वंदे मातरम् पर संसद में हुई दस घंटे की बहस से क्या मिला? क्या किसी ने कोई सबक लिया और देश में कहीं सद्भाव और सौहार्द और साझी विरासत को समझने का वातावरण निर्मित हुआ? सत्ता पक्ष और विशेषकर भाजपा इस बात से खुश है कि उसने कांग्रेस पार्टी और जवाहर लाल नेहरू पर बदनामी का एक और कलंक लगा दिया और उन पर देश विभाजन की तरह वंदेमातरम् को भी विभाजित करने का आरोप जड़ दिया। वह इस बात से खुश है कि इस तरह उसे अल्पसंख्यक वर्ग पर एक ऐसा गीत थोपने का बहाना मिल गया जिसे अल्पसंख्यक और विशेषकर मुस्लिम समाज शिर्क मानता है।

दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी और विपक्ष इस बात से खुश हैं कि उसने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतिहास के विवादित टुकड़े उठाकर भारतीय एकता को खंडित कर रहे हैं और चूंकि संघ परिवार की आजादी की लड़ाई में सीधी भागीदारी नहीं है इसलिए वे उस विरासत की कुछ जमीन अपने नाम करना चाहते हैं। विपक्ष ने यह भी साबित किया कि वे एक बार फिर लॉर्ड कर्जन की तरह बंगाल के चुनाव को निशाने पर लेते हुए उसे विभाजित करने की कोशिश कर रहे हैं। यानी भाजपा एक बार फिर बंग भंग की योजना बना रही है। लग रहा है कि हुमायूं कबीर द्वारा मुर्शिदाबाद में बाबरी मस्जिद के शिलान्यास और संसद में वंदे मातरम पर बहस के बाद नए पश्चिम बंगाल में दूसरे बंग भंग की तैयारी हो चुकी है।

इतिहास की कल्पना बनाम कल्पनाओं का इतिहास

इस बहस में कई वक्ताओं ने इसे अप्रासंगिक बताते हुए भी कुछ बातें कहीं और उनका सार यह था कि राजनीति को इतिहास की बहसों में उलझने के बजाय वर्तमान की समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। राजनीति इतिहास के खंड-खंड उठाकर वर्तमान को विकृत कर रही है। यहां अपने एक इतिहासकार मित्र की बात याद आती है कि इतिहास की बहसों को इतिहासकारों के लिए छोड़ देना चाहिए। वास्तव में इतिहास एक कल्पना है और उसमें सत्य या तथ्य प्रमाणित करने का लाख प्रयास भी उसे कल्पना से एकदम रहित नहीं कर सकता। हर इतिहास में कल्पनाओं का तत्व रहता है और हर कल्पना का अपना इतिहास होता है।

दूसरी ओर कल्पनाओं का अपना इतिहास होता है और वे जब इतिहास का हिस्सा बनती हैं तो इतिहास और राजनीति को और भी जटिल बना देती हैं। वंदे मातरम् के साथ कुछ ऐसा ही है। यह मामला भाजपा बनाम कांग्रेस से अधिक इतिहास की कल्पना बनाम कल्पनाओं के इतिहास का है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में नारों और आख्यानों के तौर पर ऐसा बहुत कुछ है जिसे अगर आप विशाल हृदय के साथ देखेंगे तो वे जोड़ने का काम करेंगे और अगर आप उसे विभाजनकारी नजरिए से देखेंगे या उसकी व्याख्या संकीर्ण राष्ट्रवाद के साथ करेंगे तो वे बांटने का काम करेंगे। वंदे मातरम् के साथ भी बहुत कुछ ऐसा है।

वंदे मातरम् और उससे संबद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ संन्यासी विद्रोह जैसी एक ऐतिहासिक घटना की काल्पनिक प्रस्तुति है।

संन्यासी विद्रोह की वास्तविकता पर चर्चा ही नहीं

वह उपन्यास और इस गीत के माध्यम से प्रस्तुत बंग मातृभूमि का मानवीकरण भारतीय राष्ट्रवाद की कल्पना में ऐतिहासिक रूप से ऐसा गुंथ गया है कि अब संन्यासी विद्रोह की वास्तविकता पर चर्चा ही नहीं होती। बल्कि उससे उभरे भारत माता के स्त्री रूप की ही चर्चा होती है। संसद में बंकिम को महान कवि और साहित्यकार बताने वाले इस बात का जिक्र करना ही भूल गए कि बंकिम ने साझी विरासत के एक विद्रोह को सांप्रदायिक रंग दिया। बंकिम अंग्रेजों के मुलाजिम थे और उन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से अंग्रेजों के शासन के औचित्य को सही ठहराया। 

