथ नहीं है, 'साहित्य' है, तो इस पर बहस क्यों नहीं हो सकती? क्यों मानस पर सवाल उठते ही हमारी धार्मिक भावनाएं बार-बार आहत होती हैं। 

 

अगर किसी ने मानस पर सवाल खड़ा ही कर दिया तो उससे हमारा धर्म खतरे में कैसे पड़ जाता है?

हमारी परम्परा और धर्म में तो आप राम को न मानें तब भी हिन्दू हैं। शिव को न मानें तो भी हिन्दू हैं। शक्ति को मानें न मानें तो भी हिन्दू हैं। मूर्ति की पूजा करें तो भी हिन्दू हैं। मूर्ति का विरोध करें तो भी हिन्दू हैं। इतना सहिष्णु धर्म है हमारा। सातवीं शताब्दी में एक ऋषि हुए 'चार्वाक'। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दे दी। वेदों पर सवाल खड़े कर दिए। 'नास्तिकवाद' और 'भौतिकवाद' के वे जनक थे। फिर भी हमने उन्हें ऋषि परम्परा में जगह दी। उन्हें ईश निंदा का दोषी नहीं ठहराया। ऐसी मज़बूत और उदार है हमारी धार्मिक विरासत।  

बिहार के (अ)शिक्षामंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर ने रामचरितमानस को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ बता दिया। अपने नाम के आगे सिर्फ प्रोफेसर लगा देने से कोई विद्वान नहीं हो जाता। फिर उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने मानस पर प्रलाप करते हुए उस पर पाबंदी की मांग कर दी। कुछ ऐसा ही दलित नेता उदितराज ने कहा। उसके बाद तो बेचारे तुलसी को जाति और स्त्री विमर्श की अदालत में खड़ा कर दिया गया। उन्हें दलित विरोधी करार दिया गया। ये कुपढ़ इतिहास और साहित्य के बुनियादी सिद्धांत मानने को तैयार नहीं हैं।

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जब तुलसी मानस रच रहे थे तब न तो 'नारी विमर्श' के चौखटे थे, न 'दलित विमर्श' के निकष ही बने थे। न ही 'स्त्रीवादी विमर्श' के आयाम बने थे। तुलसी सिर्फ और सिर्फ मध्यकाल के समाज उसके व्यवहार और लोकाचार के आधार पर मानस की रचना कर रहे थे। वे अपना युग लिख रहे थे। जो किसी भी रचनाकार का युगधर्म होता है। इसलिए उसे संपूर्णता और उस वक़्त के समाज व्यवस्था की रौशनी में ही देखा जाना चाहिए। तुलसी का समाज कुरीतियों और विद्रूपताओं से भरा था। इस मुश्किल वक्त में भी तुलसी ने वही किया जो कोई भी समकालीन साहित्यकार करता है। हर साहित्यकार के पास अपना एक 'यूटोपियन' समाज होता है। तुलसी के पास भी था। मार्क्स के पास भी था। तुलसी उसे रामराज्य कहते हैं। तुलसी अगर अपने वक्त की अचछाइयों का बखान कर रहे थे। तो जातिवाद का क्यों न करते? अगर वह अपने युग सत्य को छोड़ते तो उनकी लेखकीय ईमानदारी का क्या होता?

काव्य का अपना अनुशासन होता है। कथ्य और रचना के मूल्य और उद्देश्य हैं। रामचरितमानस बहुचरित्र महाकाव्य है। जो विराट कथानक और धीरोदात्त नायकत्व के मूल्यों पर केंद्रित है। जिसका नायक संघर्षों से तप कर आता है। वह योद्धा नायक नहीं है। न ही चमत्कारिक आलोक है। तुलसी के राम पराजित, दुखी, आदर्शों और संकल्पों के सामने जीवन का सब कुछ गंवा देने वाले नायक है। सामान्य भारतीय का संघर्ष यही है। इसलिए वह राम से सीधा जुड़ जाता है। राज्य से बेदखली, पत्नी का अपहरण इन दुखों में तपे राम सामान्य व्यक्ति हैं। इस राम में वीरता से ज्यादा धीरता है। चमत्कार की जगह उदात्तता है। आम मनुष्य के दायरे में जो सर्वश्रेष्ठ है, वह राम में है। उनके पास कोल, भील, आदिवासी, बनवासी, दलित सब हैं। तो ऐसा कैसे होगा कि तुलसी और उनके राम जाति प्रथा को बढ़ावा दें या नारी विरोधी हों।

