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ट्रंप का अहमदाबाद दौरा: मोदी जी, दीवार खड़ी करने से नहीं छुपेगी ग़रीबी

आज से क़रीब 50 साल पहले देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा दिया था और इसके बाद देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया था। इस नारे को लेकर बहुत से आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे और पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस पार्टी ने ग़रीबी का मुद्दा फिर से उठाने की कोशिश की तो सत्ताधारी दल के नेताओं ने सवाल उठाया कि पचास साल में ग़रीबी क्यों नहीं हट सकी? लेकिन आज फिर से एक बार ग़रीबी को लेकर सवाल खड़ा हुआ है! इस बार यह सवाल सरकार द्वारा ग़रीबी हटाने के किसी नारे को लेकर नहीं बल्कि ग़रीबी को छुपाने के तरीक़ों को लेकर है। 

यह सवाल खड़ा हुआ है अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप के गुजरात दौरे के चलते अहमदाबाद में सड़क किनारे बसी झुग्गी-झोपड़ियों के आगे दीवार बनाने को लेकर। ऐसा इसलिये किया जा रहा है कि ये झुग्गी-झोपड़ियां ट्रंप को नहीं दिखाई दें। कुछ ऐसा ही उस समय भी किया गया था जब चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग अहमदाबाद आए थे। उस समय झोपड़ियों को ढकने के लिए सड़क किनारे हरे रंग के कपड़े लगाए गए थे। 

ग़रीबी हमारे देश की एक बड़ी समस्या है और साल दर साल इसका स्वरूप विकराल होता जा रहा है। लेकिन क्या पर्दा या दीवार खड़ी कर हम इस सच्चाई को छुपा सकते हैं?
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अहमदाबाद क्यों नहीं बना स्मार्ट सिटी? 

सरकारी आंकड़ों में हेराफेरी या उलट-पलट कर हम ग़रीबों और बेरोज़गारों के आंकड़े भले ही कम बता सकते हैं लेकिन ज़मीनी हकीक़त को बदलने के लिए उसे छुपाने के बजाय उसे लेकर योजना बनाने की ज़रूरत होती है? मोदी सरकार ने पांच साल पहले स्मार्ट सिटी का नारा दिया था। देश में 100 से अधिक स्मार्ट सिटी बनाने की बात कही थी। लेकिन अहमदाबाद क्यों स्मार्ट सिटी नहीं बन सका? प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी जी 13 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री भी रहे हैं और गुजरात मॉडल प्रचारित कर उन्होंने 2014 का चुनाव भी जीता था।

क़रीब पांच साल पहले ही किसानों की आय दुगना करने की बात कही गयी थी। सवाल यह भी है कि शहरों की ओर लोगों का पलायन घटने की बजाय बढ़ क्यों रहा है? यह शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों की बढ़ोतरी का सबसे बड़ा कारण है।

रोज़गार और आमदनी को लेकर जो आंकड़े सरकारी रिपोर्ट्स में आते हैं उनसे तो यही स्पष्ट हो रहा है कि एक नए प्रकार की ग़रीबी देश को अपने आगोश में समाये जा रही है। देश की आय का एक बड़ा हिस्सा चंद पूंजीपतियों की तिजोरी में पहुंच रहा है। बैंकों का पैसा कुछ गिने-चुने उद्योगपति डकार रहे हैं और जनता से टैक्स के रूप में वसूला गया पैसा कृषि और आम आदमी की मूलभूत सुविधाओं से ज्यादा किसी ख़ास वर्ग की सुविधाओं पर खर्च किया जा रहा है। 

वर्तमान समय में कृषि के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था का ढांचा पूरी तरह से बिखरता जा रहा है। पचास साल पहले भी स्थिति क़रीब-क़रीब ऐसी ही थी। किसानों की ग़रीबी दूर करने के उद्देश्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मैक्सिको से गेहूं के बीजों के आयात की मंजूरी दी और गेहूं बोने का क्षेत्र जो 1964 में महज 4 हेक्टेयर था, 1970 में बढ़कर 40 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया। 
1968 में हमारे देश के किसानों ने रिकॉर्ड 170 लाख टन गेहूं का उत्पादन किया, जबकि इससे पहले 1964 में सर्वाधिक 120 लाख टन उत्पादन हुआ था। पैदावार में आई इस उछाल को देखकर इंदिरा गांधी ने गेहूं क्रांति के आगाज का एलान कर दिया था। राजाओं के प्रीवी पर्स बंद करने, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण, कोयला खदानों का अधिग्रहण, श्रीमान कृषक एवं खेतिहर मजदूर एजेंसी व लघु कृषक विकास एजेंसी ऐसे कार्यक्रम थे जिनका असर दिखा और 1977 में ग़रीबी दर का जो आंकड़ा 52 प्रतिशत था यह 1983 में 44, 1987 में 38.9 और मौजूदा समय में 27.5 फ़ीसदी के आसपास पहुंच गया है। 
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लेकिन देश में किसान ही नहीं, हर मेहनतकश वर्ग परेशानी के दौर से गुजर रहा है। रोज़गार में गिरावट ऐसी है जैसी पिछले 45 सालों में कभी नहीं रही। यानी अपनी आजीविका चलाने के लिए जद्दोजहद बहुत ज्यादा हो चली है। महंगी स्वास्थ्य सेवा के चलते हर साल बड़ी संख्या में वे परिवार ग़रीबी रेखा के नीचे चले जा रहे हैं जिनके परिवार का एक भी सदस्य किसी बड़ी बीमारी का शिकार हो जाता है। ऐसे में ग़रीबी पर पर्दा डालने के बजाय उससे लड़ने के उपाय किये जाने चाहिए। पर्दा डालकर हम उस समस्या से निजात नहीं पा सकते। 
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संजय राय
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