यहां यह भी याद दिलाने की बात है कि बंकिम ने अंग्रेजों का विरोध करने वाला ‘साम्या’ नाम से एक लेख लिखा लेकिन उसे वापस ले लिया। लेकिन इतिहास कभी किसी की कल्पनाओं में कैद नहीं होता और अग्रेजों के समर्थन में लिखे गए उपन्यास के इस गीत ने अंग्रेजों के खिलाफ ही बगावत का बिगुल बजा दिया। कैसी विडंबना है कि बंकिम ने अंग्रेजों के पिट्ठू मीर जाफर के विरुद्ध हुए उस विद्रोह को मुस्लिम सत्ता के विरुद्ध विद्रोह साबित कर दिया जिसमें भवानी पाठक, देवी चौधरानी, मजनू शाह, मूसा साह और चिराग अली मिलकर लड़े थे। उससे भी बड़ी इतिहास और कल्पना के गुत्थम गुत्था होने की यह विडंबना है कि वह काल्पनिक गीत अपने में इतिहास का एक यथार्थ बन गया।

वंदे मातरम विवाद से मुक्ति किसे चाहिए?

इतिहासकार सव्यसाची भट्टाचार्य ने ‘वंदे मातरमः द बायोग्राफी ऑफ ए सांग’ (2003) नामक पुस्तक के माध्यम से इस गीत का इतिहास और उसकी जीवनी लिखी है। अगर लोग उसे ध्यान से पढ़ें तो टुकड़ों में प्रस्तुत इतिहास और उसके विवाद से मुक्ति मिल सकती है। लेकिन मुक्ति किसे चाहिए? विवाद से मुक्ति न तो संघ परिवार को चाहिए और न ही ऑल इंडिया मजलिस-ए-एत्तेहादुल मुसलमीन के असदुद्दीन ओवैसी को चाहिए और न ही जमीयत-उलेमा-ए-हिंदी के अरशद मदनी को चाहिए। ओवैसी और मदनी ने शुरू के उन दोनों छंदों को भी इस्लाम के लिए शिर्क (मूर्ति पूजा) बताते हुए मुसलमानों को इसे गाने से मना कर दिया। जबकि संघ परिवार और देश की सत्ता पर काबिज उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा उस पूरे गीत को गाने के लिए सभी नागरिकों को बाध्य करने पर आमादा है। वह इसके लिए भाजपा शासित राज्यों में सरकारी आदेश जारी कर चुकी है। इसलिए अगर स्कूलों और दफ्तरों में मुस्लिम बच्चे या कर्मचारी नहीं गाएंगे तो वे कोप के भाजन बनेंगे या वे अलगाव के शिकार होंगे।

अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति

हालाँकि अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति सुनियोजित तरीके से तभी से शुरू हो गई थी जब 1857 में हिंदुओं और मुसलमानों ने एक होकर उनके विरुद्ध स्वतंत्रता की पहली लड़ाई लड़ी थी। गौर करने लायक बात है कि इस लड़ाई में बंगाल इनफैन्ट्री तो शामिल थी और मंगल पांडे ने बैरकपुर छावनी में विद्रोह किया था, लेकिन बंगाल का अभिजन यानी भद्रलोक इससे अलग था। इसी तरह पंजाब भी इससे अलग था और इसीलिए दिल्ली में विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेजों ने सिख रेजीमेंट और गोरखा रेजीमेंट का इस्तेमाल किया। लेकिन यहां एक बात गौर करने लायक है कि 1857 में जब वंदे मातरम् लिखा नहीं गया था, तब ‘अल्लाह हो अकबर’ और ‘हर हर महादेव’ का नारा क्रांतिकारी एक साथ लगते थे। मेरठ से जब विद्रोही सेनानी दिल्ली की ओर चले तो उन्होंने मेरठ के मशहूर शिव मंदिर में यही नारा एक साथ लगाया था। ध्यान देने की बात है कि ये वही नारे हैं जिसे लगाकर आजादी से पहले और आजादी के बाद दंगे हुआ करते हैं। सत्तावन की यह साझी विरासत ही हमारी आजादी की लड़ाई की प्रमुख अंतस्धारा है। जिसे हम गांधी के उस भजन में देख सकते हैं जो उनकी प्रार्थना सभाओं में गाया जाता था और जिसका भारत विभाजन के बाद घनघोर विरोध होने लगा। और आज भाजपा जगह जगह जिसका विरोध करवा रही है। वह भजन थाः—

रघुपति राघो राजाराम। पतित पावन सीता राम।
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम। सबको सन्मति दे भगवान।