तुलसी अपने समाज के साहित्य में एक लोक रचते हैं। रामचरितमानस उसी एक पूरे बनते-बिगड़ते समाज की कथा है। आज रावण या समुद्र जैसे खलनायकों के संवाद भी तुलसी के खाते में जा रहे हैं। अपने समय के साथ तुलसी ने वही किया जो हर प्रगतिशील साहित्यकार करता है।

आधुनिकता और प्रगतिशीलता को अपने देश और काल के संदर्भ में ही देखा जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो प्रेमचंद की प्रगतिशीलता भी आज के संदर्भों में प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरी नहीं उतरेगी। 

यह बहस बेमानी है कि तुलसी स्त्री विरोधी थे। डॉ. लोहिया कहते हैं "नारी की पीड़ा को तुलसी जिस ढंग से व्यक्त करते हैं, उसकी मिसाल भारत में ही नहीं, दुनिया के किसी साहित्य में नहीं है।" “कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं॥” सीताराम, भवानीशंकर, वाणीविनायको, श्रद्धाविश्वासरूपिणौ, सियाराम मय सब जग जानी वाले तुलसी स्त्री की शक्ति, सम्पन्नता और पीड़ा के गायक हैं। मानस की शुरुआत ही स्त्री की जिज्ञासा से होती है। पार्वती शिव से पूछती हैं। शिव स्वयं आधे स्त्री हैं। उस वक्त समाज में वेद, स्त्री के लिए नहीं थे। योग और संन्यास स्त्री के लिए वर्जित थे। इसलिए पार्वती शंकर से डरती-डरती पूछती हैं। भक्ति मार्ग में पहली बार स्त्री को अधिकार मिला था। तुलसी के जरिए।

तुलसी जातिवादी नहीं हो सकते। क्योंकि वे भक्त हैं। भक्ति सर्वहारा का आंदोलन है। वह चाहे किसी जाति सम्प्रदाय का हो। उसके पास अपना कुछ नहीं है, सब भगवान का है। दास भाव से रहता है। दास कहलाने में गौरव है। इसलिए भक्तों के आगे 'दास' है। तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास, सुन्दरदास यहां जाति कुल गोत्र का विचार नहीं है। केवल साधना उसकी कसौटी है। क्योंकि जाति, कुल, गोत्र वर्ग, रंग आदि में अंहकार है। इनकी सीमाओं में बंद व्यक्ति ईश्वर को नहीं पा सकता। भक्ति में हर प्रकार का भेदभाव वर्जित है। तुलसी कहते हैं- 

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।  

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।  

भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।

जाति तुलसी के समाज की सच्चाई थी। तुलसी युग की सच्चाई लिख रहे थे। शेक्सपियर भी तो ‘एलिजाबेथियन’ और ‘जैकोबियन’ युग को लिखते हैं। उनका समाज चरम जातिवादी था। ब्राह्मणवाद में भी ‘संस्कृतनिष्ठ’ ब्राह्मणवाद का युग था। तुलसी ने वह जीया और सहा था। उसे लिखे बिना आदर्श चरित की कल्पना कैसे हो सकती थी? अगर हम जाति और समाज विभाजन के युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में रामचरितमानस को पढ़ें तो समझ आएगा कि तुलसी ने जानबूझकर समाज के वे सारे चरित्र चुने जो मुख्यधारा में नहीं थे। मसलन निषाद, वनवासी, शबरी, वानर, पक्षियों में त्याज कौवा यानी परमज्ञानी ‘काकभुशुण्डि’। अगर ये सब न भी होते तो राम को रावण से युद्ध करा विजेता दिखा नायक बनाया जा सकता था। पर तुलसी राम की जीत में देवत्व स्थापित नहीं कर रहे थे। इसलिए उन्होंने जातियों का सच लिखा।