सत्तावन की साझी विरासत की खासियत यह है कि इसमें जहां गोसाईं और संन्यासी थे वहीं उनके साथ पीर और फकीर थे। इसमें सनातनी और आर्यसमाजी थे तो इसमें शेर अली जैसे वहाबी भी थे जिन्होंने अंडमान में वायसराय लॉर्ड मेयो को मार डाला था। वास्तव में यह साझी विरासत बंगाल के स्वदेशी आंदोलन में थी तो बाद के क्रांतिकारी आंदोलन में भी थी। यह महज संयोग नहीं है कि भगत सिंह दस मई (1857) का वह शुभ दिन जैसा लेख लिखते हैं और आह्वान करते हैं कि वह फिर से घटित हो। उसी विरासत का विस्तार है भारत का क्रांतिकारी आंदोलन जिसमें रामप्रसाद विस्मिल और अशफाक उल्लाह वंदेमातरम का नारा लगाते हुए फांसी के फंदे पर झूल गए थे। वास्तव में उस समय ‘अल्लाह हो अकबर’ और ‘वंदे मातरम’ का नारा एक साथ लगता था। यह नारा एक साथ तब भी लगा जब गांधी ने 1921 में असहयोग आंदोलन छेड़ा। इस बात का जिक्र कम लोग करते हैं कि अशफाक उल्लाह तो इस मातृभूमि की पूजा की बात करते हैं और आजादी की लड़ाई जीतने के लिए कृष्ण का आह्वान करते हैं। वे राम प्रसाद बिस्मिल से रश्क करते हुए कहते हैं कि मैं पुनर्जन्म लेना चाहता हूं। फांसी से पहले आखिरी रात को अशफाक उल्लाह के जो शब्द थे इस प्रकार थेः—

जाऊंगा खाली हाथ मगर यह दर्द रह जाएगा।
जाने किस दिन हिन्दोस्तान आजाद कहलाएगा।।
बिस्मिल हिंदू हैं और कहते हैं कि
फिर आऊंगा और आकर ये भारत मां
तुझको आजाद कराऊंगा।
जी कहता है कह दूं पर मजहब से बंध जाता हूं,
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूं।
हां खुदा अगर मिल जाए कहीं तो
अपनी झोली फैला दूंगा और
जन्नत के बदले एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा।
लगता है कि अंग्रेजों ने सत्तावन की उस विरासत को मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की राजनीति को बढ़ावा देकर बांट दिया और वंदे मातरम को विवादित बना दिया। विलियम डारलिंपल जैसे अंग्रेज इतिहासकार सत्तावन की विरासत को आज भी वहाबी और उसके आधुनिक संस्करण तालिबान और अलकायदा के बहाने बांटते रहते हैं। मानें या न मानें लेकिन देवबंद भी एक हद तक सत्तावन की उस विरासत का हिस्सा है और महात्मा गांधी से लेकर सुभाष बाबू ने भी उसी विरासत को आगे बढ़ाया। जवाहर लाल भी उसी के हिस्से हैं। गांधी की सर्वधर्म प्रार्थना उसी विरासत का विस्तार है और सुभाष बाबू की आजाद हिंद फौज भी उसी का प्रतिबिंब है। जहां जफर और लक्ष्मीबाई ब्रिगेड बनती है और दिल्ली चलो का सत्तावन वाला नारा दिया जाता है।

कैसे इस समाज की समझदारी बढ़ेगी?

इसलिए आज यह मानते हुए कि हमारी राजनीति में एक ओर औपनिवेशिक विरासत को आगे बढ़ाने वाला संघ परिवार हावी है तो दूसरी ओर इस देश का विपक्ष और व्यापक समाज एक हद तक ही सही लेकिन उस साझी विरासत का दावेदार है। पर वह साझी विरासत तभी जिंदा हो सकती है जब उसे तात्कालिक स्वार्थी राजनीति से अलग दीर्घकालिक सामाजिक और सभ्यतामूलक एकता से संबद्ध किया जाए। इस काम में वे वामपंथी कम ही मददगार हो सकते हैं जो धर्म को राजनीति से दूर रखने की बात करते हैं। क्योंकि मौजूदा विवादों को उलझाने में एक हद तक उनका भी योगदान है। हालांकि, आजकल समझदार वामपंथी भी उभरे हैं जो धर्म की उचित भूमिका का महत्त्व समझ रहे हैं। लेकिन ध्यान रहे कि कल्पनाओं का इतिहास बनाम इतिहास की कल्पनाएँ इस मुद्दे को जटिल बनाने से बाज नहीं आएंगी। इसका समाधान या तो समझदार इतिहासकार कर सकते हैं या तो संत प्रकृति के राजनेता। पर सवाल यह है कि वे आएंगे कहां से? और कैसे इस समाज की समझदारी बढ़ेगी?