 

शबरी दलित थी। राम ने उसके जूठे बेर खाए। जिस रामचरितमानस को दलित विरोधी कहा जा रहा है। वह रामचरित जिन काकभुशुण्डी के मुंह से सुनी गयी वे दलित थे।

जो लोग "ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी" पर बहस करते हैं वे उत्तर काण्ड में काकभुशुण्डी को नहीं देख पाते, जिन्हें तुलसी रामभक्ती का सिरमौर बनाते हैं। भरत निषादराज को गले लगाने के लिए रथ से उतरते हैं। "राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा॥" रामभक्ति से कथित छोटी जातियाँ भुवन विख्यात हो जाती हैं। "स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात। रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥" 

बल्कि तुलसी तो जाति की जकड़न को तोड़ रहे थे। उन्हें लिखना पड़ा "मेरे ब्याह न बखेरी जाति पाति न तहत हौं।" जब उन पर लोग जाति के बंधन को तोड़ने का आरोप लगाने लगे तो खीज में वे अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं। "धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ॥ काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ॥" "तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाके रूचे सौ कहै कछु कोऊ। माँगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो को एकु न दैबो को दोऊ।" (कवितावली) जाति के पचड़े से वे इस कदर उबे थे कि वे मांग कर खाने और मस्जिद में सोने को भी तैयार थे। ये लाईनें प्रमाण हैं कि जाति के आधार पर तुलसीदास कितने प्रताड़ित हुए थे।  

तुलसी पर हमला उस वक्त भी जातिवादी ब्राह्मणों ने किया। उन्हें षडयंत्रकारी, दग़ाबाज़ी करने वाला और अनेक कुसाजो को रचने वाला बता नकारा गया। 

 

कोउ कहै, करत कुसाज, दगाबाज बड़ो,   

कोऊ कहै राम को गुलामु खरो खूब है।    

साधु जानैं महासाधु, खल जानैं महाखल,  

बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है।     

चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू,  

सबकी सहत, उर अंतर न ऊब है। 

तुलसी ने भी पथभ्रष्ट ब्राह्मणों की निंदा की "सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना।।" या "विप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।" इसके बाद भी तुलसी को आप ‘ब्राह्मणवादी’ कह सकते हैं। 

 

याद कीजिए वनगमन के फैसले के बाद चित्रकूट की रात्रिसभा। भरत के साथ पूरी अयोध्या राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट पहुंचती है। भरत ग्लानि से भरे हैं। अयोध्या का बहुमत राम को वापस लाने के पक्ष में था। यानी जनमत राम की वापसी के पक्ष में था। लेकिन राम नहीं लौटते। तो फिर राम ने जनमत की उपेक्षा क्यों की? यह राम की राजनीति का स्वर्णिम पक्ष है। उन्हें पता है मोह व्यक्ति को नहीं पूरे समाज को ग्रस सकता है। तुलसी इसे स्नेह जड़ता कहते हैं। राम पूरे विनय के साथ जनमत को उसका दायित्व बताते हैं। वह सिखाते हैं, कि लोकतंत्र के निर्णय भी ग़लत हो सकते हैं। लेकिन अगर नेतृत्व सचेतन है तो वह समूह की भूल भी सुधार देता है। राम पहले भरत को दोषमुक्त करते हैं। फिर कैकेयी की ग्लानि समाप्त करते हैं। उसके बाद वे भरत के ज़रिए अयोध्या वासियों से कहते कि राजा से वही कराएं जो उचित हो। यह राजनीति की राम परिभाषा हैं। राजनीति को कीर्तिमयी सद्भावमयी होना चाहिए। तुलसी का पूरा साहित्य इसी समाज और राजनीति की संकल्पना है। काश हम अपनी दृष्टि व्यापक कर पाते। तो हम रामचरितमानस में जातिवाद नहीं त्याग और लोकतंत्र देख रहे होते।

(हेमंत शर्मा के फ़ेसबुक पेज से )

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हेमंत शर्मा
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